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पत्रकार हत्याकांड के खिलाफ परिजन उतरे सड़क पर कहां पुलिस दोषी को बचाने में लगी है

पत्रकार अविनाश कुमार उर्फ बुद्धिनाथ झा की हत्या को लेकर आज भी पूरे बिहार में हंगामा जारी रहा वहीं अविनाश के परिजन मधुबनी पुलिस के कार्यशैली को लेकर सड़क पर उतर आये और थाने के सामने सड़क पर बैठकर परिजनों ने विरोध प्रदर्शन किया।

अविनाश सोशल मीडिया पर खबरों का चैनल चलाते थे। साथ ही वे नवजातों की थेरेपी का क्लीनिक भी चलाते थे। परिजनों का आरोप है कि अविनाश बेनीपटट्टी के कई फर्जी नर्सिंग होम के खिलाफ कार्रवाई के लिए कागजी प्रक्रिया कर रहे थे, इसलिए उनकी हत्या की गई है।

पुलिस ने इस मामले में नर्स समेत छह लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। बेनीपट्टी एसडीपीओ अरुण कुमार सिंह ने जल्द ही पूरे मामले का खुलासा करने का दावा भी किया है। उन्होंने बताया कि अविनाश झा हत्याकांड में अरेर थाना क्षेत्र के अतरौली की पूर्णकला देवी, बेनीपट्टी के रोशन कुमार साह, बिट्टू कुमार पंडित, दीपक कुमार पंडित, पवन कुमार पंडित व मनीष कुमार को गिरफ्तार किया गया है। सभी से सघन पूछताछ की जा रही है। हत्या मामले में पुलिस प्रेम प्रसंग और नर्सिंग होम संचालकों की संलिप्तता दोनों बिन्दुओं पर जांच कर रही है।

प्रजातंत्र को जीवित रखने के लिए पत्रकारों का दायित्व महत्वपूर्ण है।

दरभंगा 13 अक्टूबर। पत्रकारों को सत्य आधारित पत्रकारिता करनी चाहिए। प्रजातंत्र को जीवित रखने के लिए पत्रकारों का यह दायित्व महत्वपूर्ण है।

वरिष्ठ राजनीति चिंतक एवं विश्लेषक और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभागाध्यक्ष डॉ जितेन्द्र नारायण ने ख्यातिलब्ध पत्रकार सह समाजसेवी स्व.रामगोविंद प्रसाद गुप्ता की 86वीं जयंती के अवसर पर “नोबेल शांति पुरस्कार और निर्भीक पत्रकारिता” विषयक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि सत्ता का सामान्यतः चरित्र पक्षपात पूर्ण एवं दलहित में होता है ऐसे में पत्रकारों की पैनी निगाह हमेशा बनी रहनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सत्ता के समर्थन एवं विरोध की प्रवृत्ति की पत्रकारिता ने प्रजातंत्र का सबसे ज्यादा नुकसान किया है उन्होंने कहा कि सत्य आधारित पत्रकारिता के लिए पत्रकारों का निर्भीक होना एवं पक्षपात रहित होना पत्रकारिता जगत की प्राथमिक प्रवेश की प्राथमिक शर्त होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि नोबेल पुरस्कार प्राप्त दोनों पत्रकारों ने साबित कर दिया है कि स्वतंत्र संस्थान का निर्माण पत्रकारों को स्वंय करना चाहिए ताकि उनकी कलम पर किसी दूसरे संस्थान का प्रभाव नहीं पड़े। डॉ नारायण ने कहा कि आज पाश्चात्य के पत्रकारिता का इतिहास पाश्चात्य जगत में उभरते हुए पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के समर्थन से जुड़ा हुआ रहा है जबकि भारत के पत्रकारिता का इतिहास निरंकुश सत्ता के विरोध एवं स्वतंत्र आंदोलन से जुड़ा रहा है। उन्होंने कहा कि भारत की पत्रकारिता मूल्यों पर आधारित रही है पर पश्चिमी पत्रकारिता का मूल ध्येय इससे इतर रहा है। उन्होंने अपना हित साधने के लिए पत्रकारिता को साधन की तरह इस्तेमाल किया है और हमने सत्य को स्थापित करने, जुल्म और जुल्मी का प्रतिकार करने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग किया है।

