मम्मी तो बस डांटती थीं, किसका बच्चा पेट में ले आई हो, लेकिन हमें तो चार महीने तक पता नहीं था कि मेरे पेट में बच्चा है.” बिहार की राजधानी पटना के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाली एक आदिवासी लड़की का ये दर्द है. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली 14 साल की ये बच्ची संथाल आदिवासी समाज से आती है. इसके पिता सरकारी नौकरी में हैं और इस बच्ची के साथ दुष्कर्म का आरोपी भी उसी विभाग में नौकरी करता है.
क्या हुआ था? यह पूछने पर बहुत सुंदर हैंडराइटिंग में लिखने वाली ये बच्ची कहती है, “मैं तो उसको भैया-भैया कहती थी. दिसंबर (साल 2020) में दोपहर को घर के बाहर मैं अपने दो दोस्तों के साथ खेल रही थी. इतने में वो आया और हमको किसी काम का बहाना बनाकर अपने घर ले गया. वहां उसने मुझे बांध दिया और सारे कपड़े खोल कर गंदा काम किया. थोड़ी देर बाद उसने मुझसे कहा कि मैं ये बात किसी से न कहूं और भगा दिया.”
सात भाई-बहनों में से एक ये बच्ची बताती है कि फिर उसे महीने (मासिक) आने बंद हो गए. धीमी आवाज में वो रूक-रूक कर कहती है, “मार्च में मम्मी ने पूछा कि तुम्हारे महीने क्यों नहीं आ रहे हैं? मम्मी ने उसके बाद एक स्ट्रिप लाकर दी. और जांचने को कहा. उससे पता चला मेरे पेट में बच्चा था. बाद में जून में हमें बड़े अस्पताल ले जाकर डीएनए टेस्ट हुआ और उसके बाद बच्चा मार दिया गया. मुझे चार दिन तक बहुत दर्द हुआ. उसके बाद ठीक हो गई.”
दुष्कर्म के आरोपी गिरफ्तार युवक की मां फिलहाल अपने घर में अकेले रह रही है. वो अपना नाम नहीं बताना चाहतीं, लेकिन गुस्से और गम में कहती हैं, “बच्ची के साथ गलत हुआ है लेकिन मेरे लड़के का कोई दोष नहीं. और हमको तो कुछ मालूम नहीं था. जब उसे पुलिस वाले लेने आए तब पता चला.”
राजधानी पटना में इससे पहले भी साल 2018 में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा का गर्भपात कराया गया था. छात्रा के पेट में जब दर्द उठा, उसके बाद ही परिजनों को पता चल पाया कि उनकी बच्ची गर्भवती है. इस बच्ची का डीएनए टेस्ट कराके गर्भपात करा दिया गया था.
राजधानी पटना में इस तरह के अपराध कि शिकार नाबालिग बच्चियों के स्वास्थ्य और उनके गर्भपात को लेकर थोड़ी संवेदनशीलता बनी रहती है. प्रशासन पर भी ‘दबाव’ रहता है. लेकिन बिहार के दूर-दराज के जिलों में क्या हालात बदतर हैं. इस रिपोर्ट में हम ऐसी ही पीड़िताओं की बात करेंगे.
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की महासचिव मीना तिवारी कहती हैं, “राजधानी पटना और बिहार के दूसरे इलाकों में एक तरह का विभाजन है. पटना में चूंकि महिला संगठन व अन्य तरह के दबाव हैं इसलिए यहां सरकारी मशीनरी थोड़ी ज्यादा सक्रिय और संवेदनशील दिखती है. लेकिन छोटी जगहों पर जहां शादी ही अंतिम व जरूरी चीज है वहां समाज, पुलिस और इंस्टीट्यूशन बहुत असंवेदनशीलता से व्यवहार करते हैं. अगर इसे संपूर्णता में देखें तो बिहारी समाज और राजनीति के सामंती तत्व इसके केंद्र में हैं.”
उम्र- 13 साल, वजन- 36 किलो, बच्चा- 3.2 किलो
मीना तिवारी जो बात कह रही हैं दरअसल उसी असंवेदनशीलता का नतीजा है कि कई बार नाबालिग दुष्कर्म की शिकार बच्चियों को न चाहते हुए भी अपने अनचाहे गर्भ को जन्म देना पड़ता है. समस्तीपुर की संगीता उनमें से एक हैं.
