कन्हैया कुमार: बहुत कठिन है डगर पनघट की
न मैं वामपंथी हूँ और न ही काँग्रेसी हूँ, लेकिन मेरी नज़रों में वामपंथी या काँग्रेसी होना गुनाह नहीं है, उसी प्रकार जिस प्रकार भाजपायी और संघी होना गुनाह नहीं है। गुनाह है इनके कुकर्मों के खिलाफ आवाज़ न उठाना। इसी प्रकार, न व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति में मेरा विश्वास है और न ही मैं किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हाँ, दक्षिणपंथियों की विभाजनकारी राजनीति के ख़िलाफ़ हूँ, इसमें सन्देह की कोई गुँजाइश नहीं है। मेरी सहानुभूति लेफ़्ट के प्रति भी है और काँग्रेस के प्रति भी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं लेफ्ट या काँग्रेस की हर बात से सहमत हूँ, या फिर इन्हें निर्दोष मानता हूँ: सन्दर्भ चाहे मुस्लिम-तुष्टिकरण का हो, या फिर इनकी नकारात्मक राजनीति का। आलोचनात्मक विवेक के बिना समर्थन या विरोध मुमकिन नहीं है। यही स्थिति कन्हैया के सन्दर्भ में भी है। मेरा यह मानना है कि जब मुद्दों और समस्याओं को रोमांटिसाइज़ किया जाता है या फिर राजनीति में मुद्दों की जगह व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को अहमियत दी जाती है, तो समस्याओं के समाधान की संभावना धूमिल पड़ती चली जाती है।
यही भूल भारतीय जनमानस ने सन् 1977 में की थी, और यही भूल 1989 में दोहरायी गयी। यही चूक अन्ना आन्दोलन के दौरान हुई और यही चूक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में हुई। यही चूक सन् 2019 में कन्हैया कुमार के संदर्भ में वामपंथियों से हुई, और यही चूक आज कन्हैया कुमार के काँग्रेस में प्रवेश से उत्साहित काँग्रेसजन या कन्हैया-समर्थक कर रहे हैं। सच तो यही है कि वामपंथ और कन्हैया कुमार एक दूसरे को सँभाल नहीं पाए, और परिणाम सामने है, कन्हैया कुमार का काँग्रेस के पक्ष में खड़ा होना। यह स्थिति काँग्रेस के लिए बेहतर है क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, उसे पाना-ही-पाना है, थोडा ज्यादा या फिर थोडा कम। यह स्थिति कन्हैया कुमार के लिए बेहतर हो सकती है और बेहतर प्रतीत हो रही है, पर कितनी बेहतर होगी, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है जिसे आने वाला समय बताएगा। पर, वामपंथ और विशेष रूप से सीपीआई के लिए यह स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं है। रही बात मुझ जैसों की, तो उन्हें पता था की देर-सबेर यह तो होना ही था। पिता के श्राद्ध में बाल मुंडवाने से इनकार और चुनाव के वक़्त मंदिर में मत्थे टेकना, नोटबन्दी के समय माँ को लाइन में लगवाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना और खुद चुनावी लाभ के लिए माँ के इस्तेमाल की हरसंभव कोशिश, युवाओं की ऐसी टोली को तैयार करना जो उनके प्रति वफादार हो: ये तमाम बातें ऐसी आशंकाओं को जन्म ही नहीं दे रहे थे, बल्कि उसे पुष्ट भी कर रहे थे।
काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं:
सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ‘अपने भविष्य को लेकर चिन्तित’ कन्हैया का काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं है। हाँ, अब वह आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति का दावा नहीं कर सकता है। मेरी नज़रों में तो पहले भी नहीं कर सकता था। लेकिन, उसका काँग्रेस में जाना निस्संदेह जनवादी आन्दोलन के लिए एक झटका है, ऐसा झटका जिससे संभल पाना आसान नहीं होगा। यह उसके लिए एक सपने के टूटने की तरह है जिसकी कसक लम्बे समय तक बनी रहेगी। पर, अगर वामपंथ इस घटना को सकारात्मक नज़रिए से ले, तो यह उसके लिए आत्ममूल्यांकन का अवसर भी है कि क्या उसने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर व्यक्ति को तरजीह देकर सही किया था। ऐसे हज़ारों-लाखों कन्हैया फ़ील्ड में सक्रिय रहते हुए जनवादी आन्दोलन को मज़बूती दे रहे हैं। मेरी नज़रों में उनकी अहमियत और उनकी उपलब्धियाँ कन्हैया से कहीं अधिक मायने रखती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि वे कन्हैया की तरह ‘मीडिया-डार्लिंग’ नहीं हैं।
