किसी भी देश के लिए 75 वर्ष का समय शैशवा काल (babyhood) ही कहां जाता है और भारतीय लोकतंत्र फिलहाल इसी दौर से गुजर रहा है क्यों कि इससे पहले के भारत की बात करे तो शासक वर्ग धर्म,संस्कृति और समाजिक मान्यताओं से छेड़छाड़ करने से बचते रहते थे उन्हे लगान और सिंघासन से आगे कोई वास्ता नहीं था,धर्म ,संस्कृति और समाजिक मान्यताओं से बस इतना ही वास्ता था कि उन्हें शासन व्यवस्था चलाने में समस्या ना हो।
लेकिन आजादी के बाद शासन और सत्ता चलाने के लिए जिस संविधान का निर्माण किया गया वो धर्म ,संस्कृति और समाजिक मान्यताओं से जुड़ी उन तमाम बातों को अस्वीकार किया जो बदलाव में बाधक था,और 1950 से लेकर 2022 तक देश उसी संविधान के सहारे आगे बढ़ रहा है ।
लेकिन उस दौर में भी ऐसे लोग थे ऐसी राजनैतिक पार्टिया थी जो धर्म,संस्कृति और समाजिक मान्यताओं में बदलाव के पक्षधर नहीं थे औऱ इनका मानना था कि भारत की जो परम्परा रही है वो महान है उसमें बदलाव की बात सोचना भारत के आत्मा पर हमला है।
इस तरह के विचार रखने वालों में हिन्दू महासभा जो बाद में जनसंघ बना और इस समय भाजपा के नाम से जाना जाता है सन 1947 के संविधान सभा में जिन सवालों को लेकर हिन्दू महासभा राजनीति कर रही थी आज भी बीजेपी उन्ही सवालो के सहारे राजनीति कर रही है।
हिन्दू महासभा संविधानसभा के बैठक के दौरान सम्राट अशोक ,राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा,राष्ट्रगान ,कॉमन सिविल कोड,धारा 370 और हिंदू कोड बिल को लेकर जबरदस्त हंगामा किया था और कहां था कि संविधानसभा हिन्दू के मान्यताओं के खिलाफ निर्णय ले रही है और आज भी भाजपा इन्ही मुद्दों के सहारे राजनीति कर रही है।
ये अलग बात है कि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की तुष्टीकरण की राजनीति ने इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया लेकिन जिन बुनियादी सवाल को लेकर संघ संविधान में बदलाव चाहता है वो बदलाव भारत को उस दौर में लौटा सकता है जिससे बड़ी मुश्किल से बाहर निकला था।
1—संघ पुरुषों के बहु विवाह प्रथा और महिलाओं को नीच का दर्जा जारी रहे का पक्षधर था
जिस समय भारत आजाद हुआ उस समय हिंदू समाज में पुरुष और महिलाओं को तलाक का अधिकार नहीं था. पुरूषों को एक से ज्यादा शादी करने की आजादी थी लेकिन विधवाएं दोबारा शादी नहीं कर सकती थी. विधवाओं को संपत्ति से भी वंचित रखा गया था.
आजादी के बाद भारत का संविधान बनाने में जुटी संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था. इस बिल में बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओंं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था.
यह विधेयक मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था. इसके अतिरिक्त, पुत्रियों को उनके पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता साथ ही
इस विधेयक में विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था। यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था-सांस्कारिक व सिविल. इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी बनाये गये थे और इस बिल के पास होने पर हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार मिल जाता ।
विवाह विच्छेद के लिए सात आधारों का प्रावधान था. परित्याग, धर्मांतरण, रखैल रखना या रखैल बनना, असाध्य मानसिक रोग, असाध्य व संक्रामक कुष्ठ रोग, संक्रामक यौन रोग व क्रूरता जैसे आधार पर कोई भी व्यक्ति तलाक ले सकता था.
