- दादाजी ने प्रण तोड़ी *
मेरे दादाजी गया के ख्यातिप्राप्त वकील थे। उन्होंने प्रण लिया था कि वे फौजदारी मुकदमा की प्रैक्टिस कभी नहीं करेंगे। उन्हें ऐसा लगता था कि फौजदारी मुकदमों में कानून से अधिक “लफ़्फ़ाज़ी” होती है। फलतः, वे केवल दीवानी मुकदमा ही करते थे।
एक दिन, उनका एक प्रिय मुवक्किल सुबह-सुबह, रोते-बिलखते उनके घर आया। “थानेदार ने मेरी पूरी इज़्ज़त गाँव के सामने उतार दी। वकील साहब कुछ कीजिए।”
दादाजी ने उसकी पूरी कहानी सुनी। थानेदार महोदय ने बिना वजह उसके घर की तलाशी ले ली थी। सारे ग्रामीण देखते रहे। बरामद कुछ हुआ नहीं। दरोगाजी अपना डंडा पटकते, मुस्कराते हुए चल दिए। उनका खुन्नस उतर चुका था।
ऐसी घटनाएँ तो आए दिन होती हैं, कौन सी बड़ी बात हो गई? यह क्या कम है कि दरोगाजी ने घर में कुछ ग़ैर कानूनी सामान रखकर उसे गिरफ़्तार नहीं कर लिया?
दादाजी के मुवक्किल ने ज़िद पकड़ ली कि उन्हें आज तो उनकी प्रतिष्ठा के लिए अपना कानून का अस्त्र उठाना ही होगा। उन्हें अपना प्रण तोड़ना ही होगा। दादाजी ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी। इस फौजदारी मामले को उन्होंने दीवानी चोंगा पहनाया।
धारा 165 Cr.P.C. में दी गई प्रक्रिया, जिसके अनुसार पुलिस को बिना वारंट के घर सर्च करने का प्रावधान है, उसकी प्रक्रिया को पूरी तरह पुलिस कभी नहीं अपनाती। यह प्रक्रिया कानून में इसलिए दी गई है ताकि पुलिस नागरिक की निजता के अधिकार का हनन बिना वजह नहीं करें।
तलाशी से पूर्व, पुलिस को लिखना पड़ता है कि बिना वारंट के यह तलाशी क्यों ली जा रही है। यह कारण जस्टिसियेबल होते हैं। पुलिस बिना वारंट के सर्च करने को अपना कानूनी अधिकार मानती है। उसमें निहित शर्तों का पालन करने को अपना कर्त्तव्य नहीं।
दादाजी ने जिला जज के सामने, नागरिक की निजता के अधिकार के हनन का मामला, दीवानी चोंगे में रखा। न फौजदारी, न प्रशासनिक, न ही रिट के रूप में। तथ्य ऐसे थे कि दरोगाजी अपना बचाव नहीं कर पाए। दादाजी ने रिलीफ़ में माँगा कि दरोगाजी के वेतन से एक रुपया प्रति माह काट कर उनके मुवक्किल के खाते में कंपनसेशन के रूप में डाल दिया जाए।
ऐसा ही हुआ। पूरी नौकरी दरोगाजी को बिना कारण बताए, बिना वारंट के तलाशी लेना कचोटता रहा।
लेखक –अभयानंद पूर्व डीजीपी बिहार