इस वर्ष शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए दो पत्रकारों का चयन हुआ है जिसके चलते एकबार फिर पत्रकारिता और पत्रकार के दायित्वों का विश्लेषण आरंभ हो गया है।

डॉ जितेन्द्र नारायण ने नोबेल पुरस्कारों का गहराई से विवरण देते हुए बताया कि पत्रकारिता निर्भीक ही होती है, समझौता करनेवाला और दबाव में सत्य को दबाना पत्रकारिता की रवायत नहीं है। इसकी उत्पत्ति तो बाजारवाद से हुई है। बाजार ने मूल्यों पर आघात किया है। हर तरफ स्वार्थ हावी हो गया। कोई संस्था ऐसी नजर नहीं आती जहाँ भ्रष्टाचार ना हो। इस स्थिति में बदलाव निर्भीक पत्रकारिता ही ला सकती है। देश, समाज को पुष्ट करना ही पत्रकारिता का उद्देश्य रहा है पर बाजार ने इसमें बाधा उत्पन्न कर दी है। फिर भी स्व.रामगोविंद प्रसाद गुप्ता सरीखे पत्रकारों की टोली आज भी जीवंत है और यही कारण है कि देर से ही सही पर सत्य को उजागर करने की जिम्मेदारी का वहन आज भी पत्रकारिता कर रही है।

उन्होंने कहा कि इस साल शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए दो पत्रकारों के नाम चुने गए हैं। फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा और रूस के पत्रकार दिमित्री मुरातोव को अपने देश में अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के लिए यह सम्मान दिया जाना है। जहां रेसा ने फिलीपींस में राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतर्ते की सरकार के तानाशाही रवैये के खिलाफ अपने मीडिया ग्रुप ‘रैप्लर’ (Rappler) के जरिए पत्रकारिता को धार दी, तो वहीं रूस में पुतिन सरकार के खिलाफ मुरातोव ने भी ऐसा ही किया।

समारोह के मुख्य अतिथि समाजशास्त्री एवं पूर्व विधान पार्षद डॉ विनोद चौधरी ने कहा कि सत्ता, अधिकारी और समाज को सजग करने की जिम्मेवारी का वहन आज भी मीडिया कर रही है। शायद यही कारण है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नोबेल नहीं दिया जाता है फिर भी पत्रकारों को उनके कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार मिलता आ रहा है। उन्होंने कहा कि विश्व के देश में मीडिया प्रतिष्ठान है पर भारत में जितनी निर्भीक मीडिया है वैसी स्वतंत्रता विश्व के अन्य देशों में पत्रकारिता को नहीं मिली हुई है।उन्होंने दरभंगा की पत्रकारिता की चर्चा करते हुए बताया कि स्व.रामगोविंद प्रसाद गुप्ता ने यहाँ की पत्रकारिता को दधीचि की भांति पल्लवित किया है। आज भी उनके द्वारा तैयार पत्रकारों की टोली जिला से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक निर्भीकता से कलम चला रही है।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए पत्रकार से जननेता बने बेनीपुर के विधायक डॉ विनय कुमार चौधरी ने कहा कि निर्भीकता के बगैर पत्रकारिता अस्तित्व हीन है। बिना सत्य के इसका कोई मोल नहीं है। यह निर्भीकता ही है जिसके बल पर आज भी पत्रकार स्व.रामगोविन्द प्रसाद गुप्ता के कार्यों की चर्चा होती है पर बाजारू प्रवृत्तियों ने पत्रकारिता पर गहरा आघात किया है जिसके कारण मीडिया की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है। इस स्थिति में जब इस क्षेत्र के लोग नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए है तो उम्मीद की जा सकती है कि फिर नैतिक मूल्यों ने प्रति पत्रकार सजग होगें।नोबेल शांति पुरस्कार ही नहीं अपितु नोबेल पुरस्कार की जो घोषणा की जाती है उसमें निर्भीक पत्रकारिता का अहम योगदान होता है। प्रेस की स्वतंत्रता और निर्भीक पत्रकारिता एक दूसरे के पर्याय है।

