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गुप्ता काल से शुरु हुआ है भारत में स्त्री शक्ति की पूजा

शक्ति-पूजा का अर्थ

प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म तीन मुख्य संप्रदायों में बंटा रहा है – विष्णु का उपासक वैष्णव, शिव का उपासक शैव और शक्ति का उपासक शाक्त संप्रदाय। दुनिया के सभी दूसरे धर्मों की तरह वैष्णव और शैव संप्रदाय जहां सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति पुरुष को मानते हैं, शाक्तों की दृष्टि में सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति स्त्री शक्ति है। देवी को ईश्वर के रूप में पूजने वाला शाक्त धर्म दुनिया का संभवतः एकमात्र धर्म है।

स्त्री-शक्ति की आराधना की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परंपरा की शुरुआत इतिहास के गुप्त काल से मानते हैं जब ‘देवी महात्मय’ नाम के ग्रंथ की रचना हुई थी। दसवीं से बारहवीं सदी के बीच ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद शाक्त परंपरा उत्कर्ष पर पहुंची थी। सच यह है कि स्त्री-शक्ति की पूजा की जड़ें प्रागैतिहासिक काल में ही मौजूद हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रचलन था। खुदाई में उस काल की देवी की कई मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में भी वाक्शक्ति की प्रशंसा में एक देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति कहती है – मैं ही समस्त जगत की अधीश्वरी तथा देवताओं में प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में स्थित हूं। देवगण जो भी कार्य करते हैं वह मेरे लिये ही करते हैं। वेदों की कई अन्य ऋचाओं में अदिति का मातृशक्ति के रूप में वर्णन है जो माता, पिता, देवगण, पंचजन, भूत, भविष्य सब कुछ हैं। कालांतर में शक्ति पूजा की इस प्राचीन परंपरा के साथ असंख्य मिथक और कर्मकांड जुड़ते चले गए।

योगियों की शक्ति उपासना की पद्धति थोड़ी अलग है। वे शक्ति का अस्तित्व किसी दूसरी दुनिया या आयाम में नहीं, मानव शरीर के भीतर ही मानते हैं। रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति के रूप में। विभिन्न यौगिक क्रियाओं और ध्यान के माध्यम से इस शक्ति की ऊर्ध्व यात्रा शुरू कराई जाती है। जब यह शक्ति शरीर के छह चक्रों का भेदन करती हुई मष्तिष्क में स्थित सातवें चक्र में पहुंच जाती है तो योगी को असीम शक्ति और परमानंद की अनुभूति होती है।

मित्रों को स्त्री – शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन नवररात्रि की शुभकामनाएं, इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए !

लेखक –ध्रुव गुप्ता

हाईकोर्ट ने मुखिया हीरावली देवी को चुनाव लड़ने की दी अनुमति

पटना हाई कोर्ट ने कैमूर(भभुआ) जिले के लहदन ग्राम पंचायत राज की मुखिया रही हीरावती देवी को चुनाव लड़ने का आदेश दिया। जस्टिस विकास जैन की खंडपीठ ने हीरावती देवी की याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्हें मुखिया पद का चुनाव लड़ने की अनुमति दी।

साथ ही कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग और जिलाधिकारी कैमूर को सिंबल आवंटित करने का आदेश दिया। हीरावती देवी को आगामी 20 अक्टूबर को होने जा रहे चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने का भी आदेश दिया है।

इसके पूर्व कोर्ट ने मुखिया के पद पर निर्वाचन के लिये नामांकन पत्र को स्वीकार करने का आदेश दिया था। हीरावती देवी को पंचायती राज विभाग के प्रधान सचिव के आदेश से मुखिया के पद से 28 अक्टूबर, 2019 को हटा दिया गया था।
इस आदेश के विरुद्ध अपीलार्थी ने पटना हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर किया था, जोकि 8 मार्च, 2021 को खारिज हो गया था। इस रिट याचिका में दिए गए आदेश के विरुद्ध याचिकाकर्ता ने पटना हाई कोर्ट में ही अपील दायर किया था, जिस पर सुनवाई करते हुए खंडपीठ ने यह आदेश को पारित किया।

राज्य सरकार के पंचायती राज विभाग के प्रधान सचिव द्वारा 20 अक्टूबर, 2019 को पारित उस आदेश को रद्द करने हेतु याचिका दायर की थी, जिसके जरिये उन्हें लोहदन पंचायत के मुखिया के पद से हटा दिया गया था।

अपीलार्थी के अधिवक्ता ने बताया कि मुखिया के ऊपर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने कथित रूप से लगभग 34 लाख रुपये का गबन किया था। इन्होंने प्रबंधन कमेटी के नाम से चेक जारी नहीं कर पंचायत सचिव के नाम से चेक जारी किया और पैसे का इस्तेमाल अपने लिये किया था। ये राशि मुख्यमंत्री सात निश्चय योजना की थी।
किन्तु याचिकाकर्ता की जानकारी में जब यह बात आई तो इन्होंने ब्याज समेत पूरे पैसे को खाता में जमा करवा दिया। गबन की गई राशि पर कंपाउंड इनटरेस्ट लेने का भी आदेश दिया गया। अपीलार्थी ने इस राशि को भो खाता में जमा किया।

अपीलार्थी जनवरी, 2016 में मुखिया के तौर पर निर्वाचित हुए थी। पब्लिक फण्ड के गबन को लेकर स्पष्टीकरण भी पूछा गया था। बी डी ओ ने जिला पंचायत राज ऑफिसर को अपीलार्थी द्वारा पैसा जमा कर दिए जाने की सूचना भी दे दिया था।
इस मामले में अगली सुनवाई आगामी 21 अक्टूबर को होगी।

सेंसेक्स, निफ्टी में उछाल; सेंसेक्स 488 अंक उछला, निफ्टी 17,800 के करीब; टाइटन में 10% की बढ़त

भारतीय बाजार कल के नुकसान से उबरकर गुरुवार को सकारात्मक पर समाप्त हुआ। सेंसेक्स 488 अंक उछलकर 59,677.83 पर, जबकि निफ्टी 144.35 अंक ऊपर 17,790.35 पर बंद हुआ ।

सेंसेक्स चार्ट (07.10.21) एक नजर में

तेल और गैस को छोड़कर, अन्य सभी सेक्टोरल इंडेक्स निफ्टी रियल्टी और ऑटो इंडेक्स में 4-6 फीसदी की बढ़त के साथ हरे निशान में बंद हुए। बीएसई के मिडकैप और स्मॉलकैप इंडेक्स में 1-1 फीसदी से ज्यादा की तेजी आई।
बैंक निफ्टी 0.62% बढ़कर 37,750 पर पहुंच गया ।

रियल्टी के साथ ऑटो ने बढ़त हासिल की। टाइटन और टाटा मोटर्स शीर्ष लाभार्थियों में से थे। टाइटन आज सेंसेक्स में शीर्ष पर रहा, समापन पर 10.69% उपर था, इसके बाद एमएंडएम, मारुति, इंडसइंड बैंक और सन फार्मा का स्थान रहा। डॉ रेड्डीज ने सबसे खराब प्रदर्शन किया जो 1.3% नीचे था, इसके बाद एचडीएफसी और नेस्ले इंडिया थे। सेंसेक्स हरे रंग में 20 और लाल रंग में 10 शेयरों के साथ बंद हुआ ।

सेंसेक्स के शेयर एक नजर में

स्मॉलकैप क्षेत्र से कम से कम 346 शेयर 52 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। इस बीच, 15 शेयर 52-सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गए, जिनमें से ज्यादातर माइक्रोकैप स्पेस से थे। लगभग 460 शेयरों ने अपर सर्किट लिमिट और 145 लोअर सर्किट लिमिट को हिट किया। सेंसेक्स हरे रंग में 20 और लाल रंग में 10 शेयरों के साथ बंद हुआ, जबकि निफ्टी में 33 अग्रिम और 17 गिरावट देखी गई।

निफ्टी के प्रमुख शेयरों के टॉप गेनर और लूजर का हाल

कन्हैया का कांग्रेस के साथ आना कांग्रेस और कन्हैया दोनों की जरुरत है

कन्हैया कुमार: बहुत कठिन है डगर पनघट की

न मैं वामपंथी हूँ और न ही काँग्रेसी हूँ, लेकिन मेरी नज़रों में वामपंथी या काँग्रेसी होना गुनाह नहीं है, उसी प्रकार जिस प्रकार भाजपायी और संघी होना गुनाह नहीं है। गुनाह है इनके कुकर्मों के खिलाफ आवाज़ न उठाना। इसी प्रकार, न व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति में मेरा विश्वास है और न ही मैं किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हाँ, दक्षिणपंथियों की विभाजनकारी राजनीति के ख़िलाफ़ हूँ, इसमें सन्देह की कोई गुँजाइश नहीं है। मेरी सहानुभूति लेफ़्ट के प्रति भी है और काँग्रेस के प्रति भी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं लेफ्ट या काँग्रेस की हर बात से सहमत हूँ, या फिर इन्हें निर्दोष मानता हूँ: सन्दर्भ चाहे मुस्लिम-तुष्टिकरण का हो, या फिर इनकी नकारात्मक राजनीति का। आलोचनात्मक विवेक के बिना समर्थन या विरोध मुमकिन नहीं है। यही स्थिति कन्हैया के सन्दर्भ में भी है। मेरा यह मानना है कि जब मुद्दों और समस्याओं को रोमांटिसाइज़ किया जाता है या फिर राजनीति में मुद्दों की जगह व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को अहमियत दी जाती है, तो समस्याओं के समाधान की संभावना धूमिल पड़ती चली जाती है।

यही भूल भारतीय जनमानस ने सन् 1977 में की थी, और यही भूल 1989 में दोहरायी गयी। यही चूक अन्ना आन्दोलन के दौरान हुई और यही चूक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में हुई। यही चूक सन् 2019 में कन्हैया कुमार के संदर्भ में वामपंथियों से हुई, और यही चूक आज कन्हैया कुमार के काँग्रेस में प्रवेश से उत्साहित काँग्रेसजन या कन्हैया-समर्थक कर रहे हैं। सच तो यही है कि वामपंथ और कन्हैया कुमार एक दूसरे को सँभाल नहीं पाए, और परिणाम सामने है, कन्हैया कुमार का काँग्रेस के पक्ष में खड़ा होना। यह स्थिति काँग्रेस के लिए बेहतर है क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, उसे पाना-ही-पाना है, थोडा ज्यादा या फिर थोडा कम। यह स्थिति कन्हैया कुमार के लिए बेहतर हो सकती है और बेहतर प्रतीत हो रही है, पर कितनी बेहतर होगी, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है जिसे आने वाला समय बताएगा। पर, वामपंथ और विशेष रूप से सीपीआई के लिए यह स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं है। रही बात मुझ जैसों की, तो उन्हें पता था की देर-सबेर यह तो होना ही था। पिता के श्राद्ध में बाल मुंडवाने से इनकार और चुनाव के वक़्त मंदिर में मत्थे टेकना, नोटबन्दी के समय माँ को लाइन में लगवाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना और खुद चुनावी लाभ के लिए माँ के इस्तेमाल की हरसंभव कोशिश, युवाओं की ऐसी टोली को तैयार करना जो उनके प्रति वफादार हो: ये तमाम बातें ऐसी आशंकाओं को जन्म ही नहीं दे रहे थे, बल्कि उसे पुष्ट भी कर रहे थे।

काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं:

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ‘अपने भविष्य को लेकर चिन्तित’ कन्हैया का काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं है। हाँ, अब वह आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति का दावा नहीं कर सकता है। मेरी नज़रों में तो पहले भी नहीं कर सकता था। लेकिन, उसका काँग्रेस में जाना निस्संदेह जनवादी आन्दोलन के लिए एक झटका है, ऐसा झटका जिससे संभल पाना आसान नहीं होगा। यह उसके लिए एक सपने के टूटने की तरह है जिसकी कसक लम्बे समय तक बनी रहेगी। पर, अगर वामपंथ इस घटना को सकारात्मक नज़रिए से ले, तो यह उसके लिए आत्ममूल्यांकन का अवसर भी है कि क्या उसने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर व्यक्ति को तरजीह देकर सही किया था। ऐसे हज़ारों-लाखों कन्हैया फ़ील्ड में सक्रिय रहते हुए जनवादी आन्दोलन को मज़बूती दे रहे हैं। मेरी नज़रों में उनकी अहमियत और उनकी उपलब्धियाँ कन्हैया से कहीं अधिक मायने रखती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि वे कन्हैया की तरह ‘मीडिया-डार्लिंग’ नहीं हैं।

कन्हैया कुमार की ज़रुरत:

हर राजनीतिक दल की अपनी विशिष्ट संरचना और विशिष्ट प्रकृति होती है। जिस प्रकार संघ-परिवार के बिना भाजपा की कल्पना नहीं की जा सकती है और नेहरु-गाँधी परिवार के बिना काँग्रेस की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार वामपंथी दलों की भी अपनी विशिष्ट प्रकृति है। एक तो यह उन अपवाद राजनीतिक दलों में है जिसमें आतंरिक लोकतंत्र मौजूद है और जहाँ पार्टी संगठन में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर ऊपर जाना होता है; और दूसरे पार्टी-संगठन बुज़ुर्ग वहाँ पर भी कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं। जहाँ तक बेगूसराय की बात है, तो सीपीआई अब भी बिहार में कहीं पर बची हुई है और थोड़ा-बहुत प्रभाव रखती है, तो बेगूसराय में। वहाँ ट्रेड यूनियन भी मज़बूत है, और यह पार्टी की आय का प्रमुख स्रोत भी है जिस पर वामपंथी नेताओं की नज़र है।

यद्यपि पार्टी ने कन्हैया कुमार को एडजस्ट करने की हर संभव कोशिश की और उसकी महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने का प्रयास करते हुए पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थान भी दिया, तथापि कन्हैया कुमार की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने में वह असफल रही। इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि बेगूसराय के बुज़ुर्ग वामपंथी कन्हैया कुमार को वाकओवर देने के लिए तैयार नहीं थे, और कन्हैया कुमार फ्रीहैंड से कम पर मानने के लिए तैयार नहीं। अगर कन्हैया ने लोकसभा-चुनाव के समय उन्हें और पार्टी के कैडरों को साइडलाइन करने की हरसंभव कोशिश की, तो उन्होंने भी कन्हैया कुमार की हार को सुनिश्चित करने में कहीं कोर-कसर नहीं उठा रखा। दोनों के बीच यह अदावत विधानसभा-चुनाव के दौरान देखने को मिली। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि न तो कन्हैया पार्टी एवं उसके बुजुर्गों के साथ सहज रह गए और न ही पार्टी एवं उसके बुजुर्ग कन्हैया कुमार के साथ।

दूसरी बात यह कि कन्हैया ने आरम्भ से ही ऐसा लाइन लिया जो गैर-वामपंथी विपक्ष के साथ सहज महसूस कर सके और उसका स्टैंड गैर-वामपंथी विपक्ष के लिए असहज करने वाला न हो। इसे इस बात से भी बल मिला कि पिछले चुनाव के दौरान कन्हैया को अक्रॉस द पार्टी लाइन जाकर सहयोग एवं समर्थन मिला। साथ ही, कई लोगों को व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन वामपंथी दल से उसकी उम्मीदवारी के कारण उन्होंने कन्हैया को समर्थन देने और उसके लिए वोट करने से परहेज़ किया। इससे कन्हैया कुमार को यह लगा कि अगर वह सीपीआई का उम्मीदवार न होकर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ता, तो जीत सकता था। अब यह बात अलग है कि यह खुशफहमी ऐसी स्थिति पैदा होने पर टिक पाती अथवा नहीं, लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि कन्हैया कुमार को एक बड़े प्लेटफ़ॉर्म की तलाश है। जैसे ही इसके लिए उपयुक्त समय और उपयुक्त अवसर आया, कन्हैया कुमार सीपीआई का दामन छोड़कर काँग्रेस के नाव पर सवार हो गए। इससे इतना तो हो ही जाएगा कि कन्हैया कुमार को एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल जाएगा जहाँ से निकट भविष्य में शायद राज्यसभा का रास्ता भी खुले और काँग्रेस के प्रवक्ता के रूप में वे मीडिया कवरेज भी हासिल कर पाने में सफल हों। राजनीतिक भविष्य को लेकर जो अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही है और सत्ता का एक डर, जो उनके अन्दर कहीं गहरे स्तर पर विद्यमान है, वह डर दूर होगा अलग से।

वामपंथियों को लुभाता रहा है काँग्रेस:

ऐसा नहीं है कि यह स्थिति बेगूसराय में ही देखने को मिलती है। इस सन्दर्भ में वामपंथियों का लम्बा-चौड़ा इतिहास है। काँग्रेस तो वामपंथियों की सहोदर ही है। वामपंथियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन उसे हमेशा मिलता रहा है, और जेएनयू के वामपंथियों की तो काँग्रेस आश्रय-स्थली ही रही है। जैसा कि पुष्परंजन जी अपने आलेख ‘हिटलर के मुल्क में मार्क्सवादियों की जीत’ में लिखते हैं। सन् (1975-76) में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी ने एसएफआई से काँग्रेस और फिर काँग्रेस से एनसीपी तक की यात्रा तय की, तो जेएनयू में एसएफआई राजनीति से निकले डॉ. उदितराज (पूर्व नाम रामराज) ने भाजपा होते हुए काँग्रेस तक की यात्रा। इसी प्रकार चाहे शकील अहमद ख़ान (1992-93) की बात करें, या बत्ती लाल बैरवा की, या फिर नासिर अहमद की, इन लोगों ने जेएनयू के भीतर एसएफआई की राजनीति करते हुए अध्यक्ष के रूप में जेएनयू छात्रसंघ को नेतृत्व प्रदान किया, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन्होंने काँग्रेस का दमन थामते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने का काम किया। वहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता इन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पायी। अब, सवाल यह उठता है कि जब अल्ट्रा लेफ्ट सोच वाली आइसा से जेएनयू छात्रसंघ-अध्यक्ष रहे संदीप सिंह (2007-08) और मोहित के. पाण्डेय काँग्रेस में जा सकते हैं, तो कन्हैया कुमार तो फिर भी एआईएसएफ, जो वामपंथी संगठनों में सबसे अधिक उदारवादी सोच वाला छात्र संगठन है जो सीपीआई से सम्बद्ध है, से जुड़े रहे हैं।

काँग्रेस की ज़रुरत:

दरअसल, अगर काँग्रेस ने कन्हैया को प्राथमिकता दी है, तो इसका कारण यह है कि वह कन्हैया कुमार की मोदी-विरोधी छवि, उनकी वाकपटुता, पढ़े-लिखे युवाओं के बीच उसके क्रेज़ और उसकी अखिल भारतीय अपील को भुनाना चाहती है। साथ ही, कन्हैया कुमार के आने से काँग्रेस को नयी पीढ़ी का ऐसा नेता मिलेगा जिसकी मास-अपील है और जिसके सहारे काँग्रेस बिहार में अपने मृतप्राय संगठन में जान फूँकना चाहती है। इतना ही नहीं, काँग्रेस कन्हैया कुमार के सहारे एक बार फिर से सवर्ण मतदाताओं पर नज़र गराए हुए है और उसे लगता है कि पिछले तीन दशकों से हाशिये पर खड़े सवर्ण समुदाय के लिए कन्हैया कुमार उनके राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्स्थापना में सहायक साबित हो सकते हैं। इससे ऐसा लगता है कि काँग्रेस बिहार में अपने रिवाइवल को लेकर गम्भीर है, लेकिन उसकी दुविधा महागठबंधन की ज़रुरत और काँग्रेस एवं कन्हैया कुमार को लेकर राजद के रवैये को लेकर है।

काँग्रेस देश की ज़रुरत:

मैं कन्हैया की इस बात से सहमत हूँ, यह कहना तो उचित नहीं है क्योंकि मैं ये बातें लम्बे समय से कह रहा हूँ। मेरा मानना है कि “देश को बचाने के लिए काँग्रेस को बचाना होगा।” जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो मेरे लिए काँग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं होता। अपनी तमाम कमियों के बावजूद, मेरे लिए काँग्रेस भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, उस सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का, जिसके केन्द्र में सहिष्णुता और समन्वय का भाव मौजूद है, जो भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति संवेदनशील है तथा जो अपनी मूल प्रकृति में समावेशी है। आज सत्ता-प्रायोजित असहिष्णुता और उसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायीकरण ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के समक्ष ऐसे चुनौतियाँ उपस्थित की हैं जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता पर भी भरी पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में इस सोच के खिलाफ ज़ंग किसी भी देशभक्त की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

विचारधारा की राजनीति के भ्रम से मुक्त हो वामपंथ:

कन्हैया कुमार के इस निर्णय से वामपंथी सकते में हैं, और आलम यह है कि उन्होंने कन्हैया के विरुद्ध मोर्चा तक खोल दिया है। उसे समझौतावादी से लेकर अवसरवादी तक साबित करने की हरसंभव कोशिश हो रही है। वामपंथियों को अगर इस बात की गलतफहमी हो कि वे और उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ‘विचारधारा की राजनीति’ करते हैं, वे इस गलतफहमी को अपने दिमाग से बाहर निकल दें। इस प्रकार की सोच अतिवाद की ओर ले जाती है। इसी सोच का परिणाम है कि जब बेगूसराय के रास्ते कन्हैया कुमार का राजनीति में प्रवेश हुआ, तो उन्होंने कन्हैया के चरित्र एवं व्यक्तित्व को रोमांटिसाइज़ करते हुए उसे ‘मोदी के वामपंथी अवतार’ में तब्दील ही कर दिया और मुद्दों को दरकिनार करते हुए व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति की दिशा में ठोस पहल की; और अब जब कन्हैया कुमार वामपंथ का दामन छोड़कर काँग्रेस में शामिल हो चुका है, तो उसे खलनायक साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। आखिर इस बात की अनदेखी क्यों की जा रही है कि आज के दौर की राजनीति विचारधारा से परे जा चुकी है, और जो भी लोग विचारधारा की राजनीति कर रहे हैं, वे या तो हाशिये पर धकेले जा चुके हैं या धकेले जा रहे हैं। यह खुद वामपंथी राजनीति की भी वास्तविकता है, अन्यथा शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की अनदेखी कर लोकसभा-चुनाव,2014 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह और लोकसभा-चुनाव,2019 में कन्हैया कुमार को उम्मीदवार नहीं बनाया जाता। क्या यह सच नहीं है कि शत्रुघ्न बाबू की जगह राजो दा को टिकट दिलवाने में सूरजभान, शत्रुघ्न बाबू के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता और उसकी धन-बल की राजनीति की अहम् भूमिका रही? क्या यह सच नहीं है कि पिछले चुनाव में सीपीआई कैडर की उपेक्षा करने की कन्हैया कुमार को खुली छूट दी गयी? खुद बेगूसराय की राजनीति में भोला बाबू और सुरेन्द्र मेहता जैसे लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सीपीआई का दामन नहीं छोड़ा? क्या यह सच नहीं है कि हालिया सम्पन्न बिहार विधानसभा-चुनाव में मटिहानी से सीपीएम उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह की हार में पूर्व सीपीआई विधायक राजेन्द्र राजन जी के चकवार-प्रेम और बछवाड़ा से सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय की हार में सीपीएम के रामोद कुँवर के भाजपा उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता के प्रति प्रेम की अहम् भूमिका रही? उस समय तो वैचारिक प्रतिबद्धता का ख्याल नहीं रहा। अब सवाल यह उठता है कि यह दोगलापन कब तक चलेगा कि जब तक कोई सीपीआई में है, तो उदार, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील है; और अगर किसी दूसरे दल में, तो प्रतिक्रियावादी, समझौतावादी और कम्युनल?