उसने साल 2016 में एक बच्चे को जन्म दिया था. तब उसकी उम्र महज 13 साल थी. प्रसव के वक्त उसका खुद का वजन 36 किलो था. अपने इस वजन के साथ वो 3.2 किलो का बच्चा अपने गर्भ में ढोती रहीं. उस वक्त पटना के एक होम में रह रही संगीता, अपने उस अनचाहे बच्चे को न तो दूध पिलाना चाहती थी और ना ही उसका चेहरा देखना चाहती थी. सरकारी कांउसलर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “इस मां का अपने बच्चे से कोई लगाव नहीं.”
घटना के छह साल बाद ‘नाबालिग से वयस्क’ हो चुकी संगीता की अपने बच्चे के प्रति बेरूखी कायम है. वो अब बेगूसराय जिले के एक सरकारी होम में है. बाल कल्याण समिति, समस्तीपुर की सदस्य लीना कुमारी बताती हैं, “उसके परिवार का कोई व्यक्ति मिलने नहीं आता. वो खुश रहती है, लेकिन वो अपने बच्चे को अब भी नहीं देखना चाहती. हम लोगों ने समाज कल्याण विभाग को चिठ्ठी लिखकर ये पूछा है कि बच्चे को अब कहां शिफ्ट किया जाएं.”
संगीता का अपना जीवन भी बिना मां के ही गुजरा है. वो छोटी थीं जब उनकी मां गुजर गई. चाची ने पाला है. लेकिन घर और अपने छोटे भाई बहनों को संभालने की जिम्मेदारी भी थी. उसके साथ दुष्कर्म की वारदात तब हुई जब वो अपनी घरेलू जिम्मेदारी निभा रही थी. गांव के ही एक लड़के ने अपने पिता को खाना पहुंचाने जा रही संगीता के साथ दुष्कर्म किया. डरी सहमी संगीता घर वापस आ गई लेकिन एक दिन उसके पेट में तेज दर्द उठा. उसकी चाची, उसे डॉक्टर के पास ले गई जहां मालूम चला कि वो गर्भवती है.
शादी कौन करेगा? गर्भपात की अनसुनी अर्जियां
समस्तीपुर बाल कल्याण समिति के तत्कालीन अध्यक्ष तेजपाल सिंह बताते हैं, “मैंने उस वक्त समस्तीपुर सिविल सर्जन को लगातार चिठ्ठी लिखी कि मेडिकल बोर्ड बैठाकर संगीता के गर्भपात पर फैसला लें. सिविल सर्जन को मालूम ही नही था कि बाल कल्याण समिति क्या है. हम दोनों के बीच पत्राचार इतना लंबा चला कि मजबूरन उसका प्रसव कराना पड़ा. बाद में तो उसके घरवालों ने उसे ये कहकर ले जाने से इंकार कर दिया कि अब उससे शादी कौन करेगा?”
‘उससे शादी कौन करेगा’ ये ठीक वहीं सवाल था जो साल 2019 में कैमूर जिले में एक 16 साल की गर्भवती नाबालिग बच्ची के पिता ने पूछा था. हिंदुस्तान टाइम्स में अगस्त 2019 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक उस बच्ची ने कैमूर के सदर अस्पताल में एक बच्चे (लड़की) को जन्म दिया था. जिसके बाद उसके पिता ने पूछा था, “कौन मेरी लड़की से शादी करेगा, अगर उसके पहले से ही बच्चा हो.”
तत्कालीन बिहार राज्य महिला आयोग की सदस्य निक्की हैम्ब्रम जो इस केस को मॉनीटर कर रही थीं, वह बताती हैं, “जांच के दौरान ये पाया गया था कि ये मामला प्रेम प्रसंग का है. लेकिन महत्वपूर्ण बात ये थी कि बच्ची और उसका परिवार चाहता था कि गर्भपात हो जाए. लेकिन सरकारी कामकाज इतने ढीले तरीके से होता है कि बच्चियों को मजबूरन बच्चा पैदा करना ही पड़ता है.”
कैमूर की पीड़िता के पिता की बात को छोड़ दें तो ऐसे मामलों में भी शादियां होती हैं. ये दीगर बात है कि कभी दुष्कर्म और गर्भवती होने की बात छिपाकर शाददी कर दी जाती है तो कभी किसी ऐसे लड़के से शादी हो जाती है जो शारीरिक या अन्य तौर पर कमतर होता है. ऐसी शादियों में मां-बाप इसी का शुक्र मनाते हैं कि उनकी बेटी की शादी हो गई।
सुयशी सीतामढ़ी की रहने वाली 21 साल की सुयशी की मां कहती हैं, “बड़ी मेहरबानी हुई कि मेरी बच्ची की शादी खाते-पीते घर में हो गई. वरना उससे शादी कौन करता?”
