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विनोद दुआ का जाना एक युग का अंत —-रवीश कुमार

विनोद दुआ का बिना देखे गुज़र जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा।

जब आप बहुत नए होते हैं तो किसी बहुत पुराने को बहुत उम्मीद और घबराहट से देखते हैं। उसके देख लिए जाने के लिए तरसते हैं और उससे नज़रें चुराकर देखते रहते हैं। उसके जैसा होने या उससे अच्छा होने का जुनून पाल लेते हैं। वो तो नहीं हो पाते लेकिन उसी की तरह का कुछ और हो जाते हैं।

विनोद दुआ को हमने इन्हीं सब उम्मीदों और निराशाओं की अदला-बदली के साथ देखा। बहुत लंबा साथ रहा। व्यक्तिगत तो नहीं, पेशेवर ज़्यादा रहा। पेशेवर संबंधों की स्मृतियां व्यक्तिगत संबंधों से बहुत अलग होती हैं। हमेशा उन्हें नज़र उठा कर सीधे चलते देखा।

मैं हैरान होता था कि कोई हमेशा ऐसे कैसे चल सकता है। बहुत आसानी से नज़र नहीं मोड़ते थे। चलते थे तो सीधा चलते थे। ऐसे में बहुत कम संभावना थी कि उनकी नज़र आपकी तरफ़ मुड़ जाए। एक ही रास्ता बचता था कि आप उनके सामने आ जाएं लेकिन बिना कुछ किए उनके सामने आना आसान नहीं था।

महफ़िलबाज़ थे लेकिन दफ़्तर से चेले बनाकर महफ़िलें नहीं सजाते थे। उनके अपने दोस्त यार थे जिनके साथ महफ़िलें सजाते थे। हर समय कुछ गुनगुनाते हुए उनका आना राहत देता था। वर्ना ऐसी ठसक वाला व्यक्ति बहुतों की हालत ख़राब कर सकता है। विनोद का गुनगुनाना उनके आस-पास विनोद का वातावरण बना देता था।

आप सहज़ हो जाते थे। कुछ लापरवाहियां और बेपरवाहियां थीं मगर वो उनके जीने के अंदाज़ का हिस्सा था और कई बार इसकी वजह से उन सीमाओं को भी लांघ जाते थे जिसे ख़ुद अपने और सबके लिए बनाया था। उन्हें अच्छा लगता था कि कोई उनसे ठसक से मिल रहा है। उन्हें किसी में लिजलिजापन पसंद नहीं आता था।

काम करने की जगह पर उनकी मौजूदगी सबको बराबर होने का मौका देती थी। लोग आसानी से उन्हें टोक आते थे और कई बार उनकी ग़लतियों पर हाथ रख देते थे। लेकिन जब वे किसी की ग़लती पर हाथ रख देते तो हालत ख़राब हो जाती। विनोद के पास जानकारियों का खज़ाना था। उनकी स्मृति ग़ज़ब की थी।

किसी शायर का पूरा शेर, तुलसी की चौपाई और कबीर के दोहे यूं ज़ुबान पर आ जाया करते थे। यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि उन्हें इतना सब कुछ याद कैसे हो सकता है। इससे अंदाज़ा होता था कि पब्लिक के बीच आने के पहले के विनोद दुआ हम सभी से अनजान किसी कमरे में अपनी तैयारियों में बहुत व्यस्त रहते होंगे।

साहित्य और शास्त्रीय संगीत की जानकारी पर कोई चलते फिरते इतना अधिकार नहीं रख सकता था। यही कहना चाहता हूं कि हम सबने विनोद दुआ को काम करने की जगह पर तो देखा लेकिन वहां आने से पहले विनोद दुआ ख़ुद को विनोद दुआ कैसे बनाते थे, नहीं देखा।

गणेश जी के दीवाने थे। उनके घर में गणेश की अनगिनत आकृतियां थीं। मूर्तियां थीं। शायद गणेश से उन्होंने परिक्रमा उधार ली और भारत की ख़ूब परिक्रमा की। हर दिशा में कई बार गए। कई तरह के फार्मेट के कार्यक्रम के लिए गए। कैमरे के सामने उनकी उपस्थिति अपने आप में एक नई भाषा बनाती थी।

उनकी भाषा में एक ख़ास किस्म की दृश्यता थी। किसी बेहतरीन नक्शानवीस की तरह ख़ाका खींच देते थे। बहुत मुश्किल है इतने लंबे जीवन में आप केवल शतकीय पारी ही खेलते रह जाएं। बहुत सी पारियां शून्य की भी रहीं और रन बनने से पहले ही आउट होकर पवेलियन लौट आने के भी किस्से हैं।

