Press "Enter" to skip to content

बिहार बीजेपी में सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है

नरेन्द्र मोदी 2014में देश के प्रधानमंत्री बने और साथ में अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष इसके बावजूद भी बिहार बीजेपी मोदी और शाह के एजेंडे के साथ खड़ा नहीं था।

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी और शाह पूरी ताकत लगा दिये बिहार बीजेपी पर कब्जा करने के लिए लेकिन इतनी बूरी हार हुई की दोनों को समझ में आ गया कि बिहार को साधना इनके बस में नहीं है,और फिर सुशील मोदी के हाथ बिहार बीजेपी का कमान सौप दोनों शांत बैठ गये।

सुशील मोदी अरुण जेटली के साथ मिलकर 2017 में नीतीश कुमार को फिर से अपने साथ लाने में कामयाब हो गये और 2019 के लोकसभा चुनाव में 2014 के लोकसभा में जीती हुई पाँच सीट देकर नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करने को मजबूर हुए ।
मतलब भारत की राजनीति में आप दोनों की जोड़ी भले ही महानायक वाली क्यों ना हो बिहार में चलेगी तो नीतीश और सुशील मोदी की ही चलेगी ।

ऐसा ही 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी हुआ नीतीश बिहार में मोदी और शाह किस लाइन पर बोलेगे ये भी नीतीश तय किये।
चिराग के साथ गठबंधन टूटने की वजह नीतीश खुद थे या फिर चिराग के पीछे बीजेपी खड़ी थी इसलिए गठबंधन नहीं हो सका यह अभी भी स्पष्ट नहीं है ।

लेकिन गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी जिस तरीके से चिराग को मदद कर रहा था उससे यह संदेश जाने लगा था कि जदयू को कमजोर करने में बीजेपी शामिल है। हालांकि दूसरे चरण के बाद बीजेपी को लगा की यह दाव उलटा पड़ सकता है और राजद की सरकार बन जायेंगी तो फिर तीसरे चरण में चिराग को जो मदद मिल रहा था वह बंद हुआ और फिर पीएम मोदी चिराग के खिलाफ पहली बार दरभंगा की सभा में बोले तब तक बहुत देर हो चुकी थी,और फिर जो परिणाम आया उसमें पहली बार नीतीश बिहार में तीसरे नम्बर पर पहुँच गये ।

मोदी और शाह को जैसे ही मौका मिला सबसे पहले सुशील मोदी को बिहार से बाहर का रास्ता दिखाया, संगठन मंत्री नागेन्द्र जी को बिहार से बाहर किया और ऐसे विधायक को मंत्री बनाया जो नीतीश और सुशील मोदी के गुड बुक में नहीं थे और समय आने पर इन दोनों पर हमला भी कर सके ,उसी कड़ी में नितिन नवीन,सम्राट चौधरी और शहनवाज जैसे को मंत्री बनाया और प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल को नीतीश के खिलाफ बयान देने की खुली छुट दी गयी ।

बिहार विधानसभा के अध्यक्ष को सरकार को नीचे दिखाने को लेकर प्रेरित किया गया और संघ के एजेंडे को लागू करने को लेकर नीतीश पर दबाव बनाने को कहॉ गया।
पहली बार विधानसभा सत्र के दौरान जन गन मन की जगह वंदे मातरम गाया गया,विधानसभा के स्मृति स्तम्भ से अशोक चक्र को हटाया गया, इस तरह के कई काम हुए जो नीतीश को पसंद नहीं था।
2021में यानी 7 वर्ष बाद मोदी और शाह का बिहार भाजपा पर पूरी तरह कब्जा हो गया ।

वही नीतीश मोदी और शाह के रणनीति को भाप गये और चुनाव परिणाम आने के एक माह बाद ही वो चुपचाप पार्टी को मजबूत करने में लग गये गाँव गाँव तक संगठन को फिर से खड़ा करने की कोशिश शुरु हुई ,उपेन्द्र कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर कुर्मी कोयरी गठजोड़ को मजबूत किया फिर नाराज सवर्ण नेता को मिलाना शुरु किया।

दोनों उप चुनाव जीते फिर विधान परिषद के सीट बटवारे में भी बड़े भाई की भूमिका में बने रहे विधान परिषद चुनाव में मधुबनी में बीजेपी वाले साथ नहीं दिये तो बेगूसराय में बदला ले लिये और बोचहा का रिजल्ट तो बता दिया कि बिहार में मोदी शाह की जोड़ी चलने वाला नहीं है।

यह बात जैसे ही सामने आया सुशील मोदी अपने अंदाज में हमला शुरु कर दिये और संकेत भी दे दिये कि नीतीश कमजोर होगे तो फिर 2024 का लोकसभा चुनाव में बिहार में हाल बूरा हो सकता है ।

ऐसे में आने वाले समय में नीतीश गठबंधन का साथ कब छोड़ते हैं ये तो नीतीश तय करेंगे लेकिन बिहार बीजेपी मोदी और शाह के नीति के साथ सहज नहीं है ये साफ दिखने लगा है और 60 से अधिक ऐसे बीजेपी विधायक है जो किसी भी समय चुनौती दे सकते हैं,ऐसे में वीर कुंवर सिंह के विज्योउत्सव कार्यक्रम की सफलता से मोदी और शाह के चेहते खुश हैं लेकिन सुशील मोदी की ट्टीट ने पलीता लगाने का काम कर दिया है यह साफ दिखने लगा है ।

More from संपादकीयMore posts in संपादकीय »