इससे पूर्व विषय प्रवेश कराते हुए वरीय पत्रकार डॉ विष्णु कुमार झा ने बताया कि यह नोबेल पुरस्कार सांकेतिक है और अगर आज कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम है तो उसका श्रेय मीडिया को ही दिया जाना चाहिए। रसायनशास्त्री डॉ प्रेम मोहन मिश्र ने कहा कि पत्रकार शांति के दूत है और सामाजिक सौहार्द के साथ-साथ कुरीतियों का प्रतिकार करना उनकी प्राथमिकता होती है।नोबेल पुरस्कार ने पत्रकारिता की इसी प्राथमिकता को सशक्ता दी है। प्रोफेसर और पत्रकार डॉ कृष्ण कुमार ने कहा कि नोबेल पुरस्कार से विश्व क्षितिज पर पत्रकारिता गौरवान्वित हुई। सच्चे पत्रकार हदय की आवाज पर लिखते है। कलम के सिपाहियों की निर्भीकता के बल पर ही मीडिया का वजूद टिका है। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रखर पत्रकार डॉ हरिनारायण सिंह ने कहा कि नई पीढ़ी के पत्रकारों को पूर्व के पत्रकारों से कुछ सीख लेनी चाहिए और समाज और देश के विकास के लिए आज उन्हें नए संचार क्रांति का लाभ उठाते हुए हर संभव प्रयास पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करनी चाहिए।
संगोष्ठी का संचालन डॉ एडीएन सिंह ने किया। जबकि स्वागत प्रोफेसर रामचंद्र सिंह चंद्रेश ने किया और धन्यवाद ज्ञापन प्रमोद कुमार गुप्ता ने दिया। मौके पर पत्रकार और बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। इसके पूर्व स्वर्गीय गुप्ता के तैल चित्र पर माल्यार्पण एवं पुष्पांजलि अर्पित कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया।

डेढ़ सौ साल पहले पत्रकारिता की स्वायत्तता को गढ़ते हुए एक पत्रकार नगेंद्रनाथ का बाइस्कोप

डेढ़ सौ साल पहले पत्रकारिता की स्वायत्तता को गढ़ते हुए एक पत्रकार नगेंद्रनाथ का बाइस्कोप
“हालांकि तब सिन्ध में किसी तरह का जनमत न था।”

मैं इस पंक्ति पर ठिठक गया। यह पंक्ति आज से कोई 130-35 साल पुरानी होगी। बिहार में पले-बढ़े पत्रकार नगेंद्रनाथ गुप्त कोलकाता के सार्वजनिक जीवन को जीने के बाद जब पत्रकारिता के लिए सिन्ध जाते हैं तब की पंक्ति है। यह पंक्ति 1884 से लेकर 1891 के बीच की है। आज जब जनमत का निर्माण कई तरह के हथकंडों से होने लगा है एक सदी से पहले के दौर में जनमत की उपस्थिति, अनुपस्थिति और निर्माण की प्रक्रिया की झलक इस किताब में मिलती है। किताब का नाम पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप है। पत्रकार उस दौर में सार्वजनिकता को किस तरह से देख रहे हैं इसकी एक मिसाल उनकी ही लिखी यह पंक्ति है।

“1878 तक, जब मैंने बिहार छोड़ा, यहां सार्वजनिक जीवन का कोई हिसाब न था। पैसे वाले लगभग सभी को लौण्डेबाज़ी का शौक़ था। राजा, महाराजाओं में,उनमें से कई से मैं भी मिला था, औसत से भी कम दर्जे की बुद्धि रखते थे।”