विनोद के हाथ से बल्ला छूटा भी है और विनोद ने ऐसी गेंद पर रन बनाए हैं जिस पर सटीक नज़र उन्हीं की पड़ सकती थी। उन्हें विनोद कहलाना पसंद था।

काफी लंबा साथ रहा है। उन्होंने कभी हाथ पकड़ा तो कभी केवल रास्ता दिखाया। गुड़गांव में मज़दूरों पर पुलिस ने लाठी चार्ज की थी। उसका लाइव कवरेज़ कर रहा था। शाम को दफ्तर लौटा तो सीढ़िओं पर मिल गए। मुझे रोक लिया, कहने लगे कि एकदम वर्ल्ड क्लास टेलिविज़न था।

ऐसा दुनिया के टेलिविज़न में भी नहीं होता होगा जो तुमने किया। उस वक्त हमें नहीं पता था और आज भी नहीं पता कि वर्ल्ड क्लास क्या होता है, पर विनोद ने इस तरह ज़ोर दिया कि अपने काम के प्रति विश्वास बढ़ गया। कई मौक़े आए जब उन्होंने उदारता के साथ फोन कर कहा कि ये वर्ल्ड क्लास है।

मैं सोचता रहा कि विनोद दुआ के लिए वर्ल्ड क्लास क्या है। मैं कभी पूछ नहीं सका क्योंकि सिर्फ इतना भर कह देने से लाजवंती की तरह ख़ुशी के मारे सिमट जाता था। उनकी तारीफों का मेरे पास पूरा हिसाब नहीं है मगर उन तारीफों ने मुझे बेहिसाब ख़ुशियां दी हैं। हौसला दिया है।

आज़ादी के पचास साल हो रहे थे। मैं नहीं चाहता था कि शो बन जाने से पहले कोई मेरी स्क्रिप्ट देखे। मैंने यह बात विनोद से कह दी। विनोद ने कहा कि कुछ शरारत कर रहे होगे। मैंने कहा नहीं सर। कुछ लिखने और बनाने से पहले क्या किसी को दिखाना।

तो उन्होंने कहा कोई नहीं, कह देना कि विनोद दुआ ने देख लिया है और क्लियर कर लिया है। विनोद दुआ ने जब पेश किया तो उस कार्यक्रम में उन पर भी टिप्पणी थी। उन्होंने सोचा नहीं होगा कि जिस विनोद दुआ के दम पर इसने कार्यक्रम बनाया है उसमें विनोद दुआ पर भी टिप्पणी थी।

अचानक आई उस टिप्पणी से विनोद दुआ जैसा सधा हुआ बल्लेबाज़ सकपका गया लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना। पूरे कार्यक्रम में हर हिस्से के बाद वे तारीफ ही करते रहे कि ये सिर्फ रवीश कर सकता है। मैं दूसरे छोर पर एक नए पेशेवर की तरह सकुचाया खड़ा रहता था।

हर दिन अपना आत्मविश्वास खोता रहता था और हर दिन पाता रहता था। उनके प्रति सम्मान इसलिए था कि वे माध्यम का हुनर रखते थे। वे माध्यम के हिसाब से मेरी तारीफ़ करते थे। मेरे अंदर माध्यम के प्रति मोहब्बत भर देते थे। उनसे इतना मिला, वो काफी था।

इसके बाद भी हम व्यक्तिगत रुप से क़रीब नहीं थे लेकिन मेरी यादों में वे किसी करीबी से कम नहीं हैं। उनका बिना देखे गुज़र जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा। उनसे ख़ूब दाद मिली और और कभी दाद नहीं भी मिली। एक अच्छा उस्ताद यही करता है।

अपना हक अदाकर हिस्सा नहीं मांगता है। वो किसी और रास्ते चला जाता है और हम किसी और रास्ते चले गए। जिसने जो दिया उसके प्रति हमेशा शुक्रगुज़ार होना चाहिए। विनोद दुआ का दिया हुआ आत्मविश्वास आगे की यात्राओं में बहुत काम आया।

जिससे आप ड्राइविंग सीखते हैं, हर मोड़ पर उसे याद नहीं करते हैं लेकिन सफ़र में किसी मोड़ पर उसकी कुछ बातें याद आ जाती हैं। आपकी रफ़्तार बदल जाती है। सफ़र का अंदाज़ बदल जाता है। विनोद दुआ, दुआ साहब, विनोद, आप ज़िंदगी के बदलते गियर के साथ याद आते रहेंगे।

लेखक –रवीश कुमार

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