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आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है

आज ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ है। आधुनिकता और तेज वैश्वीकरण की भागदौड़ में लगातार पिछड़ती और विस्मृत होती जा रही अपनी मातृभाषा को याद करने और उसकी पहचान, उसकी अस्मिता को बनाए रखने का संकल्प लेने का दिन।

मेरी अपनी मातृभाषा भोजपुरी है। दुर्भाग्य से दुनिया की एक बड़ी आबादी द्वारा बोली जानेवाली यह बेहद समृद्ध भाषा आज अश्लीलता की गंभीर चुनौतियों से दो-चार है। बाज़ार के दबाव में फूहड़, बेहूदा, मातृद्रोही सिनेमा से जुड़े लोगों और असंख्य गायक-गायिकाओं ने इसे अश्लीलता का पर्याय बनाने का जैसे अभियान चला रखा हैं।

हालत यह है कि कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति इस भाषा का सिनेमा देखने या गीत सुनने में अब शर्म महसूस करने लगा है। हां, इस निराशाजनक समय में उम्मीद जगाते हैं कुछ ऐसे कलाकार और गायक-गायिकाएं जो अपनी भाषा के सम्मान के लिए सतत संघर्ष कर रहे हैं।

#भोजपुरी
#भोजपुरी

इस आशा के साथ कि भोजपुरी अपसंस्कृति के चंगुल से निकलकर एक बार फिर अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करेगी, सभी भोजपुरी भाषियों को मातृभाषा दिवस की मेरी शुभकामनाएं,मेरी अपनी एक भोजपुरी कविता ‘आस’ के साथ !

केहू ना कहेला बाकि
बिहान होते चिरई हांक लगा जालि
ओस नहाली दूब
उछाह से बहेली नदी
अगरा जाला गाछ-बिरिछ
सुरूज के पहिलका किरिन के संगे
केहू ना देखेला बाकि
चुपे अंखुआ जालि फसल
कोंपल फेंक डेला पौधा
पतईंन में उतर जाला हरियरी
फल में रस
फूल में गंध
अंखियन में नेह
केहू ना जानेला बाकि
बाबू जी के मन में बारी-बारी से
काहे धुंधुआत चल जाला
एक-एक गो नेह-नाता
साच्छात उतरे लागेले जमराज
माई के भोरे के सपना में
कइसनो मौसम में
बचा के राख लेलि भौजी
भिंडी आ करइला के बिया
मेहरारू गुल्लक में पईसा
बचवा सब आंखि में नींद
केहू ना बचावेला बाकि
घोर से घोर दुरदिन में भी
बाचल रहेला जरूर कौनो आस
तबे त हमनी
सहेज के राखेनी ओकर पाती
जेकरा से मिले के
कौनो आस ना बाचल रहेला।


लेखक — ध्रुव गुप्त(पूर्व आईपीएस अधिकारी)

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