बदलते परिवेश और बदलती सोच को समझने की ज़रुरत:

दरअसल, वामपंथी विचारधारा से काँग्रेस की निकटता और उसके भीतर पारंपरिक रूप से मज़बूत सेंटर लेफ्ट की मौजूदगी, जो पिछले तीन दशकों के दौरान कमजोर पड़ी है, अपनी भूलों के कारण वामपंथ का निरन्तर कमजोर पड़ते चला जाना, वामपंथी दलों पर बुजुर्गों के वर्चस्व के कारण युवाओं के सीमित स्पेस, छात्र नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इसकी पृष्ठभूमि में अखिल भारतीय उपस्थिति एवं प्रभावशीलता के कारण काँग्रेस में बेहतर राजनीतिक भविष्य की सम्भावना इस प्रवृत्ति को उत्प्रेरित करती है। वामपंथी दलों को भी इस सच्चाई को स्वीकारना होगा और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वे बदलते हुए हालात और बदलती हुई सोच को समझने के लिए तैयार नहीं हो जाते। उन्हें समाज में मूल्यों एवं वैचारिकता के क्षरण को भी समझना होगा और इस बात को भी समझना होगा कि प्रबल राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार युवा अपनी बारी की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके पास समय नहीं है और उन्हें कम समय में बहुत कुछ हासिल करना है। वे विचारधारा के नाम पर अपनी भविष्य की संभावनाओं से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सबके मूल में मौजूद है वह दबाव, जो पिछली तीन दशकों के दौरान पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण सृजित हुआ है और जिसने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों और नैतिकताओं को तहस-नहस कर दिया है। इतना ही नहीं, वामपंथ को लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए सत्ता की राजनीति की बजाय दबावकारी समूह की राजनीति को प्राथमिकता देनी चाहिए, और उन लोगों एवं उन दलों को भी भरोसे में लेना चाहिए जिनकी प्रतिबद्धता भले ही वामपंथी विचारधारा के प्रति नहीं है, पर जो वामपंथी सरोकारों से इत्तफाक रखते हैं। इस मोर्चेबन्दी को मज़बूत करते हुए वामपंथ को सड़क की राजनीति पर और अधिक फोकस करना चाहिए क्योंकि एक तो अन्य गैर-भाजपा दल सुविधाभोगी होने के कारण सड़क की राजनीति भूल चुके हैं और दूसरे, डॉ. लोहिया ने कहा है: “जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है।” तमाम सीमाओं के बावजूद वामपंथ की खासियत इस बात में है कि यह कैडर-आधारित पार्टी है और इसके अधिकांश कैडर, कुछ हद तक वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ सड़क की राजनीति में विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में नियति ने भारतीय वामपंथियों पर ऐतिहासिक दायित्व के निर्वाह की जिम्मेवारे सौंपी है जिससे वे मुँह नहीं मोड़ सकते हैं।

बहुत कठिन है डगर पनघट की:

जहाँ तक कन्हैया कुमार के राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है, तो कन्हैया के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होने जा रहा है। इसका कारण यह है कि उन्होंने वामपंथी दलों की अदावत मोल ली है जिसके लिए शायद वामपंथी उन्हें माफ़ नहीं करें, और इसकी कीमत देर-सबेर उन्हें चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में कन्हैया ने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता गँवाते हुए अपनी राजनीतिक पूँजी को दाँव पर लगाया है। इस क्रम में उनकी छवि अवसरवादी राजनेता वाली बनी है और इसके कारण यह सन्देश गया है कि वे भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही हैं। इसके कारण वे लोग उनसे दूर छिटकेंगे जो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहते हुए वैकल्पिक संभावनाओं की पड़ताल कर रहे थे।

टिपिकल राजनीतिज्ञ हैं कन्हैया कुमार:

यह कहने, कि कन्हैया कुमार टिपिकल राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर हैं, की तुलना में यह कहना कहीं अधिक उचित है कि कन्हैया कुमार में आरम्भ से ही टिपिकल राजनीतिज्ञ के लक्षण मौजूद रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में उनकी जीत ही संभव नहीं हो पाती। सन् 2016 में ही क़रीब जेएनयू वाली घटना के 6-7 माह बाद बाप्सा के नौ सदस्यों को, जो दलित समुदाय से आते थे, को जेएनयू से निलम्बित किया गया था, कन्हैया सहित तमाम तथाकथित प्रगतिशील और उदारवादी ताक़तों ने निलम्बन के मसले पर उनका साथ देने से इनकार करते हुए ‘जय भीम, लाल सलाम’ नारे को ‘सार्थक’ बनाया। कुछ ऐसे ही हालात बेगूसराय में दिखे, जब पूर्व एमएलसी उषा साहनी को कोई पूछने वाला तक नहीं था, जबकि वे उस सभा में सीपीआई की वरिष्ठतम नेत्री थीं और उस सेमीनार में प्रमुख वक्ता के रूप में कन्हैया कुमार मंच पर विराजमान थे। लोकसभा-चुनाव के बाद होने वाली हिंसा में तीन वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, लेकिन कन्हैया कुमार ने मृतकों के घर जाकर उनके प्रति संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता नहीं महसूस की। ये सारे प्रकरण एक दौर में रूमानी नायक में तब्दील हो चुके कन्हैया कुमार के टिपिकल राजनीतिज्ञ होने की ओर इशारा करते हैं।

कन्हैया की समस्या:

श्याम विज सही ही लिखते हैं, “लोग कहते हैं कि कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कन्हैया कुमार की समस्या यही है कि वह महत्वाकांक्षी नहीं है।” अगर कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी होते, तो इससे देश एवं समाज का भी भला होता, और खुद उनका भी भला होता। दरअसल, कन्हैया की समस्या यह है कि उसकी महत्वाकांक्षा का दायरा अत्यन्त सीमित है। वह येन-केन-प्रकारेण संसद तक पहुँचने की चाह रखता है, उससे अधिक कुछ नहीं; जबकि उसके सामने खुला मैदान है। लेकिन, इसके लिए उसे मीडिया की चकाचौंध से और इसके द्वारा मिलने वाली सस्ती लोकप्रियता की चाह से मुक्त होना होगा। उसे व्हाट्स एप्प, फेसबुक और ट्वीटर की मायावी दुनिया से बाहर निकलकर ज़मीन पर उतरकर राजनीति करनी होगी, अपने कोम्फोर जोन से बाहर निकलना होगा और अनकम्फर्ट जोन में प्रवेश के लिए तैयार होना होगा। लेकिन, अबतक इसके लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हैं। अबतक उसने बने-बनाये प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल किया है, हर वह काम किया है जो मीडिया में फुटेज दिला सके और इस काम में उसे सवर्णवादी मीडिया का पूरा-पूरा साथ मिला है। यहाँ तक कि उसने उस मूल एजेंडे से समझौते भी किए हैं और उन लोगों की अनदेखी करते हुए उनकी उपेक्षा की है, उनका तिरस्कार तक किया है जो संघर्ष के दिनों में उसके साथी रहे हैं और जिन्होंने उस समय उसका साथ दिया जिस समय कन्हैया कुमार के साथ लोग खड़े होने से परहेज़ कर रहे थे। जेएनयू से लेकर बेगूसराय तक, एआईएसएफ से लेकर सीपीआई तक के उसके साथी एवं कैडर इसके साक्षी हैं।

एर्रोगेंस से मुक्ति पाने की ज़रुरत:

इतना ही नहीं, कन्हैया कुमार की छवि भी उनकी मुश्किलों को बाधा रही है। दिल्ली से बेगूसराय और पटना तक, छात्र-जीवन से राजनीतिक जीवन तक कन्हैया के एर्रोगेंस की किस्से सुने जा सकते हैं। दरअसल, कन्हैया जितना डिजर्व करता था, उसे उससे कहीं बहुत अधिक मिला। वह अपनी इस सफलता को पचा नहीं पा रहा है। इसने उसे एर्रोगेंट बनाया, और उस एर्रोगेंस के कारण उसने बहुत कम समय में अपने दोस्तों और शुभचिंतकों को खोया है। आज कन्हैया के प्रति सहानुभूति एवं समर्थन रखने वालों को सुदर्शन की ‘हार की जीत’ कहानी के बाबा भारती की बात याद आ रही होगी, और एक ही प्रश्न उनके मानस-पटल पर बार-बार कौंध रहा होगा: ‘अब कोई किसी ‘कन्हैया’ पर कैसे विश्वास करेगा? अब इस तरह से विश्वास करना मुश्किल होगा।”

मुस्लिम-परस्त छवि से छुटकारा पाने की चुनौती:

