Press "Enter" to skip to content

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं

आज दिवाली भी है और चार नवम्बर भी।
1974 में आज के ही तानाशाही ने लोकतंत्र के सर पर लाठियां बरसाईं थी, जिसे 74 साल के एक बुढ़े ने अपने सर और कांधे पर रोक लिया था ‌। जैसा भी था हमारा जनतंत्र तानाशाही के काल कोठरी से बाहर आया।

यह बुढ़ा आदमी वही था जो जो अपनी जवानी में आज के ही दिन 1942 में हजारीबाग जेल की ऊंची दीवारों को फांद कर निकल आया था आजादी की रथ का जुआ अपने कांधों पर लेने को। तब कांग्रेस के सभी बड़े लीडरान गांधी, नेहरू, सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी…..सभी जेल में बंद कर दिए गए थे।

कहते हैं जिसको जयप्रकाश वह नहीं मरण से डरता है
ज्वाला को बुझते देख कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है।
(दिनकर)
आज हमारा जनतंत्र उससे भी घनघोर तानाशाही ही नहीं फ़ासिज़्म के अंधियारे में घिरा है। देश को ‘धन-धान्य’ देने वाला किसान करीबन एक साल से सड़कों पर है, आम जन के हित में बोलने वाले दर्जनों कवि, लेखक, अध्यापक, वकिल, कार्यकर्त्ता सालों से बिन मुकदमा जेलों में ठूंस दिए गए हैं।

84 साल के बुजुर्ग फादर स्टेन स्वामी जेल से ही अंतिम यात्रा पर निकल गये।
इसी घनघोर अंधेरे में नन्हें से दीये का संकल्प:
लड़ेंगे साथी कि दूसरा रास्ता नहीं है।

More from खबर बिहार कीMore posts in खबर बिहार की »
More from बिहार ब्रेकिंग न्यूज़More posts in बिहार ब्रेकिंग न्यूज़ »