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छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर तीसरे चरण का चुनाव शांतिपूर्ण सम्पन्न लगभग 60 प्रतिशत हुई है वोटिंग

छिटपुट घटनाओं को छोड़ दे तो बिहार पंचायत चुनाव का तीसरा चरण शांतिपूर्ण ढ़ग से सम्पन्न हो गया ।हालांकि कई जिलों में मतगणना केंद्रों पर अभी वोटिंग चल रही है। लाइन में लगे सभी मतदाता वोटिंग कर रहे हैं। दो जगह पुनर्मतदान होगा और 200 सौ से अधिक उपद्रवियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है

हलाकि तीसरे चरण की वोटिंग के दौरान कई जिलों में हल्की झड़प हुई। भोजपुर के जंगल महाल पंचायत के बूथ नंबर 112 पर दो प्रत्याशियों के समर्थकों के बीच झड़प हो गई। विवाद के बाद हुई मारपीट में 2 लोगों का सिर फटा गया। इसके बाद बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों को तैनात कर दिया गया था। वहीं, नालंदा के नगरनौसा प्रखंड के खजुरा पंचायत के बूथ नंबर 19 पर थानाध्यक्ष नारद मुनी की गाड़ी पर ही लोगों ने पथराव कर दिया। इस मामले में पुलिस ने 4 लोगों को गिरफ्तार किया।दरभंगा जिले के बहेड़ी प्रखंड की हावीडीह उत्तरी पंचायत के बसकट्टी गांव में बूथ संख्या 233 पर गड़बड़ी फैलाने के आरोप में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया।

पंचायत चुनाव बिमार काका जी वोट देने पहुंचे हैं आक्सीजन सिलेंडर

इस बीच मीडिया से बात करते हुए राज्य निर्वाचन आयुक्त ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि समस्तीपुर के उजियारपुर के वार्ड नंबर 8 में फिर से वोटिंग होगी आज 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया इस बार भी महिलाओं ने पुरुष से ज्यादा वोट डालें कुछ स्थानों पर अभी भी मतदान चल रहा है ।बायोमेट्रिक की व्यवस्था सफल हुई मुजफ्फरपुर के मुरौल में वार्ड नंबर 4 में दोबारा मतदान होगा और राज्य निर्वाचन आयुक्त ने मतदान केंद्रों पर कोविड-प्रोटोकॉल का पालन नहीं होने मामले में कहा कि इस मामले को मैं खुद अपने स्तर से देख लूंगा और आगे इसको लेकर के व्यवस्था की जाएगी इस चरण में बोगस मतदान नहीं हुए हैं।

नाव पर चढ़कर लोग वोट देने पहुंचे

अभी तक जो जानकारी मिल रही उसके अनुसार लगभग 60 प्रतिशत वोटिंग होने की खबर है ।

क्या खास रहा तीसरे चरण के चुनाव में–
1—58.9 प्रतिशत वोटिंग हुई है

2–कुल 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया है

3–दरभंगा जिले के बहेड़ी प्रखंड की हावीडीह उत्तरी पंचायत के बसकट्टी गांव में बूथ संख्या 233 पर गड़बड़ी फैलाने के आरोप में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया।

4—समस्तीपुर के उजियारपुर के वार्ड नंबर 8 में फिर से वोटिंग होगी

5– मुजफ्फरपुर के मुरौल में वार्ड नंबर 4 में दोबारा मतदान होगा

6–भोजपुर के जंगल महाल पंचायत के बूथ नंबर 112 पर दो प्रत्याशियों के समर्थकों के बीच झड़प हो गई। विवाद के बाद हुई मारपीट में 2 लोगों का सिर फटा गया।

7—समस्तीपुर –बूथ संख्या 244 पर हंगामा ,मतदाता और पुलिस कर्मी के बीच झड़प ,उजियारपुर प्रखंड के रामचन्द्रर पुर अन्हेल की घटना ।

इस बार भी महिलाए पुरुष से ज्यादा वोट दी है

8–हाजीपुर–जनदाहा प्रखंड के कजरी बुजुर्ग गाँव स्थित मतदान केन्द्र
संख्या 200 पर जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह कुशवाहा अपनी पत्नी के साथ अपने मताधिकार का किया प्रयोग ।

9–मुजफ्फरपुर-मुरौल के हरसिंहपुर लौतन बूथ संख्या-82 पर वैलेट पेपर में मिसप्रिंट के कारण तीन घंटे बाद शुरू हुआ मतदान ।

10–गोपालगंज जिले के भोरे के हुस्सेपुर पंचायत में मतदान के दौरान बवाल हुआ। यहां मतदान करने आए वोटरों ने BDO पर गाली-गलौज और धमकी देने का आरोप लगाया है। नाराज लोगों ने बूथ से BDO को खदेड़ दिया।