अबतक कन्हैया की छवि प्रो-मुस्लिम की रही है, और उन्होंने बेगूसराय चुनाव के दौरान जो रवैया अपनाया, उससे उनकी यह छवि और भी अधिक मज़बूत हुई है। उनकी इस छवि को मज़बूत करने में उनके विरोधियों की भी अहम् भूमिका रही, और सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मसले पर होने वाले आन्दोलन में उनकी सक्रियता ने इसे और अधिक पुष्ट किया है। उन्हें ये बातें समझनी होंगी कि सिर्फ मुसलमानों एवं दलितों के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। दलित वोटबैंक के तो पहले से ही कई दावेदार हैं, और अब तो यह बिखर चुका है। रही बात मुस्लिम वोटबैंक की, तो दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार, इसके कारण मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़, समाज एवं राजनीति में मुस्लिमों के हाशिये पर चले जाने के अहसास और इसकी पृष्ठभूमि में ओवैसी के राजनीतिक उभार के कारण आने वाले समय में उसमें भी बिखराव आने जा रहा है। आने वाले समय में उन्हें ज़मीनी स्तर पर राजनीति करते हुए अपना जनाधार भी विकसित करना होगा और काँग्रेस संगठन को मजबूती प्रदान करते हुए बिहार में मृतप्राय काँग्रेस में जान भी फूँकनी होगी, अन्यथा वे इतिहास के बियाबान में कहाँ खो जायेंगे, पता भी नहीं चलेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें, और इस बात को पुष्ट करें कि उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ सीखा भी है। काँग्रेस में जाने का निर्णय उनकी राजनीतिक परिपक्वता की ओर भी इशारा करता है और इस बात की ओर भी कि वे फूँक-फूँक कर कदम रख रहे हैं, लेकिन इसी दौरान उन्होंने ऐसे काम भी किये हैं जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता पर सवालिया निशान लगते हैं। अब, जब कन्हैया काँग्रेस के साथ जुड़कर अपनी नयी राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे हैं, उन्हें इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए कि वे अब राजनीति के नौसिखुआ नहीं हैं।


इतना ही नहीं, समस्या कन्हैया कुमार की छवि, उसके रवैये और उसकी कार्यशैली के कारण भी है। पहली बात यह कि कन्हैया कुमार की कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि, ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा और उनकी मुस्लिम-परस्त छवि इसमें बाधक बन सकती है। इतना ही नहीं, बड़े सलीके से उनकी सवर्ण-विरोधी छवि और हिन्दू-विरोधी छवि भी निर्मित की गयी। उसके पिता के श्राद्ध में बाल नहीं मुंडवाने को मुद्दा बनाया गया। लोकसभा-चुनाव के समय कोरई गाँव की घटना को अंजाम दिया गया और इसका इस्तेमाल उन्हें सवर्ण-विरोधी साबित करने के लिए किया गया। पिछले लोकसभा-चुनाव में यही छवि बेगूसराय से कन्हैया कुमार की जीत में बाधक बनी थी। दूसरी बात यह कि सीपीआई का सदस्य रहते हुए कन्हैया कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे ऐसा लगता हो कि संगठन को मजबूती प्रदान करने में उसकी कोई रूचि है, जबकि उसके पास इसके बेहतर अवसर उपलब्ध थे। तीसरी बात यह कि कन्हैया कुमार अहमन्यता के शिकार हैं, और इसी कारण उन्हें यह लगता है कि उनका मुकाबला सिर्फ और सिर्फ मोदी से है। यह अहसास उन्हें ज़मीनी स्तर की राजनीति से दूर रख रहा है जिसके बिना न तो कन्हैया कुमार की महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है और न ही वे काँग्रेस की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कन्हैया कुमार कहाँ तक पूर्व की अपनी गलतियों से सीखते हुए राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हैं और अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं? इसकी अपेक्षा तो नहीं के बराबर है, पर तब तक कन्हैया को उनके उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के लिए शुभकामनाएँ तो दी ही जा सकती हैं।

लेखक –कुमार सर्वेश

तीसरे चरण के चुनाव से पहले ही 3 हजार से अधिक उम्मीदवार हुए निर्वाचित नक्सल प्रभावित मतदान केन्द्रों पर रहेंगी विशेष नजर

बिहार पंचायत चुनाव में तीसरे चरण का कल मतदान है शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव को लेकर राज्य निर्वाचन आयोग की माने तो इस बार फुलप्रुफ व्यवस्था है।इभीएम और बेवकास्ट के साथ साथ थम जांच मशीन पर इस बार विशेष नजर रखी जा रही है । कल वोटिंग सुबह 7 बजे से शाम 5 तक होगी। तीसरे चरण में कुल 23 हजार 128 पदों के उम्मीदवार अपने किस्मत आजमायेंगे। इन पदों के लिए 81616 उम्मीदवार मैदान में हैं । इनमें 43061 महिला उम्मीदवार मैदान में है तो 38555 पुरूष मैदान में हैं। तीसरे चरण में कुल 57 लाख 98 हजार, 379 मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इसके लिए 6646 भवनों में 10529 मतदान केन्द्र बनाये गए हैं ।

नक्सल प्रभावित पंचायत की सुरक्षा को लेकर विशेष सुरक्षा का दावा

हलाकि इस बार नक्सल प्रभावित पंचायत में भी चुनाव है जिसको देखते हुए
राज्य निर्वाचन आयोग ने 445 मतदान भवन नक्सल प्रभावित इलाकों के सभी मतदान केंद्रों पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए है। शांतिपूर्ण, भय मुक्त, मतदान केंद्रों की सुरक्षा, EVM की सुरक्षा के लिए बिहार पुलिस के कुल 35616 अफसर और जवानों को लगाया गया है। इनमें जिला पुलिस के साथ-साथ BSMP, SAP और होमगार्ड की टीम शामिल है।

चुनाव से पहले ही हजारों उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो चुके हैं

राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार तीसरे चरण में 3144 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हो चुके हैं । सबसे अधिक 3020 पंच निर्विरोध निर्वाचित हो गए हैं । इसी तरह से पंचायत समिति सदस्य के 3 पदों पर भी निर्विरोध निर्वाचन हो गया है। ये निर्वाचन तीसरे चरण के 35 जिलों के 50 प्रखंडों में हुआ है। इन सीटों पर 8 अक्टूबर को मतदान होना है ।वोटिंग से पहले प्रथम चरण की सीटों पर रिजल्ट जारी

ग्राम पंचायत सदस्य पद के लिए 118, पंच पद के लिए 3020, मुखिया पद के लिए 2, पंचायत समिति सदस्य पद के लिए 3, ग्राम कचहरी सरपंच पद के लिए 1 पद शामिल है। तीसरे चरण में 186 पद खाली रह गए हैं यहां कोई प्रत्याशी दावेदारी नहीं किया है। इसमें ग्राम पंचायत सदस्य पद के लिए 7, पंच पद के लिए 176 और ग्राम कचहरी सरपंच पद के लिए 3 पद शामिल है। आयोग का कहना है कि इन पदों पर किसी भी प्रत्याशी ने दावेदारी नहीं की है। तीसरे चरण में कुल 186 पद खाली रह गए हैं यानी यहां किसी ने भी नामांकन नहीं किया। इनमें सबसे अधिक पंच पद 176 हैं।

बिहार पुलिस के कार्यशैली पर उठा सवाल रुपा और उसकी माँ की आत्महत्या के लिए कौन है जिम्मेवार

आत्महत्या जैसी घटना ना तो मीडिया के लिए कोई खबर है और ना ही समाज के पास वक्त है उस पर मंथन करने को,हां सुशांत सिंह राजपूत जैसे लोग आत्महत्या कर लेते हैं तो उस पर महीनों चर्चाए जरुर होती है ।लेकिन आज हम आपको बिहार की एक बेटी की आत्महत्या की वजह को लेकर आप से बात करना चाहते हैं शायद आपको उबाऊ लगे क्यों कि बिहार की वो बेटी ना तो कोई सेलिब्रिटी है ना ही यूपीएसपी की परीक्षा पास कि है।

पता नहीं क्यों जब से बिहार की उस बेटी का सुसाइड नोट पढ़ा हूं मैं ठीक से सो नहीं पा रहा हूं बार बार उसके सुसाइड नोट का हर एक शब्द सिस्टम और समाजिक मर्यादओं के सामने लाचार एक बिहारी और भारतीय का चेहरा मेरे आंखों के सामने नाचने लगता है।

पहले मां बेटी के सुसाइड करने का मजमून क्या है जरा इस पर चर्चा कर लेते हैं फिर बात सुसाइड नोट की होगी ,हुआ ऐसा है कि छपरा के मढ़ौरा में सोमवार को इसरौली पेट्रोल पंप के पास बाइक सवार पांच अपराधियों ने हथियार के बल पर कैशवैन से 40 लाख रुपए लूट लिया था ।

लूट की घटना के बाद सारण पुलिस को एक सीसीटीवी फुटेज मिला जिसके आधार पर घटना के बाद भाग रहे अपराधियों के मोटरसाइकिल का नम्बर पता चला उसी आधार पर पुलिस ने भेल्दी थाना क्षेत्र के खारदरा में अपराधी सोनू पांडेय के घर छापा मारा जहां से पुलिस को लूट की घटना में उपयोग किये गये मोटरसाइकिल के साथ साथ से छह लाख रुपए और एक देशी पिस्टल बरामद किया हलाकि सोनू घर पर मौजूद नहीं था लेकिन अवैध हथियार मिलने की वजह से पुलिस सोनू के पिता चंदेश्वर पांडेय को गिरफ्तार कर लिया।

गिरफ्तारी के दौरान पुलिस ने सोनू के पिता के साथ जिस तरीके मारपीट गाली गलौज और पत्नी और बेटी के सामने जलील किया उससे आहत होकर सोनू की मां और बहन ने आत्महत्या कर लिया ।हलाकि पुलिस ने सोनू के पिता के साथ जो व्यवहार किया उसमें अस्वभाविक कुछ भी नहीं है जिसको लेकर सिस्टम पर सवाल खड़े किये जा सके पुलिस तो ऐसा करती ही है इसमें ऐसा क्या है जो मां बेटी सुसाइड कर ली, लेकिन रुपा ने सुसाइड नोट के सहारे जो सवाल खड़े की है वह सवाल संकेत है आज की युवा पीढ़ी की सोच कितनी दूर तलक चली गयी और सिस्टम कहां पीछे छुट गया है इतना ही नहीं सवाल बिहार के युवक से भी जो चंद पैसे के लिए किस तरीके से गलत कदम उठा रहे हैं और उसका असर एक संवेदशील परिवार पर क्या पड़ रहा है ।

सुसाइड नोट में रुपा ने लिखा है भाई के कुकृत्य के कारण जिस तरीके से पुलिस हमलोगों के सामने पापा को जलील किया है ऐसी स्थिति में अब जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं रहा गया है।

मेरे मां-बापा हमेशा से चाहते थे कि उनका बेटा और बेटी भविष्य में कुछ अच्छा काम करें लेकिन अफसोस उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। हम लोग गरीब जरूर हैं लेकिन गलत नहीं है और मेरे पापा हमेशा से हम सबको एक ही बात समझाते हैं कि बेटा मर जाना मगर कभी गलती ना करना। मेरे पापा बहुत बदनसीब हैं मेरे पापा का सपना पूरा ना हो सका।

रुपा ने सुसाइड नोट में आगे लिखा है कि मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि मेरे पापा को गलत ना समझें। प्लीज प्लीज प्लीज मेरे पापा खुद हमेशा सोनू से इस सब के कारण नाराज रहते थे। पापा हम आप की यह हालत नहीं देख सकते। हम कभी नहीं सोचे थे कि कोई आप पर ऐसे हाथ उठाए पर ऐसा हुआ। पुलिस किसी का सम्मान और दर्द नहीं समझती ऐसे में पापा मेरे जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं है मां को भी साथ ले जा रहे हैं ।