लेकिन इस बिल का संघ और हिन्दूमहासभा और कुछ कांग्रेसी सदस्यों ने सड़क से लेकर संविधानसभा की बैठक तक में जबरदस्त विरोध किया इस वजह से आंबेडकर के तमाम तर्क और नेहरू का समर्थन भी बेअसर साबित हुआ और अंत में. इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया।
30 नवंबर 1949 को संविधान का अंतिम मसौदा डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा को सौंपा था। उस दिन आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर का संपादकीय संविधान पर ही केंद्रित था। इसमें लिखा गया-
‘भारत के नए संविधान की सबसे ख़राब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।… यह प्राचीन भारतीय सांविधानिक क़ानूनों, संस्थाओं शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास यात्रा के भी कोई निशान यहाँ नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफ़ी पहले मनु का क़ानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ़ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए तो वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इस सब का कोई अर्थ नहीं है।’
वही नेहरु ने संविधान सभा की बैठक में कहा था, ‘इस कानून को हम इतनी अहमियत देते हैं कि हमारी सरकार बिना इसे पास कराए सत्ता में रह ही नहीं सकती।
हालांकि सविधानसभा में शामिल महिला सदस्यों ने इसको लेकर गहरी आपत्ति दर्ज की थी और सदन के बाहर भी संघ और हिन्दूमहासभा के इस आचरण को लेकर प्रगतिशील महिलाएं और पुरुषों ने खुल कर आलोचना किया था।
और फिर जैसे ही लोकसभा चुनाव के बाद नेहरु के नेतृत्व में सरकार बनी सदन के पहले ही सत्र में आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को संसद में पेश किया. इसको लेकर संसद के अंदर और बाहर एक बार फिर विद्रोह मच गया लेकिन उस समय की मीडिया और प्रगतिशील महिलाएं और पुरुष ने संघ और जनसंघ के विरोध का खुल कर प्रतिवाद किया तो जनसंघ इस मुद्दे को लेकर सदन में दूसरा रुख अख्तियार कर लिया
1951 में जनसंध से तीन सांसद चुन कर आये थे संसद में तीन दिनों तक बहस चली.हिंदू कोड बिल का विरोध करने वाले, जनसंघ के सांसदों ने पैतरा बदलते हुए कहा कि सिर्फ हिंदुओं के लिए कानून क्यों लाया जा रहा है, बहुविवाह की परंपरा तो दूसरे धर्मों में भी है. इस कानून को सभी पर लागू किया जाना चाहिए. यानी समान नागरिक आचार संहिता सदन में लाया जाये लेकिन कांग्रेस ने सदन से लेकर सड़क तक जो विरोध चल रहा था उसको खारिज करते हुए हिन्दू कोड बिल को पास करवा लिया ।
सदन में और संविधानसभा में हिन्दू कोड बिल को लेकर हुए बहस थे उस दौरान नागरिक आचार संहिता को लेकर सबसे मुखर विरोध सिख ने किया उनका कहना था कि इसको लागू करना सिख धर्म के मूल आधार पर हमला है ।
लेकिन बाद के दिनों में जनसंघ और फिर बीजेपी ने एक रणनीति के तहत नागरिक आचार संहिता को मुसलिम से जोड़ कर सियासी हवा का रुख बदल दिया लेकिन मूल यही है कि संघ और भाजपा महिला के आजादी को लेकर अभी भी उस मानसिकता से बाहर नहीं निकल पायी है जिसको लेकर इस देश में समाजिक सुधार को लेकर बड़ा आन्दोलन हुआ था वही संघ सिख बौद्ध और जैन धर्म को लेकर भी सहज नहीं है जैसे अभी साई बाबा को लेकर संघ और हिन्दू संगठन सहज नही है।
अब देखना यह है कि बीजेपी सत्ता के सहारे इसको कहाँ तक आगे ले जाता है क्यों कि मुस्लिम विरोध तक चलेगा लेकिन इससे आगे जैसे ही बढ़ेगे बहुत मुश्किल होगा देश को सम्भालना।