भारतीय मूल के ऋषि सुनक जिनको अपने हिंदू होने का गर्व है, इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में सबसे आगे हैं. इंग्लैंड ईसाइयों का देश है. वहां हिंदुओं की आबादी मात्र 1.5 प्रतिशत है. उस समाज में ऋषि सुनक अपना धार्मिक परिचय छिपाते नहीं हैं. बल्कि घोषणा करते हैं कि मुझे गर्व है कि मैं हिंदू हूं. इसके पूर्व 2020 में बोरिस मंत्रीमंडल में इंग्लैंड के वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने गीता पर हाथ रखकर शपथ लिया था.
इंग्लैंड ही नहीं अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस भी भारतीय मूल की हैं. किन्हीं कारणों से अगर राष्ट्रपति की मौत हो जाती है तो वैसी हालत में अमेरिकी संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति ही राष्ट्रपति का स्थान लेता है.
इन दोनों मुल्कों में कभी भी इन लोगों के धर्म या मूल को लेकर किसी ने इनकी देशभक्ति पर उंगली नहीं उठाई है.
आज हमारे मुल्क में जिस विचारधारा के हाथ में सत्ता है वह सांप्रदायिकता को ही राष्ट्रवाद का पर्याय मानती है.
इसका नतीजा है देश का वातावरण विषाक्त बन गया है. उसमें यह अकल्पनीय स्थिति लगती है.
दरअसल हमारे देश में राष्ट्रवाद का अभ्युदय और विकास साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी के संग्राम में हुआ था. समान नागरिकता का सिद्धांत उसी संग्राम में निर्मित हुआ था. अंग्रेज़ों ने उस संग्राम को विभाजित करने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा लिया. जिसको हम बांटो और राज करो की नीति के रूप में जानते हैं. अंग्रेज़ों की वह नीति आंशिक रूप से सफल रही. आजादी तो हमें मिली लेकिन उसकी कीमत देश के विभाजन के रूप में हमें चुकानी पड़ी.
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के बाद सांप्रदायिकता के उस विष वृक्ष को जड़ से हम उखाड़ नहीं पाए. आज अंग्रेज़ों द्वारा रोपित वही विष वृक्ष देश के सामने पुनः गंभीर चुनौती बनकर खड़ा है. त्रासदी यह है कि अपने आपको साम्प्रदायिकता से लड़ने वाली और सेकुलर घोषित करने वाली राजनीतिक जमातों में, देश के समक्ष राष्ट्रवाद की आड़ में साम्प्रदायिकता रुपी जो गंभीर चुनौती है उसको जिस गंभीरता से लेना चाहिए उसका नितांत अभाव दिखाई दे रहा है.
लेखक –शिवानन्द तिवारी