रुपा तो चली गयी इस दुनिया से लेकिन हमारे आपके सामने कई सावल छोड़ गयी है एक मध्यवर्गीय परिवार के लिए आज भी मर्यादा और परिवार का इज्जत कितना मायने रखता है ऐसे में पुलिस को अपने कार्यशैली में बदलाव लाने कि जरुरत है नहीं तो आने वाले समय में इस तरह की कई घटनाए घट सकती है ।

बेटा अपराधी है तो बाप कहां से गुनहगार हो गया ।सोनू के कृत्य की सजा उसका परिवार क्यों भुगते छपरा एसपी को सोनू की मां और बहन की आत्महत्या करने को लेकर जिम्मेवारी तय करनी चाहिए इतना ही नहीं रुपा को इस दुनिया को छोड़ने की जो वजह रही है उस वजह के सहारे पुलिस के कार्यशैली में क्या सुधार लाया जा सकता है उस पर मुख्यमंत्री से लेकर डीजीपी तक को विचार करनी चाहिए।

बिहार में सरकार आपके द्वारा और पंचायती राज व्यवस्था से नक्सली मुख्यधारा में लौटने लगे हैं।

लाल इलाके में टूट रहा नक्सलियों का मिथक,
जिसके भय से कभी इलाके के लोग वोट डालने नहीं जाते थे
आज वही जनता के चौखट पर जाकर पंचायत के विकास वोट मांग रहा है

जी है हम बात कर रहे हैं बिहार में कभी नकस्लियों का गढ़ रहा झारखंड राज्य के सीमा से सटे गया जिले के बाराचट्टी थाना क्षेत्र के दक्षिणी इलाके पतलुका पंचायत का जहां 1990 के बाद कभी किसी ने वोट नहीं डाला ।चुनावों के दौरान नक्सलियों के वोट वहिष्कार के नारे का पूरी तौर पर पालन होता था। डर से लोग वोट डालने नही जाते थे और उम्मीदवार इस इलाके में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं जुटाते थे। यही वह इलाका है जहां आपात स्थिति में लैंड हुये बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू का हेलीकॉप्टर नक्सलियों ने फूंक दिया था।

परंतु अब स्थितियां बदल चुकी है। यहां के मतदाता विकास के लिए बढ़-चढ़ कर मतदान करने की बात कह रहे हैं। उम्मीदवार भी निडर होकर जनसंपर्क अभियान चला रहे हैं। जहां खून खराबा का माहौल था वहां अब विकास की बात हो रही है। मुख्यधारा में लौटे कई नक्सली इस पंचायत चुनाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिस्सा ले रहे हैं।

पूर्व नक्सली नंदा सिंह बताते हैं कि जितने वर्षों तक उन्होंने बंदूक उठाये रखा वह उनके जीवन का वो काला अध्याय था। अब वे समझ चुके हैं कि बंदूक से बदलाव सम्भव नही है। क्षेत्र के विकास के लिए वे चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा ले रहे हैं। अब वे लोकतंत्र में विश्वास जता रहे हैं और ग्रामीणों के बीच घूम-घूम कर जनसंपर्क अभियान चलाकर वोट मांग रहे हैं। ताकि मौका मिलने पर क्षेत्र का विकास कर सकें।यह स्थिति नक्सल प्रभावित गया जिले का ही नहीं है बिहार के अधिकांश नक्सल प्रभावित जिलों में पंचायती राज व्यवस्था के लालू होने के बाद चीजे बदल गयी है नक्सली या तो खुद चुनाव लड़ रहे हैं या उनके समर्थक चुनाव लड़ रहे हैं इतना ही नहीं विरोध में अगर उम्मीदवार चुनावी मैदान में है भी तो उसके साथ किसी भी तरह का हिंसक घटना ना घटे इसके लिए नक्सली खुद चुनाव प्रचार के दौरान खास सतर्कता बरतता है ।

आप भी सुनिए क्या कहता है नक्सली

पेट्रोल और डीजल केन्द्र सरकार सात वर्ष में 14 लाख करोड़ का कमाई किया है

पाँच साल में सरकार को क़रीब चौदह लाख करोड़ रुपये पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्स से मिले हैं। विवेक कॉल का डेक्कन हेरल्ड में छपा लेख पढ़ सकते हैं। आख़िर केंद्र सरकार पेट्रोल और डीज़ल का दाम क्यों बढ़ाए जा रही है? जब चुनाव होते हैं तब दाम का बढ़ना कैसे रुक जाता है? क्या आप यह नहीं समझ रहे कि हर दिन आपकी जेब से सरकार कितना पैसा निकाल रही है? इससे बेहतर होता कि आयकर ही ले लेती है। पाँच लाख तक की आमदनी को टैक्स से माफ़ी देकर सरकार ने कोई तीर नहीं मारा था। इतने कम कमाने वालों से टैक्स के नाम पर मिलता ही क्या लेकिन कारपोरेट का टैक्स कम कर सरकार ने दूसरे रास्ते से भरपाई का रास्ता निकाल लिया है। पेट्रोल डीज़ल पर टैक्स लगा कर। आज भी दाम बढ़े हैं। धर्म की राजनीति का यह सबसे सफल प्रदर्शन है। धर्म लोगों का नागरिक विवेक नष्ट कर देता है। अब सरकार लोगों के शरीर से ख़ून भी चूस लें तो लोग कहेंगे कि धार्मिक सुरक्षा और पहचान के लिए ये कुछ भी नहीं ।

आज दिल्ली में पेट्रोल 103.24 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 91.77 रुपये प्रति लीटर हो गया। मुंबई में पेट्रोल 109.25 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 99.55 रुपये प्रति लीटर हो गया।

आर्थिक मोर्चे पर फेल सरकार के पास कोई रास्ता नहीं बचा है। आपके बौद्धिक मोर्चे पर फेल हो जाने का लाभ उठाएँ और जेब से पैसे निकाल ले। धर्म की विजय हो।

लेखक –रवीश कुमार

माँ दुर्गा डोली पर सवार होकर आयी है और हाथी पर सवार होकर लौटेगी।

आज से पूरा बिहार माँ दुर्गा के उपासना में डूब जायेगा आज मां दुर्गा डोली पर सवार होकर आयी है और हाथी पर सवार होकर लौटेगी इस बार शारदीय नवरात्र आठ दिन का ही होगा।

आज 7 अक्टूबर को कलश स्थापन होगा। चतुर्थ व पंचमी पूजा एक साथ होगी यह बदलाव पितृ पक्ष मेला की वजह से हुई है ।
इस बार चतुर्थी व पंचमी तिथि एक साथ होने से कुष्मांडा माता व स्कंदमाता की अराधना एक साथ होगी।

माता रानी डोली में सवार होकर आएगी। इस लिहाज से महिलाओं का वर्चस्व बढ़ेगा और मान सम्मान में वृद्धि होगी। लेकिन महामारी से लोग परेशान रहेंगे। शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि जब मां दुर्गा डोली पर सवार होकर आती है तो राजनीतिक उथल पुथल की स्थिति होती है। यह प्रभाव सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ सकता है। माता का डोली पर आना ज्यादा शुभ संकेत नहीं माना जाता। लेकिन माता का प्रस्थान हाथी पर होगा जिसे शुभ माना गया है। 15 अक्टूबर को नवरात्रि का पारण किया जाएगा और दशहरा पर्व भी मनाया जाएगा।

हाईकोर्ट ने कृषि सेवा से जुड़े अधिकारी के नियुक्ति प्रक्रिया शीघ्र पूरा करने का दिया निर्देश।

पटना हाई कोर्ट ने बिहार कृषि सेवा में डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर समेत अन्य पदों पर बहाली के मामले पर सुनवाई करते हुए चयन प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने का निर्देश बीपीएससी को दिया है। चीफ जस्टिस संजय करोल संजय करोल की खंडपीठ ने मनोज कुमार सिंह व अन्य की याचिका पर सुनवाई की।

235 पदों पर बहाली के लिए बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा विज्ञापन निकाला गया था। अधिवक्ता कुमार कौशिक ने कोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ताओं ने बिहार एग्रीकल्चर सर्विस कैटेगरी – 1 के रूल्स कैडर (अपॉइंटमेंट, प्रमोशन) रूल्स, 2014 को चुनौती दी थी।

इसके तहत संविदा सेवा को वेटेज नहीं देने का प्रावधान है। याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति संविदा पर जिला स्तर पर डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर, प्रोजेक्ट डायरेक्टर के पदों पर की गई थी। 27 मार्च, 2018 को कोर्ट ने रिजल्ट के अंतिम प्रकाशन पर रोक लगा दिया था, लेकिन परीक्षा लेने की अनुमति दे दी थी।

तीन अप्रैल 2018 को मुख्य परीक्षा का संचालन किया गया। 07 नवंबर, 2019 को मुख्य परीक्षा का रिजल्ट घोषित किया गया था।

आजादी के बाद देश में फैले हिंसा के दौरान 84 दिन गाँधी पटना में रहे थे ।

महात्मा गाँधी और मेरे परदादा मंज़ूर सुब्हानी की साथ की तस्वीर। 20 मार्च से 30 मार्च 1947 तक महात्मा गांधी बिहार में ही रहकर दंगे की आग में झुलस रहे लोगो से शांति का प्रयास कर रहे थे।इस दौरान वे मसौढ़ी, पटना, हांसदीह, घोड़ौआ, पिपलवां, राजघाट, जहानाबाद, घोसी, अमठुआ, ओकरी, अल्लागंज, बेला, जुल्फीपुर, अबदल्लापुर, बेलार्इ, शाइस्ताबाद आदि स्थानों पर मुस्लिम लीग के सदस्यों, हिन्दू महासभा के सदस्यों, स्त्री-पुरुष मुसलमान शरणार्थियों से मिले एंव ग्राम प्रतिनिधियों, पुलिसकर्मियों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से बातचीत की।

गाँधी बिहार में

प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना-प्रवचन किये।
राष्ट्रपिता महात्मा हमारे पूर्वजों के गाँव ज़ुल्फीपुर (मोदनगंज)भी पहुँचे थे ।वहाँ साम्प्रदायिक दंगे में हुई छति का जायज़ा लेने पहुँचे गाँधी जी ने हमारे परदादा मंज़ूर सुब्हानी जो कि स्थानीय जमींदार थे से विस्तृत जानकारी ली ।

दंगे में उस वक़्त हमारे पूर्वजो को भी वह जगह छोड़नी पड़ी थी परिवार के औरतें खुद को उस इंसानियत खो चुकी भीड़ से बचने के लिए घर के पास बने कुआँ में बच्चों संग छलांग लगा दी थी ।

ये तस्वीरे उसी कुँए की है जिसे देखने अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देखने पहुँचे थे। दंगे के बाद तब हमारे परदादा वहाँ गांधी जी के साथ खड़े थे वही कुआँ को दर्शाते हुए पूरी कहानी उन्हें बता रहे थे। गांधी जी इतनी भी हिम्मत नही हो पा रही थी वो कुआँ अंदर झांके बहुत भयावह हाल था।

परिवार के जो लोग वहाँ से भाग निकले थे वह काको आ कर बसे और यहाँ मकान बना ।
तसवीरें हमारे उसी पैतृक घर की है जो घर दंगे के कारण वीरान हो चुका था गांधी जी उसी घर का मुआयना करते नज़र आ रहे हैं। इससे ज़्यादा कहानी न मैं लिख पाऊंगा न आप पढ़ पाएंगे ।