नगेंद्रनाथ का देखना और लिखना दोनों ही बेहद संक्षिप्त और संयमित है। प्रभाव में प्रवाहित नहीं होते न फिज़ूल की बात दर्ज करते हैं। उस वक्त की पत्रकारिता की शैली जितना ज़रूरी हो, उतना ही लिखा जाए की रही होगी।सूचनाओं को दर्ज करने का कालक्रम में विकास होता है और यहां तक पहुंचते पहुंचते उसका रुप पूरी तरह बदल चुका है। पुरखा पत्रकार के इस संस्मरण में न जाने कितनी ऐसी हस्तियां हैं जो सामान्य से लेकर विशिष्ट के रुप में दर्ज हैं जिन्हें हम महापुरुष और ऐतिहासिक पुरुष कहते हैं। इनमें से कइयों के साथ पत्रकार का पत्र व्यवहार है, मित्रता है और संपर्क है। कइयों को उन्होंने देखा है। बंकिम चंद्र चटर्जी, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, सत्येंद्र नाथ बनर्जी, रवींद्रनाथ टगोर, दादा भाई नौरोजी और कई गवनर्र, कलक्टर। रवींद्रनाथ टगौर बीस साल की उम्र से उनके मित्र रहे थे लेकिन पत्रकार नगेंद्र नाथ गुप्त ने कोई किताब नहीं लिखी, अपनी किताब में बेहद कम लिखा। जितना लिखा है वही शानदार है।

नगेंद्रनाथ गुप्त पत्रकारों की पहली पीढ़ी के पत्रकार रहे होंगे। उनके संस्मण में चल रहे अनेक धारा प्रवाह प्रसंगों में पत्रकारिता के बन रहे मानकों की भी झलक मिलती है। ग़ुलाम भारत में भी पत्रकार अपने पेशे की स्वायत्तता को बचाना जानता है जबकि आज़ाद भारत में ग़ुलाम हो चुका गोदी मीडिया कब का पत्रकार होने का मतलब भूल चुका है। कई प्रसंग मिलते हैं जिससे पता चलता है कि ब्रिटिश भारत की नौकरशाही का पत्रकारिता के साथ क्या रिश्ता था, ख़बरों को लेकर किस तरह की नाराज़गियां थीं।


1878 में जब वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पास हुआ तब के बारे में नगेंद्रनाथ गुप्त लिखते हैं कि “बंगाल के गवर्नर सर एश्ले इडेन को हिन्दुस्तानी प्रेस में सरकार की आलोचना पसंद नहीं थी। सबसे ज़्यादा तकलीफ अमृत बाज़ार पत्रकारिता से थी जो तब आधा अंग्रेज़ी और आधा बांग्ला में निकलता था। उन्होंने पत्रकारिता के संपादक शिशिर कुमार घोष को बुलवाया और कहा कि हिन्दुस्तानी अख़बारों में सरकार की आलोचना बंद होनी चाहिए। उन्होंने कहा मुझे कृष्टो दास पाल( हिन्दू पैट्रियट के संपादक) से कोई तकलीफ नहीं है। अगर आपको कोई तकलीफ है तो आप कभी भी मुझसे मुलाकात कर सकते हैं। मैं आपकी सारी मुश्किलें दूर करूंगा। लेकिन सरकार बार-बार अपने अधिकारियों पर हमले बर्दाश्त नहीं कर सकती।”


शिशिर कुमार घोष के नहीं झुकने पर वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पास हो गया। अमृतबाज़ार पत्रिका ने इस कानून के ख़िलाफ़ दमदार अभियान चलाया। जिस हफ्ते कानून का प्रस्ताव आया उस हफ्ते अखबार वर्नाकुलर प्रेस एक्ट से बचने के लिए पूरी तरह अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने लगा और कानून के दायरे से बाहर हो गया। एस्ले इडेन का ख़ूब मज़ाक उड़ा। इस कानून के ख़िलाफ सत्येंद्र नाथ बनर्जी ने ख़ूब बहस की थी। पत्रकार नगेंद्रनाथ गुप्त लिखते हैं कि मैंने एक मीटिंग में कृष्टो दास पाल को बोलते सुना और मैं उनके तर्क करने की शक्ति का कायल हुआ। न ज़ोर-ज़ोर से बोलना, न तालियों की गड़गड़ाहट, न परिचित जुमले थे। लेकिन तर्क और तथ्यों के आधार पर की जाने वाली बात सुनते हुए लोग एकदम से जादू के असर में दिखे। एकदम संतुलित भाषण, पूरी गरिमा और शालीनता से भरा था।


