आरा में वीर कुंवर सिंह की जयंती के मौके पर 78 हजार 25 लोगों ने तिरंगा फहराकर पाकिस्तान के एक साथ 75 हजार लोगों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने का वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ दिया है और अब जल्द ही यह रिकॉर्ड ग्रीनिज बुक में भारत के नाम दर्ज होगा ।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस आयोजन के सहारे बीजेपी राजनीति के किस नैरेटिव का साधना चाह रही है। हालांकि जो नैरेटिव दिख रहा है वो यह था कि वीर कुंवर सिंह को जाति से बाहर निकाला जाये और उन्हें राष्ट्रवाद के नैरेटिव में फिट किया जाये।
इसके पीछे मोदी और शाह की यह सोच है कि पटेल की तरह ही वीर कुंवर सिंह ऐसे स्वतंत्रता सेनानी है जिनका जातीय आधार राष्ट्रीय फलक पर काफी मजबूत है लेकिन इनके जाति के कई ऐसे नेता है जो उन्हें आने वाले समय में चुनौती दे सकते हैं ऐसे में वीर कुंवर सिंह के व्यक्तित्व को राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से स्थापित किया जाये जिससे उनके विरादरी के नेता का प्रभाव कम हो ।
इसके लिए आने वाले समय बाबू साहब अंग्रेज के साथ लड़ाई के दौरान 22 अप्रैल 1858 को जब बलिया के शिवपुर घाट पर गंगा पार कर रहे थे तब उनकी भुजा में गोली लगी जिसे काटकर गंगा में फेंक दिया था उस स्थान पर पटेल से भी बड़ी मूर्ति और शौर्य पार्क बनाने की योजना है जिसकी चर्चा आज अमित शाह अपने भाषण के दौरान किये हैं ।
साथ ही वीर कुंवर सिंह के 80 वर्ष मे हथियार उठाने और अंग्रेज का हराने का जो शौर्यगाथा रहा है उसका इस्तमाल मोदी के लिए आने वाले समय में किया जा सका ये भी रणनीति का हिस्सा है ताकी मोदी ने मार्गदर्शक मंडल के सहारे जिस तरीके आडवाणी सहित बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं को एक साथ साध दिये थे वैसे कोई मोदी को ना साधे।
क्यों कि वीर कुंवर सिंह की जो छवि रही है वो कही से भी बीजेपी के नैरेटिव में फिट नहीं बैठता है ये अलग बात है कि आजादी के आन्दोलन के दौरान सावरकर कई बार वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ हिन्दू चेहरा के रूप में स्थापित कोशिश की जरूर किया था लेकिन उस तरीके से आगे नहीं बढ़ पाया था वैसे आज शाह कह गये हैं कि वीर कुंवर सिंह के बारे में सही इतिहास नहीं लिखा गया है ऐसे में आने वाले समय में वीर कुंवर सिंह की अलग छवि देखने को मिले तो कोई बड़ी बात नहीं होगी देखिए आगे आगे होता है क्यों कि जाति इस देश का यथार्थ है और पटेल की तरह राजपूतों का शहरीकरण नहीं हो पाया है अभी भी बड़ी आबादी गांव में रहता है कृषि उसका मुख्य पेशा है ।
ऐसे में मोदी और शाह इस खेल में कहां तक कामयाब होते हैं कहना मुश्किल है लेकिन देश की राजनीति को बदलने की एक बड़ी कोशिश जरुर है।