कन्हैया कुमार की ज़रुरत:
हर राजनीतिक दल की अपनी विशिष्ट संरचना और विशिष्ट प्रकृति होती है। जिस प्रकार संघ-परिवार के बिना भाजपा की कल्पना नहीं की जा सकती है और नेहरु-गाँधी परिवार के बिना काँग्रेस की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार वामपंथी दलों की भी अपनी विशिष्ट प्रकृति है। एक तो यह उन अपवाद राजनीतिक दलों में है जिसमें आतंरिक लोकतंत्र मौजूद है और जहाँ पार्टी संगठन में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर ऊपर जाना होता है; और दूसरे पार्टी-संगठन बुज़ुर्ग वहाँ पर भी कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं। जहाँ तक बेगूसराय की बात है, तो सीपीआई अब भी बिहार में कहीं पर बची हुई है और थोड़ा-बहुत प्रभाव रखती है, तो बेगूसराय में। वहाँ ट्रेड यूनियन भी मज़बूत है, और यह पार्टी की आय का प्रमुख स्रोत भी है जिस पर वामपंथी नेताओं की नज़र है।
यद्यपि पार्टी ने कन्हैया कुमार को एडजस्ट करने की हर संभव कोशिश की और उसकी महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने का प्रयास करते हुए पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थान भी दिया, तथापि कन्हैया कुमार की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने में वह असफल रही। इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि बेगूसराय के बुज़ुर्ग वामपंथी कन्हैया कुमार को वाकओवर देने के लिए तैयार नहीं थे, और कन्हैया कुमार फ्रीहैंड से कम पर मानने के लिए तैयार नहीं। अगर कन्हैया ने लोकसभा-चुनाव के समय उन्हें और पार्टी के कैडरों को साइडलाइन करने की हरसंभव कोशिश की, तो उन्होंने भी कन्हैया कुमार की हार को सुनिश्चित करने में कहीं कोर-कसर नहीं उठा रखा। दोनों के बीच यह अदावत विधानसभा-चुनाव के दौरान देखने को मिली। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि न तो कन्हैया पार्टी एवं उसके बुजुर्गों के साथ सहज रह गए और न ही पार्टी एवं उसके बुजुर्ग कन्हैया कुमार के साथ।
दूसरी बात यह कि कन्हैया ने आरम्भ से ही ऐसा लाइन लिया जो गैर-वामपंथी विपक्ष के साथ सहज महसूस कर सके और उसका स्टैंड गैर-वामपंथी विपक्ष के लिए असहज करने वाला न हो। इसे इस बात से भी बल मिला कि पिछले चुनाव के दौरान कन्हैया को अक्रॉस द पार्टी लाइन जाकर सहयोग एवं समर्थन मिला। साथ ही, कई लोगों को व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन वामपंथी दल से उसकी उम्मीदवारी के कारण उन्होंने कन्हैया को समर्थन देने और उसके लिए वोट करने से परहेज़ किया। इससे कन्हैया कुमार को यह लगा कि अगर वह सीपीआई का उम्मीदवार न होकर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ता, तो जीत सकता था। अब यह बात अलग है कि यह खुशफहमी ऐसी स्थिति पैदा होने पर टिक पाती अथवा नहीं, लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि कन्हैया कुमार को एक बड़े प्लेटफ़ॉर्म की तलाश है। जैसे ही इसके लिए उपयुक्त समय और उपयुक्त अवसर आया, कन्हैया कुमार सीपीआई का दामन छोड़कर काँग्रेस के नाव पर सवार हो गए। इससे इतना तो हो ही जाएगा कि कन्हैया कुमार को एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल जाएगा जहाँ से निकट भविष्य में शायद राज्यसभा का रास्ता भी खुले और काँग्रेस के प्रवक्ता के रूप में वे मीडिया कवरेज भी हासिल कर पाने में सफल हों। राजनीतिक भविष्य को लेकर जो अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही है और सत्ता का एक डर, जो उनके अन्दर कहीं गहरे स्तर पर विद्यमान है, वह डर दूर होगा अलग से।