कोलकाता से सिन्ध टाइम्स में काम करने सिन्ध आ गए। जब नगेंद्रनाथ जी को पता चला कि स्वामित्व में बदलाव हुआ है लेकिन जब उन्हें बताए प्रकाशन में बदलाव हुआ तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद एक नया अखबार शुरू किया फिनिक्स। इस अखबार के बारे में लिखते हुए नगेंद्रनाथ गुप्त कहते हैं कि कुछ समय के लिए तो इस नये अख़बार ने मेरी काफी जान खायी क्योंकि उसके सारे ही काम मुझे करने होते थे। मैं रोज़ चौदह से सोलह घंटे काम करता था। अपनी याद आ गई।
“जैसे ही मैंने मिलने के लिए अपना कार्ड भिजवाया वे तुरन्त निकल कर आ गये।”


उन्नीसवीं सदी में पत्रकार विज़िटिंग कार्ड का इस्तमाल करने लगे थे।पत्रकारों को ब्रिटिश हुकूमत के कार्यक्रमों और निजी पार्टियों में बुलाया जाने लगा था।उसमें भारतीय पत्रकार भी होते थे। इसके लिए पास जारी होता था। इसी के साथ भारतीय पत्रकारिता में ऑफ रिकार्ड बनने का भी एक लाजवाब प्रसंग है जो उस समय तो नहीं लीक होता है लेकिन बाद में सबको पता चल जाता है। पत्रकार नगेंद्रनाथ गुप्त ने पत्रकारों के हीरो बनने और फिर बाद में ज़ीरो बन जाने के प्रसंग को भी अपनी शैली में क्या ख़ूब दर्ज किया है।1886 के इस किस्से में ऑफ रिकार्ड, पत्रकार के हीरो बनने और ज़ीरो बनने के प्रसंग मिलते हैं।
नगेंद्रनाथ गुप्त लिखते हैं कि कोलकाता में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन हुआ था। अधिवेशन के बाद प्रतिनिधिमंडल बंगाल के गवर्नर लार्ड डफरिन से मिलने पहुंचा। उनके साथ इण्डियण मिरर के संपादक नरेंद्रनाथ सेन भी थे। डफरिन ने ग़ुस्से में कहा कि “जेण्टलमैन, मैं आपसे पूछता हूं कि क्या वायसराय के निजी पत्राचार तक आपकी पहुंच हो तो उसको अख़बारी लेख का विषय बनाना उचित है?” कुछ पल की खामोशी के बाद नरेंद्रनाथ सेन ने बहुत मज़बूती के साथ कहा, “माई लार्ड, मुझे अगर ज़रा भी अन्दाज़ा होता कि आप अपने घर के अन्दर मुझे इस तरह अपमानित करेंगे तो मैं यहां कभी न आता। “ गवर्नर के सचिव ने समझा दिया कि कुछ गड़बड़ हो गई है. गवर्नर से उनसे माफी मांगी और सभी से कहा कि ये बात यहां से बाहर नहीं जानी चाहिए।


नगेंद्रनाथ ने आगे लिखा है कि “लार्ड डफरिन की कही बातों का काफी समय तक सम्मान रहा और वर्षों तक प्रेस में कुछ नहीं छपा। पर इतनी बड़ी बात को कब तक दबाये रखा जा सकता था। उस दिन पूरे कोलकाता में इसकी चर्चा होने लगी और कांग्रेस अधिवेशन में आए लोग जान गए। नरेंद्र नाथ सेन अचानक से हीरो बन गए। लेकिन उनका यह अक्खड़पन और आज़ाद स्वभाव अन्त तक नहीं बन सका। उन्हें बाद में रायबहादुर की उपाधि मिली और देसी भाषा में ‘निष्ठावान’ पत्रकारिता के लिए सरकारी सब्सिडी भी मिली।”