गाँधी चंपारण में

बिहार के इसी कौमी दंगों में अथक दौरा करते गांधीजी ने मार्च 1947 में बिहार के सर्वमान्य नेताओं से सार्वजनिक रूप से पूछाः ” आपसे पूछना चाहता हूं कि आपकी आंखों के सामने 110 साल की उम्र वाली महिला का कत्ल हुआ और आप उसे देख कर भी जिंदा हैं तो कैसे ? …न मैं शांत बैठूंगा, न आपको बैठने दूंगा।… मैं पांव पैदल सारी जगहों पर भटकूंगा और हर कंकाल से पूछूंगा कि उसके साथ क्या हुआ… मेरे भीतर ऐसी आग धधक रही है जो मुझे तब तक शांति से बैठने नहीं देगी जब तक मैं इस पागलपन का कोई इलाज न खोज लूं। और अगर मुझे यह पता चला कि मेरे साथी मुझे धोखा दे रहे हैं तो मैं उबल ही पडूंगा और आंधी-तूफान कुछ भी हो, मैं नंगे पांव चलता ही जाऊंगा…”

बस इससे ज़्यादा अब मैं नहीं लिख पाऊंगा पर वो वक़्त तो गुज़र गया पर आज भी उन घटनाओं को किताबो में पढ़ता हूँ तो आंसू आज भी नही रुकते।

मत्स्य पालकों के बीच डॉल्फिन के बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रम का हुआ आयोजन

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार के द्वारा दिनांक 6 अक्टूबर को’ एन आई टी घाट, पटना में मत्स्य पालकों के बीच डॉल्फिन के बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया। जिसका उद्घाटन ‘‘श्री नीरज कुमार सिंह’’, माननीय मंत्री, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार सरकार के कर-कमलों द्वारा किया गया। उक्त अवसर पर श्री दीपक कुमार सिंह, प्रधान सचिव, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार सरकार उपस्थित रहे।

जागरूकता कार्यक्रम के साथ , मत्स्य पालकों के बच्चों के बीच खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया गया। साथ ही उनके प्रोत्साहन हेतु, उनके बीच पुरुस्कार भी वितरित किया गया।

माननीय मंत्री ने अपने संबोधन में लोगों से डॉल्फिन के बचाने को अपील की, उन्होंने कहा कि हमारी और आपकी आपसी समझ और समन्वय से ही इनका बचाव करना सुलभ होगा। आपको बिहार सरकार,इस कार्य के लिए प्रोत्साहित करती रहेगी। साथ ही आपके जीवकोपार्जन में किसी प्रकार की दिक्कत न हो उसका भी उपाय हम करेंगे।

आप सबों से मेरी यह गुजारिश है कि कृपया इसके बचाव में जो बन पड़े कीजिए, साथ ही लोगों को भी अपने से जोड़ जागरूक कीजिए। आज आपके बच्चों ने अपनी बेहतर कला का प्रदर्शन किया और डॉल्फिन को बचाने में अपनी समझ को दर्शाया, यह अत्यंत ही सराहनीय है। मैं आप सभी का आभारी हूं, जो आज आप कर रहे हैं, वह हमारा बेहतर कल में दिखेगा।

प्रधान सचिव ने लोगों से गंगा को स्वच्छ रखने और इसे प्रदूषित न करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यह धरती सभी की है जिस पर मानवों के साथ अन्य सभी जीव जंतुओं और जलीय जीवों का अधिकार है। कृपया इसे बचाया जाए, जिससे जैव विवधता और पारिस्थिति तंत्र संतुलित रहे। मुख्य वन्य प्राणी प्रतिपालक और डॉल्फिन मैन प्रोफेसर आर के सिन्हा ने भी अपने विचार रखे।

इस अवसर पर श्री आशुतोष, प्रधान मुख्य वन संरक्षक (Hoff) बिहार, श्री प्रभात कुमार गुप्ता, श्री गोपाल शर्मा, अंतरिम प्रभारी, राष्ट्रीय डाॅल्फिन शोध केन्द्र, पटना के साथ श्री शशिकांत कुमार DFO, Park पटना, DFO Patna उपस्थित रहे।

बिहार के 40 अस्पतालों में दीदी की रसोई से रोगी तक पहुंच रहा खाना

पटना। स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने बताया कि अस्पतालों में दीदी की रसोई खुलने से मरीजों को बेहतर इलाज के साथ-साथ स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन भी मिल रहा है। दीदी की रसोई से मरीजों के अलावे परिजनों को भी काफी सहूलियत हो रही है। रसोई में जीविका दीदियों द्वारा बना शुद्ध भोजन मरीजों को दिया जाता है।

दीदी की रसोई में मरीजों को मुफ्त तथा उनके परिजनों को उचित मूल्य पर गुणवत्तापूर्ण भोजन दिया जा रहा है। राज्य के 40 अस्पतालों में दीदी की रसोई से मरीजों और उनके परिजनों तक खाना परोसा जा रहा है, जहां स्वच्छता और शुद्धता का पूरा खयाल रखा जाता है।

श्री पांडेय ने कहा कि पहले चरण में पूरे राज्य में 74 दीदी की रसोई खोले जाने हैं। इसमें जिला और अनुमंडलीय अस्पताल मिलाकर अभी तक 40 जगहों पर दीदी की रसोई चालू है। बीते अगस्त को राज्य के 28 अस्पतालों में इसकी शुरुआत की गई है।

राज्य में अभी अरवल, पूर्वी चंपारण, बेगूसराय, कैमूर, खगड़िया, भोजपुर, नालंदा, भागलपुर, जमुई, सुपौल, बांका, कटिहार, नवादा, अररिया, मुजफ्फरपुर, लखीसराय, किसनगंज, मधेपुरा, औरंगाबाद, समस्तीपुर, पटना, मुंगेर, मधुबनी, गोपालगंज, गया, दरभंगा, वैशाली, बक्सर, शेखपुरा, पूर्णिया, शिवहर और सहरसा में दीदी की रसोई संचालित हो रहे हैं। इसमें जिला अस्पताल और अनुमंडलीय अस्पताल दोनों शामिल है।

श्री पांडेय ने बताया कि राज्य के मरीजों को बेहतर और त्वरित स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए स्वास्थ्य विभाग का सतत प्रयास जारी है। अस्पतालों में दीदी की रसोई शुरू हो जाने से मरीजों के परिजनों को भी काफी राहत मिली है। नाश्ता एवं भोजन के लिए अस्पताल में भर्ती मरीजों के परिजनों को नाश्ता एवं भोजन के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता है। अब अस्पताल में ही उन्हें विभिन्न वेरायटी का भोजन सस्ते दर पर उपलब्ध हो जाता है, जिससे संतुष्टि भी मिलती है और पैसे की भी बचत होती है।

पुलिस की यातना से आहत मां बेटी ने की आत्महत्या पुलिस मुख्यालय ने दिया जांच का आदेश

छपरा के मढ़ौरा से एक ऐसी खबर आयी है जहां अपराधी भाई के कृत्य और पुलिस की गुंडागर्दी से आहत होकर मां बेटी ने सुसाइड कर लिया है, हुआ ऐसा है कि सोमवार को मढ़ौरा के इसरौली पेट्रोल पंप के पास बाइक सवार पांच अपराधियों ने हथियार के बल पर कैशवैन से 40 लाख रुपए लूट लिया लूट की घटना के बाद सारण पुलिस को एक सीसीटीवी फुटेज मिला था जिसके आधार पर घटना के बाद भाग रहे अपराधियों के मोटरसाइकिल का नम्बर पता चल गया था उसी आधार पर पुलिस ने भेल्दी थाना क्षेत्र के खारदरा में अपराधी सोनू पांडेय के घर छापा मारा जहां से पुलिस को लूट की घटना में उपयोग किये गये मोटरसाइकिल के साथ साथ से छह लाख रुपए और एक देशी पिस्टल मिला हलाकि सोनू घर पर मौजूद नहीं था लेकिन अवैध हथियार मिलने की वजह से पुलिस सोनू के पिता चंदेश्वर पांडेय को गिरफ्तार कर लिया।

गिरफ्तारी के दौरान पुलिस ने सोनू के पिता के साथ अमानवीय व्यवाहर किया उससे आहत होकर सोनू की मां और बहन ने आत्महत्या कर लिया है ।

पुलिस सोनू के बहन का एक सुसाइड नोट बरामद किया है सुसाइड नोट में भाई के कुकृत्य के कारण जिस तरीके से पुलिस हमलोगों के सामने पापा को जलील किया है ऐसी स्थिति में अब जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं रहा गया है।

मेरे मां-बापा हमेशा से चाहते थे कि उनका बेटा और बेटी भविष्य में कुछ अच्छा काम करें लेकिन अफसोस उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। हम लोग गरीब जरूर हैं लेकिन गलत नहीं है और मेरे पापा हमेशा से हम सबको एक ही बात समझाते हैं कि बेटा मर जाना मगर कभी गलती ना करना। मेरे पापा बहुत बदनसीब हैं मेरे पापा का सपना पूरा ना हो सका।

रुपा ने सुसाइड नोट में आगे लिखा है कि मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि मेरे पापा को गलत ना समझें। प्लीज प्लीज प्लीज मेरे पापा खुद हमेशा सोनू से इस सब के कारण नाराज रहते थे। इसमें उसका भी कोई कसूर नहीं है जब वह सही था तब उसे विनोद पांडे की बेटी ने अपने प्यार के जाल में फंसा लिया और उसे अपने साथ भागने को मजबूर कर दिया। तब सोनू उस समय तो चला गया लेकिन उसके बाद हम लोगों की इज्जत का कचरा किया। विनोद के पूरे परिवार के कारण वह और बिगड़ गया। पापा हम आप की यह हालत नहीं देख सकते। हम कभी नहीं सोचे थे कि कोई आप पर ऐसे हाथ उठाए पर ऐसा हुआ। पुलिस किसी का दर्द नहीं समझती।

इस बीच बिहार न्यूज पोस्ट द्वारा सवाल खड़े किये जाने पर एडीजी जितेन्द्र गंगवार ने कहा कि इस मामले की अलग से जांच कराई जायेंगी और दोषी पुलिस पदाधिकारियों पर एफआईआर दर्ज किया जायेंगा ।

बिहार पंचायत चुनाव 2021 तीसरे चरण के चुनाव का प्रचार अभियान आज शाम पांच बजे समाप्त

बिहार पंचायत चुनाव 2021 तीसरे चरण के चुनाव का प्रचार अभियान आज शाम पांच बजे समाप्त हो गया। तीसरे चरण में 35 जिलों के 50 प्रखंडो में 8 अक्टूबर को मतदान होना है। वहीं पांचवें चरण के लिए आज नामांकन का आखिरी दिन है।
हलाकि जैसे जैसे पंचायत चुनाव का चरण आगे बढ़ रहा है वैसे वैसे पंचायत चुनाव के दौरान प्रचार के अलग अलग अंदाज देखने को मिल रहा है कही बार बाला के सहारे मुखिया जी प्रचार कर रहे हैं तो कही खुली जिप्सी ,कही बैलगांड़ी से ,तो कही घोड़ा पर सवार होकर उम्मीदवार नामंकन करने पहुंच रहे हैं ।

