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आज जार्ज का जन्मदिन है

3 जून 1930 को ज़ार्ज़ फ़र्नांडिस का जन्म दिन है।
हम दोनो के बीच वह आख़िरी झगड़ा था ,उस समय हमे यह अनुमान नही था कि यह “ आख़िरी “ बन जायगा , लेकिन वक्त ने कुछ और तय कर रखा था – आख़िरी मुलाक़ात भी वही बनी ।

इसके बाद उनकी बीमारी अल्ज़ाइमर में चले जाना , मिलना , न मिलना दोनो बराबर था । उनकी बीमारी का सुन कर उनसे मिलने जब उनके आवास पर पहुँचा तो – बहुत दर्दनाक मंजर था – ज़ार्ज़ कोमा में हैं , मोटी सी चादर में ढके हुए , सामने लैला जी ( लैला कबीर फ़र्नांडिस – ज़ार्ज़ की पत्नी ) खड़ी हैं , एक कुर्सी पर दलाई लामा जी बैठे हैं , उनका हाथ ज़ार्ज़ के घुटने पर है । लामा की आँख से आंसू झर रहा है – “ अब हमारी लड़ाई कौन लड़ेगा ज़ार्ज़ ? “ हमने दूर से ही प्रणाम किया और वापस मुड़ गया । अपने से पूछा – “इस” ज़ार्ज़ से क्यों मिले ?

इस ज़ार्ज़ से क्यों मिले ? यह पोस्ट इसी सवाल का जवाब बनाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
ज़ार्ज़ से हम पहली दफ़ा 1972 , में मिले । और मिलते ही उदास हो गया । यही ज़ार्ज़ है ? “जाइंट किलर “ ? बांबे का मज़दूर नेता , जिसके एक इशारे पर बांबे ठप ? पुलिस परिषद का नेता ? रेलवे मेंस फ़ेडरेशन का नेता ? ज़ार्ज़ की शक्सियत सवाल में आ गयी । खादी का कुर्ता , पजामा , गांधी आश्रम का चप्पल एक छोटा सा बैग लिए ज़ार्ज़ खड़े हैं । इस तरह का नेता हम पहली बार देख रहे थे । हमारे पास नेता की दूसरी ही तस्वीर रही , बिल्कुल कांग्रेसी नेता की । थुल-थुल काया , निकला हुआ पेट । चौचक कुर्ता धोती । लेकिन वह तस्वीर टूट गयी और मन उदास हो गया । अवसर था – बिल्थरा रोड बलिया में समाजवादी युवजन सभा ने “ पूर्वांचल विद्रोह सम्मेलन “ आयोजित किया था जिसका उद्घाटन करने ज़ार्ज़ आए थे ।

देबू दा ( देवब्रत मजूमदार ) ने हमारा परिचय कराया –
– ज़ार्ज़ ! ये चंचल है
– हलों ! और एक हाथ बढ़ आया । निहायत गर्म जोशी से हाथ मिला । यहाँ से एक नयी यात्रा शुरू हुई ।

एक दिन ज़ार्ज़ की चिट्ठी मिली । मज़मून था – “उत्तर प्रदेश में पुलिस परिषद की मान्यता को लेकर सरकार और पुलिस में तनाव है । तुम लोग पुलिस की मदद करो । “ किया गया और बनारस केंद्र बन गया । इसकी वजह रामनगर पी ये सी कैम्प पर सेना का आक्रमण । नुक़सान दोनो तरफ़ हुआ । पुलिस शक के घेरे में आ गयी और पंडित कमलापति त्रिपाठी की सरकार गिर गयी । उत्तर प्रदेश इतिहास लिख रहा था पुलिस के साथ समाजवादी युवजन सभा का सुदृढ़ रिश्ता । नतीजा यह रहा क़ि विश्वविद्यालय में होनेवाले सालाना उपद्रव को रोकने के लिए पी ये सी की जगह दक्षिण की रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स लगने लगी । यहाँ भी पीं ये सी को दोहरा फ़ायदा हुआ । पुलिस परिषद के तत्कालीन नेता गिरी के अनुसार – लड़कों (छात्रों ) से लात खाना बंद हुआ और टी ये डी ये तो बढ़ा ।

तकनीकी पेंच समझिए – राजस्व भूमि रजिस्टर में काशी विश विद्यालय गाँव दर्ज है । डेढ़ कदम लांघ जाइए बनारस शहर है । पुलिस नियमावली बहुत कमाल की है । पुलिस फ़ोर्स को मिलने वाला दैनिक भत्ता शहर में ज़्यादा है गाँव में कम । गिरी इसी तरफ़ इशारा कर रहे थे ।

इस ज़ार्ज़ को देखा है ।
74 में रेल हड़ताल हुई । हमे दो काम मिला – एक – रेल कर्मचारियों के परिवार की मदद । और आम जन को आवश्यक वस्तुओं की सम्भावित कमी दूर करने का प्रयास । इस प्रयास में दुकानदारों द्वारा सामानों को रोकना और फिर महँगे दाम पर बेचना । ग़ज़ब का ख़ौफ़नाक मंजर बनाया आढ़तियों ने । नमक और माचिस जैसी चीज़ों की क़ीमत आसमान पर चली गयी माचिस दस दस रुपए तक बिकने लगी । हमारी ड्यूटी जौनपुर में लगी थी । अनगिनत दुकानो के गोदाम खोलवाए । वाजिब दाम पर चीनी , डालडा , माचिस , नमक सब बँटा । रेल किस तरह देश को जोड़ती है , उसकी कितनी उपयोगिता है , यह उस रेल हड़ताल से मालूम हुआ । इस रेल हड़ताल ने श्रीमती ईंदिरा गांधी को ज़ार्ज़ का स्थायी दुश्मन बना दिया । रही सही कसर माओत्से तुंग के उस ख़त ने आग में घी का काम किया जिसे माओ ने ज़ार्ज़ की बहादुरी पर लिखा था ।

हमने इस ज़ार्ज़ को देखा था
75में आपातकाल लगा । इसे इमरजेंसी कहते हैं । हर ग़ैर कांग्रेसी नेता धड़ल्ले से झूठ बोलता है की हम इमरजेंसी से लड़े हैं ।25/26 जून को इमरजेंसी लगी । सारे लोग गिरफ़्तार हो गये , कुछ ने माफ़ीनाम लिख दिए , बाक़ी फ़रार रहे , तो कब और किससे लड़े ? इस इमरजेंसी के ख़िलाफ़ केवल दो थे जो लड़ रहे थे । एक अकाली दल , वह प्रति दिन जत्था बना कर निकलता और गिरफ़्तारी देता दूसरे थे ज़ार्ज़ और उनके मित्र लोग । ज़ार्ज़ पर डाइनामाइट केस चला । हम इस ज़ार्ज़ को जानते थे ।
ज़ार्ज़ का यह हिस्सा कभी नही मरेगा ।

हम उस उस ज़ार्ज़ की चर्चा फ़िलहाल यहाँ नही करेंगे जिस पर हम झगड़े थे ।

लेखक –Chanchal Bhu

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