उम्मीद है आपने ‘निष्ठावान’ पत्रकारिता पर ग़ौर किया होगा। इसी तरह के कई प्रसंग हैं जब नगेंद्रनाथ गुप्त अधिकारी को ख़बर का सोर्स बताने से इंकार करते हैं और एक प्रसंग में कराची के ज़िला पुलिस सुप्रिटेणडेण्ट कर्नल सिम्पसन से कहताे हैं कि “ मैं किसी एक मामले में आपके समन के लिए यहां आया हूं और अगर फ़ौजदार या किसी को भी अख़बार से शिकायत है तो वह अपने पक्ष में जो चाहे करने को आज़ाद है। फ़ौजदार यह सब देखकर स्तब्ध था और मुझे घूरे जा रहा था।”

“बाहर आने के बाद मैंने इस विषय पर ख़ूब तीखा लिखा और इस मसले को सिन्ध के बाहर के प्रेस वालों ने भी उठाया। शायद किसी ने उन्हें सलाह दी कि समन भेजना ग़लत था और उन्होंने फिर मुझे समन की जगह काफ़ी लल्लो-चप्पो वाला पत्र भेजा। इसके बाद मेरी सिम्पसन से मुलाक़ात नहीं हुई।”


यह प्रसंग शानदार है। बताता है कि एक पत्रकार अपने पेशे की स्वायत्ता के लिए आरंभिक दिनों में किस तरह की लक्ष्मण रेखाएं खींच रहा था। वह अधिकारी की धमकी से नहीं डरता है और न ही ख़ुशामद से झुक जाता है। नरेंद्रनाथ सेन के ज़रिए नगेंद्रनाथ गुप्त ने बता ही दिया कि कैसे एक पत्रकार कैसे गवर्नर को जवाब देकर हीरो बनता है और वही पत्रकार रायबहादुर का ख़िताब लेकर निष्ठावान बन जाता है। नगेंद्रनाथ जी नेअंग्रेज़ी हुकूमत की कार्यप्रणाली को शोषक या मास्टर के खाँचे में बाँट कर नहीं देखा है।

बल्कि जैसा है वैसा ही लिखने के आधार पर दर्ज किया है। ऐसा नहीं है कि वे आज़ादी की चेतना से प्रभावित हैं। कांग्रेस के लिए चंदा कर रहे हैं लेकिन लिखते वक्त उनके प्रसंगों में ब्रिटिश हुकूमत आततायी की तरह नही है। बल्कि वे उसकी व्यवस्था को अपने समय की वस्तुनिष्ठता के साथ दर्ज कर रहे हैं।

इस किताब का कई तरह से पाठ किया जा सकता है। नगेंद्रनाथ गुप्त के जीवन के बहाने हम उस समय के शहरों और कस्बों के जीवन में झांक सकते हैं। बंगाल के नैहट्टी रेलवे स्टेशन के बाहर कई साल पहले बंगाली दुकानदारों का जलवा था अब वहां बिहारी दुकानदारों ने कब्जा कर लिया। आप नगेंद्रनाथ गुप्त के ज़रिए उन्नीसवीं सदी के भारत में लोगों को आइसक्रीम खाते देख सकते हैं। घर में गाउन और पजामा पहने देख सकते हैं जो पत्रकार को पसंद नहीं है। जब वे किसी भारतीय जज या अधिकारी को नोट करते हैं तो उनके इलाके के कपड़े,पगड़ी और चप्पल का ज़िक्र करते हैं। इस आधार पर वे उस अधिकारी को बाकी अधिकारियों से फैसला करते हैं। ब्रिटिश अफसरों में घूस और ईमानदारी के द्वंद के भी कई किस्से हैं। जातिगत पूर्वाग्रह भी हैं। चूँकि इसे बारे में बहुत प्रसंग नहीं है लेकिन इसे आधार बना कर अच्छा ख़ासा अध्ययन हो सकता है। वे एक दो जगहों पर ऊंचा ललाट और खास तरह के चेहरे की पहचान को ब्राह्मणों से जोड़ते हैं। कई तरह के शब्द हैं जो अब प्रचलन में नहीं हैं। कई तरह की मस्तियां हैं जो अब भी हैं।