तीसरे चरण में पटना के नौबतपुर के 19 पंचायत और विक्रम प्रखंड 17 पंचायत में। सिवान जिले के हुसैनागंज प्रखंड 15 पंचायत में हसनपुरा प्रखंड के 12 में। बक्सर जिले के डुमरॉव प्रखंड में 14 पंचायत में। भोजपुर जिले के जगदीशपुर प्रखंड के 20 पंचायतों में। कैमूर जिले के चैनपुर प्रखंड में 16 पंचायतों में। रोहतास जिले के काराकाट प्रखंड के 19 पंचायतों में। नालंदा जिले के सिलाव प्रखंड के 11 पंचायतों, नगरनौसा प्रखंड के 9 पंचायतों में। गया जिले के मोहड़ा प्रखंड के 9 पंचायतों में, अतरी प्रखंड के 8 पंचायतों , नीमचक बथानी प्रखंड के 8 पंचायतों में चुनाव होंगे।

नवादा जिले के रजौली प्रखंड के 15 पंचायतों में। औरंगाबाद जिले के बारूण प्रखंड के 16 पंचायतों में। जहानाबाद जिले के रतनीफरीदपुर प्रखंड के 14 पंचायतों में। अरवल जिले के कुर्था प्रखंड के 10 पंचायतों में। सारण जिले के गड़खा प्रखंड के 23 पंचायतों में। गोपालगंज जिले के भोरे प्रखंड के 17 पंचायतों में। मुजफ्फरपुर जिले के सकरा प्रखंड के 27 पंचायतों में, मुरौल प्रखंड के 9 पंचायतों में। पूर्वी चंपारण के तुरकौलिया प्रखंड के 14 पंचायतों में, घोड़ासहन प्रखंड के 14 पंचायतों में। पंश्चिमी चंपारण जिले के नरकटियागंज प्रखंड के 27 पंचायतों में। सीतामढ़ी जिले के बोखड़ा प्रखंड के 11 पंचायतों, बथनाहा प्रखंड के 21 पंचायतों में। दरभंगा जिले के बहेडी प्रखंड के 25 पंचायतों में। मधुबनी जिले के फुलपरास प्रखंड के 12 पंचायतो में, खुटौना प्रखंड के 18 पंचायतो में चुनाव होंगे।

समस्तीपुर जिले के उजियारपुर प्रखंड के 28 पंचायतों में, दलसिंहसराय के 14 पंचायतों में। सुपौल जिले के छातापुर प्रखंड के 23 पंचायतों में। सहरसा जिले के पतरघट प्रखंड के 11 पंचायतों में। मधेपुरा जिले के गम्हरिया प्रखंड 8 पंचायतों में, घैलाढ़ प्रखंड 9 पंचायतों में। पूर्णिया जिले के बी कोठी प्रखंड के 19 पंचायतों में, भवानीपुर प्रखंड 12 पंचायतों में। कटिहार जिले के कोढा प्रखंड के 23 पंचायतों में। अररिया जिले के रानीगंज प्रखंड के 30 पंचायतों में। लखीसराय जिले के हलसी प्रखंड के 10 पंचायतों में। बेगूसराय जिले के वीरपुर प्रखंड के 8 पंचायतों में, डंडारी प्रखंड के 8 पंचायतों में। खगड़िया के परबत्ता 17-18 प्रखंड के 10 पंचायतों में। मुंगेर जिला के संग्रामपुर प्रखंड के 10 पंचायतों में। जमूई जिले के ई अलीगंज प्रखंड के 13 पंचायतों में। भागलपुर जिले के सन्हौला प्रखंड के 18 पंचायतों में। बांका जिला के रजौन प्रखंड के 18 पंचायतों में चुनाव होना है।

पटना हाई कोर्ट ने राज्य के ट्रिब्यूनल्स में खाली पड़े पदों को लेकर राज्य सरकार को जमकर लगायी फटकार

पटना हाई कोर्ट ने राज्य के ट्रिब्यूनल्स में खाली पड़े पदों के मामले पर सुनवाई करते हुए भारत सरकार से डी आर टी के अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर जवाब तलब किया है। चीफ जस्टिस संजय करोल खंडपीठ को राज्य में ट्रिब्यूनल्स में रिक्त पड़े पदों को भरे जाने के सम्बन्ध में महाधिवक्ता ने बताया कि दो सप्ताह में सभी रिक्त पदों को भर दिया जाएगा।

इस मामले में कोर्ट का सहयोग देने के लिए कोर्ट ने आशीष गिरि को एमिकस क्यूरी नियुक्त किया हैं। आशीष गिरि ने कोर्ट को बताया कि राज्य सरकार की ओर से यह बताया गया है कि राज्य सरकार ट्रिब्यूनल्स में सभी खाली पड़े पदों को शीघ्र भर दिया जाएगा

इसके पूर्व 20 सितंबर, 2021 के कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि पब्लिक वर्क्स कॉट्रेक्ट डिस्प्यूट्स आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल के बारे में बताया गया था कि इस ट्रिब्यूनल में चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया प्रगति पर है।
इसे सकारात्मक रूप से 30 सितंबर तक पूरा कर लिया जायेगा।

debt रिकवरी ट्रिब्यूनल (डी आर टी) के बारे में एडिशनल सॉलिसिटर जनरल द्वारा जानकारी दी गई थी कि debt रिकवरी ट्रिब्यूनल के लिए पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति हेतु चयन की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई है।
इसी प्रकार से कमर्शियल टैक्स ट्रिब्यूनल को लेकर ट्रिब्यूनल के अधिवक्ता द्वारा जानकारी दी गई थी कि इस ट्रिब्यूनल के लिए सरकार द्वारा आवश्यक रिक्त पदों को सूचित कर दिया गया है और अब ट्रिब्यूनल पूरी तौर से काम कर रहा है।

लैंड एक्विजिशन, रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलेमेंट ऑथोरिटी, पटना, दरभंगा व भागलपुर के बारे में जानकारी दी गई थी कि हाई कोर्ट के स्तर पर चयन की प्रक्रिया पूरी कर ली गई है और मामला अभी राज्य सरकार के समक्ष लंबित है।
बिहार लैंड ट्रिब्यूनल, पटना के बारे में जानकारी दी गई थी कि नियुक्ति हेतु चयन की प्रक्रिया प्रगति पर है और सकारात्मक रूप से 30 सितंबर, 2021 तक पूरा कर लिया जाएगा।

बिहार स्टेट स्कूल टीचर्स एंड एम्प्लाइज डिस्प्यूट्स रिड्रेसल रूल्स, 2015 के तहत गठित डिस्ट्रीक्ट अपीलेट अथॉरिटीज को लेकर जानकारी दी गई थी कि नियुक्ति हेतु चयन की प्रक्रिया प्रगति पर है और इसे अगले हफ्ते पूरा कर लिया जाएगा।
अब इस मामले पर आगे की सुनवाई आगामी 15 नवंबर को की जाएगी।

आखिरी घंटों की बिकवाली से निफ्टी 17,650 के नीचे, सेंसेक्स 555 अंक गिरा; मेटल, बैंक सबसे ज्यादा प्रभावित

बुधवार को कमजोर वैश्विक संकेतों से सेंसेक्स 555.15 अंक की गिरावट के साथ 59,189.73 पर बंद हुआ; निफ्टी 176.30 अंक की गिरावट के साथ 17,646.00 पर बंद हुआ।

आज कारोबारी हफ्ते के तीसरे दिन यानी बुधवार को बाजार में उतार-चढ़ाव देखने को मिला। दिन के उच्चतम स्तर से सेंसेक्स 850 अंक से अधिक गिर गया और निफ्टी 50 इंडेक्स 17,884.60 के उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद 17,650 से नीचे गिर गया। व्यापार के अंतिम घंटों में जबरदस्त बिकवाली हुई और बाजार के सूचकांकों में गिरावट दर्ज की गई और यह लाल रंग में समाप्त हुआ।

सेंसेक्स चार्ट (06.10.21) एक नजर में

एचडीएफसी, एचडीएफसी बैंक और बजाज फाइनेंस एकमात्र लाभार्थी थे, जबकि बाकी शेयर लाल रंग में थे। इंडसइंड बैंक, टाटा स्टील और बजाज ऑटो शीर्ष हारे हुए थे।

सेंसेक्स के शेयर एक नजर में

सभी सेक्टोरियल इंडेक्स कैपिटल गुड्स, आईटी, मेटल, फार्मा, ऑटो, रियल्टी और पीएसयू बैंक इंडेक्स में 1-3 फीसदी की गिरावट के साथ लाल निशान में बंद हुए। बीएसई मिडकैप और स्मॉलकैप इंडेक्स 0.5-1.2 फीसदी गिरे।

निफ्टी मेटल इंडेक्स में करीब 3 फीसदी की गिरावट। निफ्टी ऑटो, इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, फार्मा, पीएसयू बैंक, रियल्टी और कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडेक्स भी 1-2 फीसदी गिरे।

निफ्टी के प्रमुख शेयरों के टॉप गेनर और लूजर का हाल

जलापूर्ति योजना को समय सीमा के अंदर पूरा करने को लेकर सरकार ने लिया बड़ा फैसला

मुख्यमंत्री के निर्देश :

• राजगीर, गया, बोधगया एवं नवादा में गंगा जल उवह योजना के तहत सभी लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा। इस योजना को निर्धारित समय सीमा में पूर्ण करने को लेकर तेजी से काम करें।

• जल संसाधन विभाग, लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग तथा

नगर विकास एवं आवास विभाग आपस में समन्वय बनाकर इस पर काम करें। बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए जलापूर्ति हेतु योजना

बनाकर काम करें। भू-जल स्तर को मेंटेन रखना है, इसके लिए लोगों को प्रेरित करते रहें।

पटना, 06 अक्टूबर 2021 :- मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने 1, अणे मार्ग स्थित संकल्प में जल- जीवन- हरियाली अभियान अंतर्गत पेयजल हेतु गंगा जल उवह योजना के कार्यों की प्रगति की समीक्षा की।

जल संसाधन विभाग के सचिव श्री संजीव हंस ने जल-जीवन- हरियाली अभियान अंतर्गत पेयजल हेतु गंगा जल उद्वह योजना के कार्य की प्रगति के संबंध में विस्तृत प्रस्तुतीकरण दिया। उन्होंने हथीदह-मोकामा में इन्टेक वेल-सह-पंप हाउस, मोतनाजे स्थित डिटेंशन टैंक-सह-पंप हाउस, मोतनाजे स्थित जल शोधन संयंत्र, राजगीर जलाशय अर्दन डैम, तेतर जलाशय अर्दन डैम एवं अबगिल्ला मानपुर स्थित जल शोधन संयंत्र के कार्य की भौतिक प्रगति की जानकारी दी।

उन्होंने बताया कि प्रथम चरण में राजगीर, गया एवं बोधगया में तथा द्वितीय चरण में नवादा शहर के लिए इस जलापूर्ति योजना पर काम किया जा रहा है। हथीदह-मोतनाजे तेतर अबगिल्ला तक कुल 150 किलोमीटर की पाइप लाईन में से लगभग 118 किलोमीटर पाईप बिछाने का कार्य पूर्ण कर लिया गया है।