बच्चा पैदा होगा, तभी तो इंसाफ मिलेगा
लेकिन क्या सुयशी के जीवन की खुशी भी उसकी मां के सुकून में है. सुयशी कहती हैं, “हमारी शादी तो अम्मा ने विकलांग आदमी से कर दी है. चार हजार रूपए चंदे के तौर पर जुटाए और लड़के के गांव जाकर ही शादी कर दी. अम्मा ने इनको (पति) कुछ नहीं बताया. बस हमारी शादी की, और घर में पहनने वाले कपड़ो में हमें विदा कर दिया.”
सुयशी अपनी पहचान छुपाने के लिहाज से हमसे अपने घर से दूर एक हाईवे पर मिलीं. उनके पति व्हील चेयर के सहारे अपने घर से 1.5 किलोमीटर दूर स्थित बाजार जाकर लहठी (एक तरह की चूड़ी) बनाते हैं और बहुत कमाई वाले दिनों में भी महज छह-सात हजार रुपए कमाते हैं.
सीतामढ़ी में भारत नेपाल बार्डर पर बसे एक गांव की रहने वाली सुयशी को मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ था. उसका दुष्कर्म शादी का प्रलोभन देकर 15 साल की उम्र में किया गया था. वो बताती हैं, “मैं जिसके यहां काम करती थी, उसने कहां शादी कर लेंगे तुमसे. फिर मेरे बच्चा ठहर गया तो मारपीट कर भगा दिया. इस मारपीट में बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ.”
सुयशी को लेकर गांव में पंचायत बैठी थी. लेकिन जब पंचायत का फैसला आरोपी ने नहीं माना तो मामले में एफआईआर हुई. इस मामले में सीतामढ़ी व्यवहार न्यायालय ने आरोपी के घर की कुर्की जब्ती का आदेश दिया है.
क्या सुयशी बच्चा पैदा करना चाहती थीं? इस सवाल पर वो कुछ देर चुप रहकर आहिस्ता से कहती हैं, “बच्चा पैदा होगा, तभी तो इंसाफ मिलेगा. बस इसलिए बच्चा चाहते थे. अब तो उसका डीएनए भी नहीं करा सकते. उस वक्त मेरे भाई थाने में मेरा मरा हुआ बच्चा लेकर गए थे. लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया. भैया उसको जमीन में गाड़ दिए.”
सामूहिक बलात्कार और डीएनए
बिहार के गांवों में होने वाली इस तरह की घटनाओं में ज्यादातर मामले थाने नहीं जाते. इन मामलों में पहले ग्रामीण स्तर पर ही पंचायत बैठती है. जिसमें कभी दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाकर तो कभी लड़के–लड़कियों की शादी कराकर मामले को निपटा दिया जाता है. लेकिन जब पंचायत के स्तर पर ये मामले नहीं सुलझते तो पीड़ित पक्ष स्थानीय थाने का दरवाजा खटखटाता है.
लेकिन यहां भी अहम सवाल है कि सामूहिक बलात्कार के मामलों में जहां चार पुरूषों पर दुष्कर्म का आरोप हो और पीड़ित बच्ची गर्भवती हो जाएं, वहां क्या किया जाएं?
पूनम, शादी के बाद हुए अपने बच्चे के साथ पूनम की जिंदगी के कई साल इसी तरह के सामूहिक बलात्कार और अपने गर्भ में पले बच्चे के भविष्य की कश्मकश में गुजर गए. उसके साथ एक अंधेरी शाम को गांव के ही कुछ पुरूषों ने सामूहिक दुष्कर्म किया था. जब चार महीने तक पीरियड्स नहीं आए तो पूनम की मां ने उसकी गर्भावस्था की जांच करवाई. पूनम के पिता के दबाव में गांव में पंचायत बैठी और ये तय हुआ कि दो लाख रुपए का मुआवजा देकर मामला खत्म किया जाए.
पूनम की मां बताती हैं, “ये लोग चाहते थे कि बच्चे को मार दें. हम क्यों मार दें बच्चे को? मैंने उसे अपने बच्चे की तरह पाला. पूनम को तो बच्चा पैदा करके भी कोई होश नहीं था. वो खेलती कूदती रहती थी. हम उसे पकड़कर लाते थे कि बच्चे को दूध पिलाओ. बाद में हम लोगों ने पूनम की शादी कर दी लेकिन बच्चा अपने पास रख लिया.”