वामपंथियों को लुभाता रहा है काँग्रेस:
ऐसा नहीं है कि यह स्थिति बेगूसराय में ही देखने को मिलती है। इस सन्दर्भ में वामपंथियों का लम्बा-चौड़ा इतिहास है। काँग्रेस तो वामपंथियों की सहोदर ही है। वामपंथियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन उसे हमेशा मिलता रहा है, और जेएनयू के वामपंथियों की तो काँग्रेस आश्रय-स्थली ही रही है। जैसा कि पुष्परंजन जी अपने आलेख ‘हिटलर के मुल्क में मार्क्सवादियों की जीत’ में लिखते हैं। सन् (1975-76) में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी ने एसएफआई से काँग्रेस और फिर काँग्रेस से एनसीपी तक की यात्रा तय की, तो जेएनयू में एसएफआई राजनीति से निकले डॉ. उदितराज (पूर्व नाम रामराज) ने भाजपा होते हुए काँग्रेस तक की यात्रा। इसी प्रकार चाहे शकील अहमद ख़ान (1992-93) की बात करें, या बत्ती लाल बैरवा की, या फिर नासिर अहमद की, इन लोगों ने जेएनयू के भीतर एसएफआई की राजनीति करते हुए अध्यक्ष के रूप में जेएनयू छात्रसंघ को नेतृत्व प्रदान किया, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन्होंने काँग्रेस का दमन थामते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने का काम किया। वहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता इन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पायी। अब, सवाल यह उठता है कि जब अल्ट्रा लेफ्ट सोच वाली आइसा से जेएनयू छात्रसंघ-अध्यक्ष रहे संदीप सिंह (2007-08) और मोहित के. पाण्डेय काँग्रेस में जा सकते हैं, तो कन्हैया कुमार तो फिर भी एआईएसएफ, जो वामपंथी संगठनों में सबसे अधिक उदारवादी सोच वाला छात्र संगठन है जो सीपीआई से सम्बद्ध है, से जुड़े रहे हैं।
काँग्रेस की ज़रुरत:
दरअसल, अगर काँग्रेस ने कन्हैया को प्राथमिकता दी है, तो इसका कारण यह है कि वह कन्हैया कुमार की मोदी-विरोधी छवि, उनकी वाकपटुता, पढ़े-लिखे युवाओं के बीच उसके क्रेज़ और उसकी अखिल भारतीय अपील को भुनाना चाहती है। साथ ही, कन्हैया कुमार के आने से काँग्रेस को नयी पीढ़ी का ऐसा नेता मिलेगा जिसकी मास-अपील है और जिसके सहारे काँग्रेस बिहार में अपने मृतप्राय संगठन में जान फूँकना चाहती है। इतना ही नहीं, काँग्रेस कन्हैया कुमार के सहारे एक बार फिर से सवर्ण मतदाताओं पर नज़र गराए हुए है और उसे लगता है कि पिछले तीन दशकों से हाशिये पर खड़े सवर्ण समुदाय के लिए कन्हैया कुमार उनके राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्स्थापना में सहायक साबित हो सकते हैं। इससे ऐसा लगता है कि काँग्रेस बिहार में अपने रिवाइवल को लेकर गम्भीर है, लेकिन उसकी दुविधा महागठबंधन की ज़रुरत और काँग्रेस एवं कन्हैया कुमार को लेकर राजद के रवैये को लेकर है।
काँग्रेस देश की ज़रुरत:
मैं कन्हैया की इस बात से सहमत हूँ, यह कहना तो उचित नहीं है क्योंकि मैं ये बातें लम्बे समय से कह रहा हूँ। मेरा मानना है कि “देश को बचाने के लिए काँग्रेस को बचाना होगा।” जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो मेरे लिए काँग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं होता। अपनी तमाम कमियों के बावजूद, मेरे लिए काँग्रेस भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, उस सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का, जिसके केन्द्र में सहिष्णुता और समन्वय का भाव मौजूद है, जो भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति संवेदनशील है तथा जो अपनी मूल प्रकृति में समावेशी है। आज सत्ता-प्रायोजित असहिष्णुता और उसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायीकरण ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के समक्ष ऐसे चुनौतियाँ उपस्थित की हैं जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता पर भी भरी पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में इस सोच के खिलाफ ज़ंग किसी भी देशभक्त की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
विचारधारा की राजनीति के भ्रम से मुक्त हो वामपंथ:
कन्हैया कुमार के इस निर्णय से वामपंथी सकते में हैं, और आलम यह है कि उन्होंने कन्हैया के विरुद्ध मोर्चा तक खोल दिया है। उसे समझौतावादी से लेकर अवसरवादी तक साबित करने की हरसंभव कोशिश हो रही है। वामपंथियों को अगर इस बात की गलतफहमी हो कि वे और उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ‘विचारधारा की राजनीति’ करते हैं, वे इस गलतफहमी को अपने दिमाग से बाहर निकल दें। इस प्रकार की सोच अतिवाद की ओर ले जाती है। इसी सोच का परिणाम है कि जब बेगूसराय के रास्ते कन्हैया कुमार का राजनीति में प्रवेश हुआ, तो उन्होंने कन्हैया के चरित्र एवं व्यक्तित्व को रोमांटिसाइज़ करते हुए उसे ‘मोदी के वामपंथी अवतार’ में तब्दील ही कर दिया और मुद्दों को दरकिनार करते हुए व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति की दिशा में ठोस पहल की; और अब जब कन्हैया कुमार वामपंथ का दामन छोड़कर काँग्रेस में शामिल हो चुका है, तो उसे खलनायक साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। आखिर इस बात की अनदेखी क्यों की जा रही है कि आज के दौर की राजनीति विचारधारा से परे जा चुकी है, और जो भी लोग विचारधारा की राजनीति कर रहे हैं, वे या तो हाशिये पर धकेले जा चुके हैं या धकेले जा रहे हैं। यह खुद वामपंथी राजनीति की भी वास्तविकता है, अन्यथा शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की अनदेखी कर लोकसभा-चुनाव,2014 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह और लोकसभा-चुनाव,2019 में कन्हैया कुमार को उम्मीदवार नहीं बनाया जाता। क्या यह सच नहीं है कि शत्रुघ्न बाबू की जगह राजो दा को टिकट दिलवाने में सूरजभान, शत्रुघ्न बाबू के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता और उसकी धन-बल की राजनीति की अहम् भूमिका रही? क्या यह सच नहीं है कि पिछले चुनाव में सीपीआई कैडर की उपेक्षा करने की कन्हैया कुमार को खुली छूट दी गयी? खुद बेगूसराय की राजनीति में भोला बाबू और सुरेन्द्र मेहता जैसे लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सीपीआई का दामन नहीं छोड़ा? क्या यह सच नहीं है कि हालिया सम्पन्न बिहार विधानसभा-चुनाव में मटिहानी से सीपीएम उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह की हार में पूर्व सीपीआई विधायक राजेन्द्र राजन जी के चकवार-प्रेम और बछवाड़ा से सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय की हार में सीपीएम के रामोद कुँवर के भाजपा उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता के प्रति प्रेम की अहम् भूमिका रही? उस समय तो वैचारिक प्रतिबद्धता का ख्याल नहीं रहा। अब सवाल यह उठता है कि यह दोगलापन कब तक चलेगा कि जब तक कोई सीपीआई में है, तो उदार, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील है; और अगर किसी दूसरे दल में, तो प्रतिक्रियावादी, समझौतावादी और कम्युनल?
