परीक्षा में केवल कड़ाई ही या सरकारी स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई भी —अभयानंद
वर्ष 1989 की बात है। मैं नालंदा का पुलिस अधीक्षक हुआ करता था। बोर्ड की परीक्षा होने वाली थी। जिले के जिला पदाधिकारी बहुत ही गंभीर और संजीदा व्यक्ति हुआ करते थे। उन्होंने मेरे समक्ष प्रस्ताव रखा कि इस वर्ष परीक्षा में नकल नहीं होने देना है। चूंकि नीयत नेक थी इसलिए मैंने पुलिस विभाग की पूरी शक्ति को इस दिशा में लगा देने का आश्वासन दे डाला।
उस वर्ष परीक्षाओं में नकल बिलकुल नहीं हुई। चारों ओर प्रशंसा हुई।
कॉलेजों में नामांकरण हुआ। एक दिन, हम दोनों पदाधिकारी कार्यालय में एक साथ बैठ कर मंथन कर रहे थे। अचानक विद्यार्थियों का एक बड़ा समूह सामने आ गया। शांत भाव से उन्होंने प्रश्न किया, “केवल कड़ाई ही या पढ़ाई भी?” प्रश्न वाजिब था। हम दोनों ने कार्यवाई करने का आश्वासन दिया और बच्चे चले गए।
हमने निर्णय लिया कि हम स्वयं कॉलेज में जा कर देखेंगे। अगले ही दिन हम जिला मुख्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पहुँचे, बिना किसी पूर्व सूचना के। फ़िज़िक्स के प्रैक्टिकल का क्लास था। हम सीधे प्रयोगशाला में पहुँचे। सभी विद्यार्थी आए हुए थे। वर्नियर कैलिपर से लम्बाई निकालने की क्लास थी। सब उपलब्ध थे केवल शिक्षक नहीं थे।
सूचना मिलते ही, प्रधानाचार्य आ गए। उन्होंने बताया कि शिक्षक बिना सूचना के अनुपस्थित हैं। तब तक पुलिस इंस्पेक्टर साहब को भी सूचना मिल गई थी। वे भी थाने की जीप पर सवार होकर कॉलेज आ गए थे। इंस्पेक्टर साहब से मैंने अनुरोध किया कि वे शिक्षक मोहदय के आवास पर जा कर उनको स्मरण कराएँ कि बच्चे आ गए हैं और उनका इंतज़ार कर रहे हैं।
उतनी देर में, हम दोनों पदाधिकारियों ने बच्चों की वर्नियर कैलिपर की क्लास लेनी शुरू कर दी। मनोरम दृश्य था। पूरा कॉलेज इस दृश्य को रुचि से देख रहा था। आधे घंटे के बाद पुलिस जीप पर शिक्षक महोदय पधारे। हम दोनों ने उनका दायित्व उनको सौंपा और अपना दायित्व निभाने निकल पड़े।
चलते समय शिक्षक महोदय ने धीरे से मेरे बगल में आ कर कहा कि आपको पुलिस की गाड़ी घर पर नहीं भेजनी चाहिए थी, बेइज़्ज़ती हुई है। मैंने मात्र मुस्करा कर प्रणाम करते हुए अलविदा कहा।
पढ़ाई की स्थिति में गिरावट उसके 30 वर्षों के बाद आज कहाँ तक पहुँच चुकी है, इसका अंदाजा अब मैं लगाने में सक्षम नहीं हूँ।