जल संसाधन विभाग के सचिव ने बताया कि मूल योजना का कार्य मार्च 2022 तक पूर्ण हो जाएगा और जल वितरण का कार्य जून 2022 तक आरंभ करने का लक्ष्य रखा गया है।

समीक्षा के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा कि राजगीर, गया, बोधगया एवं नवादा में गंगा जल उद्वह योजना के तहत सभी लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध कराया जाएगा। इस योजना को पूर्ण करने को लेकर जो समय सीमा निर्धारित की गई है उस लक्ष्य पर तेजी से काम करें। स्पॉट पर जाकर एक-एक चीज का आकलन करें ताकि सभी लोगों को जलापूर्ति

सुनिश्चित हो सके। जल संसाधन विभाग, लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग तथा नगर विकास एवं आवास विभाग आपस में समन्वय बनाकर इस पर काम करें। नवादा में भी जलापूर्ति योजना का काम तेजी से शुरु करें।

मुख्यमंत्री ने कहा कि राजगीर में विकास के कई कार्य किए गए हैं। वहां आबादी तेजी से बढ़ रही है। बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए जलापूर्ति हेतु योजना बनाकर काम करें। भू-जल स्तर को मेंटेन रखना है, इसके लिए लोगों को प्रेरित करते रहें।

बैठक में मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव श्री दीपक कुमार, मुख्य सचिव श्री त्रिपुरारी शरण, विकास आयुक्त श्री आमिर सुबहानी, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव श्री चंचल कुमार, जल संसाधन विभाग के सचिव श्री संजीव हंस, मुख्यमंत्री के सचिव श्री अनुपम कुमार, मुख्यमंत्री के विशेष कार्य पदाधिकारी श्री गोपाल सिंह सहित वरीय अभियंतागण उपस्थित थे।

बिहार में तीसरा मोर्चा के लिए कोई जगह नहीं है

देश में फिलहाल जो राजनीतिक मिजाज है इस मिजाज की वजह से क्षेत्रीय दलों के लिए कुछ ज्यादा स्पेस नहीं रह गया है।आप मोदी के साथ रहे या फिर मोदी के विरोध में रहे बीच का रास्ता लगभग खत्म हो चुका है । बिहार की राजनीति पर भी कमोबेश इसी लाइन पर चल रहा है मांझी और सहनी एनडीए के साथ हैं तो राजद के साथ कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां हैं ।उपेन्द्र कुशवाहा इस हकीकत को समझ गये और वो जदयू में आ गये।ऐसे में देश स्तर पर भी और बिहार में भी फिलहाल कोई तीसरे विकल्प की कोई गुंजाइश नहीं दिख रहा है।

1–आनंद मोहन ,नागमणि जैसे नेता अकेला चलो के नारे की वजह से हासिए पर चले गये

कल कांग्रेस विधायक दल के नेता अजीत शर्मा ने कहा कि पप्पू यादव जेल से रिहा हो गए हैं। कांग्रेस उनके संपर्क में है, लेकिन शर्त यही है कि पप्पू यादव कांग्रेस के सिंबल पर ही तारापुर से चुनाव लड़ें। अगर वे सहमति व्यक्त करते हैं तो पार्टी इस पर विचार करेगी कांग्रेस के इस बयान के बाद पप्पू यादव का बयान आया मेरी कुछ शर्तें हैं कांग्रेस पहले राजद का साथ छोड़े ,दूसरा कांग्रेस अपने पुराने विचारधारा की और लौटे ।

पप्पू यादव के इस बयान के 15 मिनट बाद कांग्रेस ने तारापुर से अपने उम्मीदवार की घोषणा कर दिया वैसे रिहा होने की सूचना के बाद से ही कांग्रेस पप्पू यादव की पत्नी के सहारे बात चला रही थी लेकिन पप्पू यादव के शर्त की वजह से बात आगे नहीं बढ़ी।

राजनीति में महत्वाकांक्षा जरूरी है लेकिन अति महत्वाकांक्षा हमेशा नुकसानदायक रहा है बिहार कि राजनीति की बात करे तो 90 के दशक में दो नाम बड़ी सुर्खियों में था एक आनंद मोहन और दूसरा पप्पू यादव दोनों की शैली और मिजाज एक ही तरह का था । बिरादरी में दोनों की छवि राँबिन हुड जैसी थी आनंद मोहन के नेतृत्व में पहली बार बिहार का सवर्ण एक साथ एक मंच पर आया था सवर्ण यूथ में आनंद मोहन की छवि नायक वाली थी ।

पूरे बिहार में राजपूत का एक भी ऐसा गांव नहीं था जहां आनंद मोहन का कट्टर समर्थक मौजूद नहीं था राजपूत लीडरशिप का सिरमौर कहे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा की पत्नी किशोरी सिन्हा को निर्दलीय वैशाली से लोकसभा चुनाव लवली आनंद ने हरा दी थी। आज भी बिहार में राजपूत पर किसी एक नेता के पकड़ की बात कहे तो आनंद मोहन के सामने दूर दूर तक कोई नहीं है ।जदयू हो ,भाजपा हो या फिर राजद हो सीनियर राजपूत नेता को छोड़ दे तो यंग जितने भी नेता हैं वो कही ना कही आनंद मोहन के टीम का सदस्य रहा है।

लेकिन जोश भरने वाली भाषण शैली ,संगठन की समझ और राजपूत जैसे जाति को साथ लेकर चलने की ताकत रहने के बावजूद आज आनंद मोहन हाशिए पर है वजह अति महत्वाकांक्षा और राजनीतिक समझदारी का अभाव रहा राजनीति कुछ भी हो वैचारिक प्रतिबद्धता बहुत मायने रखता है लेकिन आनंद मोहन इससे समझौता करते रहे और फिर 1999 में राजद में शामिल हो गये जो इनके राजनीतिक जीवन के लिए वाटरलू साबित हुआ और उसके बाद वो फिर वो उबर नहीं पाये । आनंद मोहन एक बार विधायक और दो बार सांसद रहे हैं लवली आनंद एक बार सांसद रही है । 1995 से 2021 तक आनंद मोहन और उसका परिवार ऐसी कौन सी पार्टी नहीं है जिससे लवली आनंद चुनाव नहीं लड़ी ।

2– फिलहाल कांग्रेस में जाने के अलावे पप्पू यादव के पास कोई विकल्प नहीं है

यही समस्या पप्पू यादव के साथ भी है उस दौर में जब लालू प्रसाद एरा चरम पर था उस समय आनंद मोहन और पप्पू यादव के बीच आमने सामने की लड़ाई चल रहा था उस दौरान पप्पू यादव यादव युवा के हृदय सम्राट बन गये थे और उसी दौर में वो पूर्णिया से निर्दलीय सांसद बने थे ।

1996 के चुनाव में बिहार से बाहर की पार्टी सपा ने उन्हें पूर्णिया सीट से अपना उम्मीदवार बनाया और एक बार फिर पप्पू यादव को जीत हासिल हुई । 1999 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव फिर से निर्दलीय चुनाव लड़े और पूर्णिया सीट से तीसरी बार सांसद चुने गए लेकिन 2000 लोकसभा चुनाव वो हार गये फिर पप्पू यादव 2004 में मधेपुरा सीट पर हुए उपचुनाव में आरजेडी के टिकट पर जीत हासिल की वो बाद में फिर राह जुदा कर लिये और उसके बाद फिर 2014 में राजद के टिकट पर मधेपुरा से चुनाव जीते लेकिन एक वर्ष बाद ही लालू से अलग हो गये इस दौरान पप्पू यादव अपनी अपराधिक छवि से बाहर आने के लिए क्या क्या नहीं किया दिल्ली स्थित आवास को इन्होंने ऐसे बिहारी जिनका इलाज एम्स में चल रहा था ऐसे मरीज और उसके परिजनों के लिए दोनों शाम मुफ्त भोजन और रहने की व्यवस्था कर रखा था इसके अलावे व्यक्तिगत तौर पर ना जाने कितने लोगों को मदद पहुंचाया।

पटना में बारिश के कारण हुई तबाही का मंजर हो या फिर बाढ़ ,अपराध ,कोरोना हर जगह पप्पू यादव खड़ा रहा लेकिन चुनाव हुआ तो 2019 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारे मधेपुरा से निर्दलीय चुनाव लड़ने का असर सुपौल पर पड़ा और पत्नी भी चुनाव हार गयी ।

2020 के चुनाव में वो खुद मधेपुरा जैसे विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गये मतलब राजनीति में इस तरह के काम के साथ साथ चुनावी गठजोड़ भी महत्व रखता है 2020 के चुनाव में ऐसा लग रहा था कि पप्पू यादव बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं इस छवि ने इनकी पूरी राजनीति की हवा निकाल दी ये भी आनंद मोहन की तरह अति महत्वाकांक्षा के शिकार हैं और राजनीति को आप जितना गाली दे दे लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धता मायने रखता है वो भी तब जब देश दो विचारधाराओं में विभक्त है ऐसे में तीसरे विकल्प के लिए जगह जहां है लेकिन ये दोनों नेता हमेशा तीसरे विकल्प के चक्कर में राजनीति के हाशिए पर चले गये ।

कौन किसको नचा रहा है आज भी इस सवाल का हल नहीं मिला है – अभयानंद

कौन किसको खेला रहा है?

उम्र रही होगी 5 साल की। रहता था बिहार के छपरा शहर में जो पूरे सारण जिले का मुख्यालय हुआ करता था। मेरे पिताजी जिले के पुलिस कप्तान थे। छुट्टी का दिन था। कप्तान साहब का बेटा होने के नाते घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। बाहर से पहरा होता था।

रिश्ते के एक बड़े भाई हमारे यहाँ आए हुए थे। उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े थे। भोजन पश्चात उन्होंने मुझे बताया कि वे घूमने निकल रहे हैं, मैं भी चल सकता हूँ। घर की सुरक्षा में रहते रहते ऊब गया था सो बिना सोचे ही हामी भर दी। दोनों पैदल निकल पड़े। कुछ ही दूरी पर, उन्होंने मुझे एक बड़े मैदान में लोगों के बीच बैठा दिया। हम एक फुटबॉल मैच देखने लगे। मैं ज़िन्दगी में पहली बार यह देख रहा था। समझने की कोशिश कर रहा था। कुछ सवाल बड़े भाई से करता, तो वे अधिक नहीं बताते क्यूंकि स्वयं तल्लीन थे। कुछ देर बाद, समझ आया कि लोग बॉल को पैर से मार कर, एक-दूसरे से छीनने का प्रयास कर रहे हैं। मैं देख पा रहा था कि बॉल के हिसाब से खिलाड़ी भागते और बॉल भी खिलाड़ियों के अनुसार मारा जाता। खेल समाप्त हुआ। कुछ लोग खुश नज़र आ रहे थे, तो कुछ दुखी।

लौटते समय, प्रश्न बराबर आ रहा था – इस खेल में बॉल खिलाड़ियों को नचा रहा था या खिलाड़ी बॉल को नचा रहे थे? घर पहुँच गया पर उत्तर नहीं मिला। अभी तक इस उत्तर की तलाश में हूँ।