बदलते परिवेश और बदलती सोच को समझने की ज़रुरत:
दरअसल, वामपंथी विचारधारा से काँग्रेस की निकटता और उसके भीतर पारंपरिक रूप से मज़बूत सेंटर लेफ्ट की मौजूदगी, जो पिछले तीन दशकों के दौरान कमजोर पड़ी है, अपनी भूलों के कारण वामपंथ का निरन्तर कमजोर पड़ते चला जाना, वामपंथी दलों पर बुजुर्गों के वर्चस्व के कारण युवाओं के सीमित स्पेस, छात्र नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इसकी पृष्ठभूमि में अखिल भारतीय उपस्थिति एवं प्रभावशीलता के कारण काँग्रेस में बेहतर राजनीतिक भविष्य की सम्भावना इस प्रवृत्ति को उत्प्रेरित करती है। वामपंथी दलों को भी इस सच्चाई को स्वीकारना होगा और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वे बदलते हुए हालात और बदलती हुई सोच को समझने के लिए तैयार नहीं हो जाते। उन्हें समाज में मूल्यों एवं वैचारिकता के क्षरण को भी समझना होगा और इस बात को भी समझना होगा कि प्रबल राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार युवा अपनी बारी की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके पास समय नहीं है और उन्हें कम समय में बहुत कुछ हासिल करना है। वे विचारधारा के नाम पर अपनी भविष्य की संभावनाओं से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सबके मूल में मौजूद है वह दबाव, जो पिछली तीन दशकों के दौरान पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण सृजित हुआ है और जिसने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों और नैतिकताओं को तहस-नहस कर दिया है। इतना ही नहीं, वामपंथ को लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए सत्ता की राजनीति की बजाय दबावकारी समूह की राजनीति को प्राथमिकता देनी चाहिए, और उन लोगों एवं उन दलों को भी भरोसे में लेना चाहिए जिनकी प्रतिबद्धता भले ही वामपंथी विचारधारा के प्रति नहीं है, पर जो वामपंथी सरोकारों से इत्तफाक रखते हैं। इस मोर्चेबन्दी को मज़बूत करते हुए वामपंथ को सड़क की राजनीति पर और अधिक फोकस करना चाहिए क्योंकि एक तो अन्य गैर-भाजपा दल सुविधाभोगी होने के कारण सड़क की राजनीति भूल चुके हैं और दूसरे, डॉ. लोहिया ने कहा है: “जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है।” तमाम सीमाओं के बावजूद वामपंथ की खासियत इस बात में है कि यह कैडर-आधारित पार्टी है और इसके अधिकांश कैडर, कुछ हद तक वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ सड़क की राजनीति में विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में नियति ने भारतीय वामपंथियों पर ऐतिहासिक दायित्व के निर्वाह की जिम्मेवारे सौंपी है जिससे वे मुँह नहीं मोड़ सकते हैं।
बहुत कठिन है डगर पनघट की:
जहाँ तक कन्हैया कुमार के राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है, तो कन्हैया के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होने जा रहा है। इसका कारण यह है कि उन्होंने वामपंथी दलों की अदावत मोल ली है जिसके लिए शायद वामपंथी उन्हें माफ़ नहीं करें, और इसकी कीमत देर-सबेर उन्हें चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में कन्हैया ने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता गँवाते हुए अपनी राजनीतिक पूँजी को दाँव पर लगाया है। इस क्रम में उनकी छवि अवसरवादी राजनेता वाली बनी है और इसके कारण यह सन्देश गया है कि वे भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही हैं। इसके कारण वे लोग उनसे दूर छिटकेंगे जो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहते हुए वैकल्पिक संभावनाओं की पड़ताल कर रहे थे।
टिपिकल राजनीतिज्ञ हैं कन्हैया कुमार:
यह कहने, कि कन्हैया कुमार टिपिकल राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर हैं, की तुलना में यह कहना कहीं अधिक उचित है कि कन्हैया कुमार में आरम्भ से ही टिपिकल राजनीतिज्ञ के लक्षण मौजूद रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में उनकी जीत ही संभव नहीं हो पाती। सन् 2016 में ही क़रीब जेएनयू वाली घटना के 6-7 माह बाद बाप्सा के नौ सदस्यों को, जो दलित समुदाय से आते थे, को जेएनयू से निलम्बित किया गया था, कन्हैया सहित तमाम तथाकथित प्रगतिशील और उदारवादी ताक़तों ने निलम्बन के मसले पर उनका साथ देने से इनकार करते हुए ‘जय भीम, लाल सलाम’ नारे को ‘सार्थक’ बनाया। कुछ ऐसे ही हालात बेगूसराय में दिखे, जब पूर्व एमएलसी उषा साहनी को कोई पूछने वाला तक नहीं था, जबकि वे उस सभा में सीपीआई की वरिष्ठतम नेत्री थीं और उस सेमीनार में प्रमुख वक्ता के रूप में कन्हैया कुमार मंच पर विराजमान थे। लोकसभा-चुनाव के बाद होने वाली हिंसा में तीन वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, लेकिन कन्हैया कुमार ने मृतकों के घर जाकर उनके प्रति संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता नहीं महसूस की। ये सारे प्रकरण एक दौर में रूमानी नायक में तब्दील हो चुके कन्हैया कुमार के टिपिकल राजनीतिज्ञ होने की ओर इशारा करते हैं।
कन्हैया की समस्या:
श्याम विज सही ही लिखते हैं, “लोग कहते हैं कि कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कन्हैया कुमार की समस्या यही है कि वह महत्वाकांक्षी नहीं है।” अगर कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी होते, तो इससे देश एवं समाज का भी भला होता, और खुद उनका भी भला होता। दरअसल, कन्हैया की समस्या यह है कि उसकी महत्वाकांक्षा का दायरा अत्यन्त सीमित है। वह येन-केन-प्रकारेण संसद तक पहुँचने की चाह रखता है, उससे अधिक कुछ नहीं; जबकि उसके सामने खुला मैदान है। लेकिन, इसके लिए उसे मीडिया की चकाचौंध से और इसके द्वारा मिलने वाली सस्ती लोकप्रियता की चाह से मुक्त होना होगा। उसे व्हाट्स एप्प, फेसबुक और ट्वीटर की मायावी दुनिया से बाहर निकलकर ज़मीन पर उतरकर राजनीति करनी होगी, अपने कोम्फोर जोन से बाहर निकलना होगा और अनकम्फर्ट जोन में प्रवेश के लिए तैयार होना होगा। लेकिन, अबतक इसके लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हैं। अबतक उसने बने-बनाये प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल किया है, हर वह काम किया है जो मीडिया में फुटेज दिला सके और इस काम में उसे सवर्णवादी मीडिया का पूरा-पूरा साथ मिला है। यहाँ तक कि उसने उस मूल एजेंडे से समझौते भी किए हैं और उन लोगों की अनदेखी करते हुए उनकी उपेक्षा की है, उनका तिरस्कार तक किया है जो संघर्ष के दिनों में उसके साथी रहे हैं और जिन्होंने उस समय उसका साथ दिया जिस समय कन्हैया कुमार के साथ लोग खड़े होने से परहेज़ कर रहे थे। जेएनयू से लेकर बेगूसराय तक, एआईएसएफ से लेकर सीपीआई तक के उसके साथी एवं कैडर इसके साक्षी हैं।
एर्रोगेंस से मुक्ति पाने की ज़रुरत:
इतना ही नहीं, कन्हैया कुमार की छवि भी उनकी मुश्किलों को बाधा रही है। दिल्ली से बेगूसराय और पटना तक, छात्र-जीवन से राजनीतिक जीवन तक कन्हैया के एर्रोगेंस की किस्से सुने जा सकते हैं। दरअसल, कन्हैया जितना डिजर्व करता था, उसे उससे कहीं बहुत अधिक मिला। वह अपनी इस सफलता को पचा नहीं पा रहा है। इसने उसे एर्रोगेंट बनाया, और उस एर्रोगेंस के कारण उसने बहुत कम समय में अपने दोस्तों और शुभचिंतकों को खोया है। आज कन्हैया के प्रति सहानुभूति एवं समर्थन रखने वालों को सुदर्शन की ‘हार की जीत’ कहानी के बाबा भारती की बात याद आ रही होगी, और एक ही प्रश्न उनके मानस-पटल पर बार-बार कौंध रहा होगा: ‘अब कोई किसी ‘कन्हैया’ पर कैसे विश्वास करेगा? अब इस तरह से विश्वास करना मुश्किल होगा।”
मुस्लिम-परस्त छवि से छुटकारा पाने की चुनौती:
अबतक कन्हैया की छवि प्रो-मुस्लिम की रही है, और उन्होंने बेगूसराय चुनाव के दौरान जो रवैया अपनाया, उससे उनकी यह छवि और भी अधिक मज़बूत हुई है। उनकी इस छवि को मज़बूत करने में उनके विरोधियों की भी अहम् भूमिका रही, और सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मसले पर होने वाले आन्दोलन में उनकी सक्रियता ने इसे और अधिक पुष्ट किया है। उन्हें ये बातें समझनी होंगी कि सिर्फ मुसलमानों एवं दलितों के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। दलित वोटबैंक के तो पहले से ही कई दावेदार हैं, और अब तो यह बिखर चुका है। रही बात मुस्लिम वोटबैंक की, तो दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार, इसके कारण मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़, समाज एवं राजनीति में मुस्लिमों के हाशिये पर चले जाने के अहसास और इसकी पृष्ठभूमि में ओवैसी के राजनीतिक उभार के कारण आने वाले समय में उसमें भी बिखराव आने जा रहा है। आने वाले समय में उन्हें ज़मीनी स्तर पर राजनीति करते हुए अपना जनाधार भी विकसित करना होगा और काँग्रेस संगठन को मजबूती प्रदान करते हुए बिहार में मृतप्राय काँग्रेस में जान भी फूँकनी होगी, अन्यथा वे इतिहास के बियाबान में कहाँ खो जायेंगे, पता भी नहीं चलेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें, और इस बात को पुष्ट करें कि उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ सीखा भी है। काँग्रेस में जाने का निर्णय उनकी राजनीतिक परिपक्वता की ओर भी इशारा करता है और इस बात की ओर भी कि वे फूँक-फूँक कर कदम रख रहे हैं, लेकिन इसी दौरान उन्होंने ऐसे काम भी किये हैं जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता पर सवालिया निशान लगते हैं। अब, जब कन्हैया काँग्रेस के साथ जुड़कर अपनी नयी राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे हैं, उन्हें इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए कि वे अब राजनीति के नौसिखुआ नहीं हैं।
इतना ही नहीं, समस्या कन्हैया कुमार की छवि, उसके रवैये और उसकी कार्यशैली के कारण भी है। पहली बात यह कि कन्हैया कुमार की कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि, ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा और उनकी मुस्लिम-परस्त छवि इसमें बाधक बन सकती है। इतना ही नहीं, बड़े सलीके से उनकी सवर्ण-विरोधी छवि और हिन्दू-विरोधी छवि भी निर्मित की गयी। उसके पिता के श्राद्ध में बाल नहीं मुंडवाने को मुद्दा बनाया गया। लोकसभा-चुनाव के समय कोरई गाँव की घटना को अंजाम दिया गया और इसका इस्तेमाल उन्हें सवर्ण-विरोधी साबित करने के लिए किया गया। पिछले लोकसभा-चुनाव में यही छवि बेगूसराय से कन्हैया कुमार की जीत में बाधक बनी थी। दूसरी बात यह कि सीपीआई का सदस्य रहते हुए कन्हैया कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे ऐसा लगता हो कि संगठन को मजबूती प्रदान करने में उसकी कोई रूचि है, जबकि उसके पास इसके बेहतर अवसर उपलब्ध थे। तीसरी बात यह कि कन्हैया कुमार अहमन्यता के शिकार हैं, और इसी कारण उन्हें यह लगता है कि उनका मुकाबला सिर्फ और सिर्फ मोदी से है। यह अहसास उन्हें ज़मीनी स्तर की राजनीति से दूर रख रहा है जिसके बिना न तो कन्हैया कुमार की महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है और न ही वे काँग्रेस की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कन्हैया कुमार कहाँ तक पूर्व की अपनी गलतियों से सीखते हुए राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हैं और अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं? इसकी अपेक्षा तो नहीं के बराबर है, पर तब तक कन्हैया को उनके उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के लिए शुभकामनाएँ तो दी ही जा सकती हैं।
लेखक –कुमार सर्वेश