संघ सम्राट अशोक को लेकर असहज क्यों है इस सवाल का जवाब तलाशने कि कोशिश में मैं पिछले कई दिनों से संघ से जुड़े लोगों से बातचीत कर रहा हूँ, इतना ही नहीं अशोक की तुलना औरंगजेब से करने वाले नौकरशाह दया प्रकाश सिन्हा से भी मेरी बात हुई लेकिन सम्राट अशोक को लेकर संघ की ऐसा सोच क्यों है उसको लेकर स्पष्टता नहीं हो पायी ।
फिर दिल्ली विश्वविधालय और जेएनयू से जुड़े मित्रों से इस सम्बन्ध में लंबी बातचीत हुई और इस दौरान इस विषय से जुड़े कई आलेख को भी पढ़ने का मौका मिला ।
मोटा मोटी तौर पर जो मेरी समझ में आयी है वो बौद्ध धर्म को लेकर संघ की जो सोच रही है सम्राट अशोक के विरोध की वजह यही है ऐसा प्रतीत होता है।
गोलवलकर अपनी पुस्तक ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ में बुद्ध और बौद्ध धर्म को लेकर विस्तृत चर्चा किये हैं ।
जिसमें उनका मानना था कि ‘बुद्ध के बाद उनके अनुयायी पतित हो गए. उन्होंने इस देश की युगों प्राचीन परंपराओं का उन्मूलन आरंभ कर दिया. हमारे समाज में पोषित महान सांस्कृतिक सद्गुणों का विनाश किया जाने लगा. अतीत के साथ के संबंध-सूत्रों को भंग कर दिया गया. धर्म की दुर्गति हो गई. संपूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-विच्छिन्न हो गयी ।
भारत माँ के प्रति श्रद्धा इतने निम्न तल तक पहुंच गई कि धर्मांध बौद्धों ने बौद्ध धर्म का चेहरा लगाए हुए विदेशी आक्रांताओं को आमंत्रित किया तथा उनकी सहायता की उनका आचरण देशद्रोही जैसा हो गया था ।
वही बौद्ध धर्म के अहिंसा का पाठ ने भारतवंशी को कायर बना दिया ।
क्यों कि अशोक धम्म के सहारे बौद्ध धर्म को पूरे विश्व में फैलाये इसलिए माना जा रहा है कि संघ अशोक का इसलिए विरोध कर रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि सम्राट अशोक के बाद भारत गुलामी के दास्ता से बाहर क्यों नहीं निकल पाया ,सम्राट अशोक भारतवंशी को अहिंसा का पाठ पढ़ा कर कायर बना दिया ये संघ का मानना है। अगर ऐसा था तो बाद के दिनों में शंकराचार्य के नेतृत्व में हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ फिर भी भारतवंशी गुलामी की दास्ता से बाहर क्यों नहीं निकल पायी जब कि इस देश पर सबसे ज्यादा हमला शंकराचार्य के हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान काल के बाद ही शुरू है ।
इस सवाल पर संघ के विचारक स्पष्टता के साथ कुछ भी नहीं लिखे हैं और ना ही इस विषय पर संघ स्पष्टता के साथ बोलता है ।
इसकी वजह है संघ हमेशा भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखता है जबकि भारत अशोक के काल को छोड़ दे तो राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से कभी एक राष्ट्र नहीं रहा है हां सांस्कृतिक रूप से आज जो भारत है वो जरूर आपस में एक दूसरे से जुड़े रहा है, ऐसा नहीं होता तो दक्षिण का एक संत पूरे भारत में चार पीठ स्थापित नहीं कर पाते।
दूसरी बात राष्ट्र आधुनिक विचार है इस विचार के सहारे भारत के इतिहास को ना देखा जा सकता है ना समझा जा सकता है । यू कहे तो 1947 में भारत का उदय एक राष्ट्र के रूप में हुआ जिसके निर्माण में कई ऐसी बुनियादी बाते निहित है जो राष्ट्र के आधुनिक विचार से मेल नहीं खाता है ।
इसलिए हमारे पुरखों ने भारत को यूनियन ऑफ स्टेट कहा जहां तमाम तरह के विवादित मसले का एक हल निकालने कि कोशिश हुई। जिसको लेकर आज संघ और भाजपा ताना मार रही है।
संघ और भाजपा जिस दिशा में भारत को ले जाना चाह रही है संभव है आने वाले समय में भारत एक बार फिर ऐसी समस्याओं में घिरने लगा है जिसके समाधान को लेकर गांधी को अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी।
इंदिरा गांधी भी इसी तरह की छेड़छाड़ की कोशिश शुरू की थी देश को क्या नुकसान हुआ समाने हैं सच यही है कि भारत को राष्ट्र के रूप में नहीं संस्कृति के रूप में देखने कि जरूरत है ।