बुद्धि बढ़ती है तो जात-धर्म सूझता है; आदमी रिवर्स गियर में है?
(संदर्भ : बाबू वीर कुंवर सिंह)
बाबू वीर कुंवर सिंह के बारे में सुनते-पढ़ते हुए, इन दोनों सवालों का जवाब ‘हां’ में मिलता है। पता चलता है कि वाकई आदमी क्या था और क्या हो गया; रिवर्स गियर में कहां से कहां पहुंच गया?
बेशक, कोई यूं ही महामानव/महानायक नहीं हो जाता। ऐसा बनना पड़ता है। खुद को बनाना पड़ता है।
और यह सिर्फ व्यक्तित्व के निर्माण की व्यक्तिगत बात भी नहीं है। इसमें पूरे समाज का, पूरे देश का योगदान होता है; सबकी सहमति होती है। हां, यह स्थिति भी निश्चित रूप से उसी विराट व्यक्तित्व के कार्यकलापों पर निर्भर करती है, जो अंततः महामानव कहलाता है।
बाबू वीर कुंवर सिंह के बारे में पढ़ रहा था। आप भी जानिए, सुनिए-“1857 की आजादी की पहली लड़ाई, हिन्दू-मुसलमानों ने एकसाथ मिलकर लड़ी। इसमें दलितों, पिछड़ों की भी खूब भागीदारी रही। दुसाध समाज के लोग बड़ी संख्या में बाबू वीर कुंवर सिंह की सेना में सिपाही थे। नाथू दुसाध, बाबू कुंवर सिंह के सिपहसालार थे। परछाई की तरह हमेशा उनके साथ रहते थे। बाबू कुंवर सिंह की अदालत में सवर्ण और अवर्णों के साथ सामान न्याय होता था। इसके कर्ताधर्ता द्वारिका माली थे। बगवां के 29 दुसाध, अंग्रेजों के साथ लड़ाई में शहीद हुए। दावां गांव के दरोगा नट, शिवपुर घाट पर, बाबू कुंवर सिंह को बचाने में मारे गए।
समाज के कमजोर वर्गों के प्रति बाबू कुंवर सिंह के लगाव का प्रतीक है देवचना गांव। यहां एक महिला को बहन मानकर उन्होंने उसे 251 बीघा जमीन खोंइचा में दिया। यह आज दुसाधी बघार कहलाता है। वे अपने सैनिकों की जान को अपने से ज्यादा कीमती मानते थे। अपने सभी सैनिकों को गंगा पार उतारने के बाद खुद अंतिम किश्ती पर सवार हुए। इसी कारण उन्हें अंग्रेजों की गोली का शिकार होना पड़ा।
बाबू कुंवर सिंह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक हैं। उन्होंने शिवाला बनवाया, तो आरा, जगदीशपुर में मस्जिदें भी बनवाई। पीरो के नूर शाह फकीर को 5 बीघा, तो नोनउर के बकर शाह फकीर को 10 बीघा लगान मुक्त जमीन दी। धरमन बीबी की बहन करमन के नाम पर आरा में करमन टोला बसाया।”
वास्तव में, बाबू वीर कुंवर सिंह ने समाज के हर तबके को साथ लेकर ही विजय हासिल की थी। 80 वर्ष की उम्र में उनका जोश, उनकी हिम्मत, वस्तुतः समूह की ताकत थी। बड़ी जीत में सबका साथ होता है, सबकी सर्वानुमति होती है।
यह सब राजतंत्र/जमींदारी तंत्र के दौर की बात है। 160-70 साल पहले की बात।
तब, सीन-सिचुएशन “जस राजा, तस प्रजा” वाले भाव से तय होता था।
अभी हम दुनिया की सर्वोत्तम शासन व्यवस्था (संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली) को जी रहे हैं। इसके भागीदार/किरदार हैं। फिर भी इतनी विसंगतियां, संकट, समस्याएं?
तो क्या आधुनिकता ने, विकास ने, खासकर आदमी, उसकी आदमीयत को रिवर्स गियर में डाल दिया है?