“जब पण्डित जी क्लास में आते थे तो हमारे कुछ शरारती साथी हाथ जोड़ कर सिर तक ले जाते थे और ज़ोर से कहते थे ‘ पण्‍डित जी प्रोनाउन (प्रणाम की जगह) और उधर से तुन्त जवाब आता था, ‘ बेंचोपरी’( बेंच के ऊपर खड़े हो जाओ)”
यह छपरा का प्रसंग है। प्रणाम का मज़ाक उड़ते-उड़ते प्रोनाउन हो गया है। शरारत प्रयोगधर्मिता को जन्म देती है। ऐसी मौलिकता तो आज के बच्चों की शरारत में कहां होगी। तब लेखक की उम्र बहुत कम थी। वे छपरा के सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे और यह कितना शानदार है कि बच्चे उस समय भी मास्टरों को छेड़ा करते थे। पुरखा पत्रकार ने बंकिम को भी करीब से देखा है और रवींद्रनाथ टगोर से तो दोस्ती ही थी। उनके बारे में लिखते हैं कि “कई महीनों तक वे कमीज़ नहीं पहनते थे और हमारे घर भी सिर्फ धोती पहने आ जाते थे।”

मुझे नगेंद्रनाथ गुप्त जी का देखना बहुत पसंद आया। वे कितनी चीज़ें देख रहे होते हैं। लिखा बहुत कम लेकिन जिस तरह से लिखा है अंदाज़ा हो जाता है कि कितना कुछ देखा है। एक आख़िरी प्रसंग।

“मैंने बाद में एक बार वाजिद अली शाह को कलकत्ता में देखा था। वह दुर्गा पूजा का आख़िरी दिन था और नवाब देवी की प्रतिमा का विसर्जन देखने के लिए अपने एकान्तवास से बाहर आए थे। वे अनपी भारी-भरमक चार पहिये वाली बग्गी पर थे और उनके आगे-पीछे उनके बाडीगार्ड चल रहे थे जो न ख़ुद चुस्त-दुरुस्त दिख रहे थे न उनके घोड़े। वाजिद अली शाह ख़ामोशी से हुक्का पी रहे थे और उनका साइस की सीट पर उनका हुक्काबरदार बैठा हुक्के को संभाल रहा था। नवाब काफी बूढ़े हो गये थे लेकिन उनके चेहरे से उनका नूर टपक रहा था और मैं बांग्ला मुहावरा इस्तमाल करूं तो वे भी तुरन्त टपकने वाले आम की तरह लग रहे थे। उनको देखने के साथ ही मुझे काल के क्रूर चक्र की भी याद आयी। “

शानदार विवरण है। ऐसा लग रहा है जैसे सत्यजीत रे वाजिद अली शाह के आख़िरी पलों को शूट कर रहे हों। इतने छोटे से पैराग्राफ़ में कितना कुछ दर्ज कर दिया है।

अरविन्द मोहन जी शुक्रिया। अनुवाद को साकार करने के लिए और मुझ तक पहुंचाने के लिए। अरविन्द मोहन एक संयोग से इस पुरखा पत्रकार को याद करते हैं कि दोनों का ताल्लुक मोतिहारी से है। मेरी भी है उस ज़िले से। शहर से भले न हो। हमने वाकई एक शानदार किताब पढ़ी है। एक पत्रकार के देखने को देखा है जो हमसे कोई करीब डेढ़ सौ साल पहले इस पेशे में आए थे। ग़ुलाम भारत में पत्रकारिता की स्वायत्ता गढ़ रहे थे। ग़ुलाम भारत में उभर रही आज़ादी की चाह की रेखाओं को दर्ज कर रहे थे।