आज तक पर यूपी चुनाव को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान अंजना ओम कश्यप और अखिलेश यादव के बीच जिस अंदाज में संवाद हुआ उसे आप क्या कहेंगे, याद करिए किसान आन्दोलन के दौरान चित्रा त्रिपाठी के साथ जो कुछ भी हुआ उसे आप क्या कहेंगे ।क्या यह माना जाये कि पत्रकारिता संकट में है या फिर हम पत्रकार जिस तरीके से सत्ता के साथ खड़े दिख रहे हैं या फिर सत्ता से सवाल करना छोड़ दिये हैं उसका प्रतिफल है ।
बिहार में भी इस तरह का एक दौर आया था जब सीएम की कुर्सी पर लालू प्रसाद काबिज थे लालू प्रसाद सार्वजनिक मंच से मीडिया की आलोचना करते थे किसी विषय पर प्रतिक्रिया लेना रहता था तो घंटो घर के बाहर खड़े कर देते थे और आये दिन सार्वजनिक रूप से अपमानित भी करते रहते थे। फिर भी एक रिश्ता बना रहा ।
जहां तक मेरा अनुभव रहा है अखबार में संपादक से लेकर प्रखंड के संवाददाता तक और चैनल के चैनल हेड से लेकर जिला रिपोर्टर तक पर सवर्णों का कब्जा होने के बावजूद कभी भी कभी सुबह के मीटिंग में यह एजेंडा तय नहीं होता था कि लालू प्रसाद की सरकार को घेराबंदी करने के लिए खबर को प्लांट करो या फिर उस नजरिए से खबर बनाओं जिससे लालू प्रसाद के शासन काल घेरे में आ सके।
मुझे लगता है जब तक हम मीडिया वाले इस सोच के साथ काम करते रहे है कि जो खबर है चलेगा एजेंडा नहीं चलेगा तब तक ठीक रहा लेकिन जैसे ही हम लोग ऐजेंडे पर खबर करने लगे लोगों का भरोसा उठने लगा जो पहले नहीं था लोगों का मीडिया पर बहुत भरोसा था। और यही वजह थी कि गांव में रहने वाले लोग हो या फिर शहर में रहने वाले लोग हो उन्हें हमेशा लगता था कि मीडिया हमारे साथ खड़ी है हर दिन आम जनता का फोन आता था पुलिस के जुल्म को लेकर या फिर भ्रष्टाचार को लेकर। लेकिन जैसे जैसे मीडिया से आम लोगों के सरोकार से जुड़ी खबरें चलनी कम होती गयी लोग भी हम लोगों से दूर होते चले गये ।
अब पहले जैसे आम लोगों का कहां फोन काँल आता है बहुत कम अब कांल आता है हिन्दू मुसलमान के बीच विवाद को लेकर कही कोई घटना हो जाये एक घंटे में चालीस से अधिक कांल आ जाता है हर स्तर के लोग फोन करने लगते हैं हाल ही पटना में एक मुसलमान दुकानदार खरीदारी के दौरान हुए विवाद के क्रम किसी लड़की पर हाथ चला दिया इतना फोन कांल आया जैसे लगा नरसंहार हो गया हो और पुलिस नहीं पहुंच रही है और फिर क्या हुआ थोड़ी देर में सारे चैनल का हेड लाइन खबर बन गयी जबकि पहले हम मीडिया धार्मिक ,सम्प्रदायिक और जाति आधारित हिंसा से जुड़ी खबरो को लिखने में और दिखाने में बहुत सावधानी बरतते थे हम मीडिया वालों की पहली जिम्मेवारी यही होती थी कि ऐसा खबर ना चले जिससे समाज में तनाब बढ़ जाये लेकिन आज क्या हो रहा है हम लोग तनाब और घृणा पैदा करने वाली खबर ही नहीं चला रहे हैं बल्कि खबर प्लांट भी कर रहे हैं इससे हुआ क्या आम लोग जो मीडिया और मीडियाकर्मियोंं की ताकत हुआ करती थी वो हम मीडिया वालों से दूर चल गया और जैसे ही इसका आभाव सत्ता और सिस्टम को हुआ पूरी मीडिया को हासिया पर पहुंचा दिया
संकट की वजह यही है ऐसे में मीडिया से जुड़े लोग एक बार फिर से आम लोगों का भरोसा कैसे जीते इस पर सोचने कि जरूरत है क्यों कि जैसे ही आम लोग हम लोगों के साथ जुड़ने लगेगी बहुत सारी चीजें बदल जाएंगी । मेरा तो अनुभव यही रहा है कि सत्ता से सवाल करने वाले पत्रकारों से भले ही सरकार नराज रहे लेकिन जनता हमेशा सर आंखो पर बिठा कर रखती हैं। वक्त आ गया है आत्ममंथन करने का नहीं तो फिर इस संस्था का कोई मतलब नहीं रह जायेगा ।