पंचायत के फैसले से नाखुश पूनम के परिवार ने मामला स्थानीय थाने में दर्ज कराया. पेशे से वकील लक्ष्मण मंडल ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क के सीतामढ़ी जिला समन्वयक हैं. वो बताते हैं, “ये जिले में पहला मामला था जब डीएनए टेस्ट कराया गया था. इस टेस्ट से ये पता चलता है कि बच्चा किसका है. लेकिन तत्कालीन सिविल सर्जन की निगरानी में भी डीएनए का सैंपल ठीक से नहीं लिया गया.”
इस मामले में फिर से डीएनए सैंपल लिया गया है, लेकिन इस बीच पूनम के बच्चे का अपहरण हो गया. पूनम कहती है, “मेरे साथ दुष्कर्म करने वालों ने ही मेरे बच्चे का अपहरण किया है. हम अपनी ससुराल से तीन महीने में एक बार बच्चे से मिलने आ जाते थे. मेरी जो शादी हुई उससे भी दो बच्चे हैं, लेकिन मुझे अपने पहले बच्चे की भी याद आती है.”
इस मामले में एक आरोपी जो पूनम के घर के पास ही किराने की दुकान चलाता है, वो कहता है, “इन लोगों ने अपने बच्चे का अपहरण खुद कराया है. इनके सारे इल्जाम झूठे हैं.”
शहरी जीवन और प्रगतिशील समाज की सोच से इतर बिहार के ग्रामीण समाज को उसके सोचने विचारने के तरीके से देखने पर इस समस्या को सही तरीके से समझा जा सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता और पंचायत स्तर पर लंबे समय से काम कर रही शाहीना परवीन इस समस्या की कई परतें बताती हैं.
वो कहती हैं, “पहला तो ये कि ग्रामीण बिहार में अभी भी ये टैबू है कि जिस पुरूष से महिला गर्भवती होती है उसी से वो शादी करना चाहती है. दूसरा ये कि प्रेग्नेंसी टेस्ट किट आदि की उपलब्धता आसान हुई है लेकिन अबॉर्शन सेंटर अभी भी बहुत कम हैं. तीसरा इन मामलों में अगर आप कानून की मदद लेते हैं तो अबॉर्शन मुश्किल हो जाता है, इसलिए भी लड़की वाले गांव की पंचायतों के पास ये मामले ले जाते हैं. बाकी जाति और आर्थिक पक्ष से भी इन मामलों को देखा जाना चाहिए जहां कभी-कभी प्रेगनेंसी सामाजिक दबाव का एक हथियार भी बन जाती है.”
इन मामलों में सरकार पीड़ित पक्षों के लिए किस तरह राहत देती है. इस सवाल पर बिहार राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की संयुक्त सचिव धृति जसलीन शर्मा बताती हैं, “प्रत्येक राज्य में विक्टिम कंपनसेशन योजना बनी हुई है. इस योजना के अंतर्गत यदि कोई बच्ची यौन शोषण के चलते गर्भवती हो जाती है तो उसको मुआवजे का प्रावधान है.”
बिहार राज्य में तकरीबन डेढ़ साल से राज्य महिला आयोग का पुनर्गठन नहीं हुआ है. ऐसे में इन मामलों की पीड़िताओं के लिए मुश्किलें और बढ़ गई हैं. इस बीच केंद्र सरकार ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधित) के तहत दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं के लिए गर्भपात की अवधि 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दी है.
लेकिन क्या ये बिहार जैसे सामंती और प्रशासनिक रूप से लचर राज्य की दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए राहत की बात है? राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य निक्की हैम्ब्रम कहती हैं, “ये ठीक है कि सरकार ने कुछ हफ्ते बढ़ा दिए लेकिन मेरे ख्याल से हफ्ते बढ़ाने से ज्यादा जरूरत इस बात की होनी चाहिए कि प्रशासन का ढीला रवैया ठीक किया जाए. एक बार वो ठीक हो जाएगा तो बहुत सारी बातें दुरूस्त हो जाएंगी. हमारी बच्चियां इस अनचाहे गर्भ के ट्रामा और भार से बच जाएगीं.”
(रिपोर्ट में सभी दुष्कर्म पीड़िताओं और परिजनों के नाम बदल दिए गए हैं.)
यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फांउडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है
लेखक –सीटू तिवारी