11—नवादा –वोट का किया बहिष्कार
रजौली में सिरोडाबर पंचायत की बूथ संख्या-162 पर वोट देने के लिए वोटर नहीं पहुंच रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि दो मुखिया प्रत्याशी के समर्थकों ने वोटिंग से पहले मारपीट की है। इसके विरोध में मतदान बहिष्कार कर दिया है।

12–बेतिया के सेमरी पंचायात के बूथ संख्या 305 पर बवाल। सेक्टर मजिस्ट्रेट की गाड़ी का लोगों ने तोड़ा शीशा।

13–भोजपुर के जगदीशपुर में गश्ती पार्टी की ओर से धनगाई थाने के समीप बसौना पंचायत की बूथ संख्या 49 के पास निवास करने वाले लोगों को घर में घुसकर पीटने के आरोप में लोगों ने तत्काल वोट डालना बंद कर दिया। आरा-बक्सर हाइवे पर धनगाई थाने के समीप सड़क जाम कर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं।

14–मुंगेर– जिले के संग्रामपुर प्रखंड के बूथ नंबर 35 एवं 43 पर EVM खराब होने की वजह से मतदान बाधित।
बक्सर के लखन डिहरा पंचायत के बूथ नंबर 2, 7, 8, 10 पर EVM पिछले 2 घंटे से खराब है।

15–बक्सर–
डुमरांव के मतदान केद्रों पर इस बार कोरोना की वैक्सीन भी देने की व्यवस्था कराई गई है।
दरभंगा–बहेड़ी के ग्राम पंचायत राज इनाई के बूथ संख्या 280 एवं 283 पर दो घंटे तक ईवीएम खराब रहने के कारण सुबह नौ बजे बजे के बाद शुरू हुई वोटिंग।

16—सुपौल–रानीगंज प्रखंड के छतियोना में पंचायत स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय छतियोना बूथ संख्या 312 में जिला परिषद सदस्य पद का ईवीएम मशीन में गड़बड़ी होने के कारण 7 बजे से ही मतदान बंद है।

सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं में इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि और अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों का बढ़ा वर्चस्व

#65thBPSCResult: बीपीएससी चला यूपीएससी की राह, इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि और अंग्रेज़ी माध्यम का बढ़ता वर्चस्व : हाल के वर्षों में यूपीएससी से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं तक के रिजल्ट में इंजीनियरिंग बैकग्राउंड और अंग्रेज़ी माध्यम के छात्रों के वर्चस्व में निरन्तर वृद्धि हुई है, और इसकी पृष्ठभूमि में हिन्दी माध्यम के छात्र निरन्तर हाशिये पर पहुँचते चले गए।

यह स्थिति बीपीएससी के रिजल्ट में भी देखी जा सकती है। 7 दिसम्बर को जारी बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की 65वीं संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा के परिणाम में शीर्ष के 13 स्थानों में दस स्थानों पर इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के छात्रों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। इनमें से 3 छात्र तो आईआईटी बैकग्राउंड से हैं। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के अधिकांश छात्र माध्यम के रूप में अंग्रेजी और वैकल्पिक विषय के रूप में मानविकी विषय को चुनते हैं। टॉप 20 में मौजूद नौ अभ्यर्थियों ने भूगोल को और दो अभ्यर्थियों ने अर्थशास्त्र को अपने वैकेल्पिक विषय के रूप में चुना है।

हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए चिन्ता का विषय:
संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले हिन्दी माध्यम के छात्रों की कम होती भागीदारी चिन्ता का विषय है, इन छात्रों के लिए भी और समाज एवं प्रशासन के लिए भी। आने वाले समय में यह समाज के सामने नयी मुश्किलें खड़ी करेगा।

इसके कारण हिन्दी माध्यम के छात्र भी दबाव में हैं और कोचिंग संस्थान भी। इसलिए इन दोनों ने इस दबाव से निबटने का सुविधाजनक रास्ता ढूँढ लिया है, और वह है सारी जिम्मेवारी को बीपीएससी या यूपीएससी के मत्थे मढ़ देना। यही कारण है कि लोक सेवा परीक्षाओं के रिजल्ट-प्रकाशन के ठीक बाद हिन्दी माध्यम के छात्र से लेकर कोचिंग संस्थान तक माध्यम और इसको लेकर होने वाले भेदभाव का रोना रोने लगते हैं। हिन्दी माध्यम के प्रति जमकर प्रेम प्रदर्शित किया जाता है और उसके खिलाफ होने वाले भेदभाव जोर-शोर से की जाती है।

ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएँ निर्दोष हैं या इनमें कोई कमी नहीं है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस समस्या के मूल में कहीं-न-कहीं हमारी शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षक और छात्र मौजूद हैं। लेकिन, इस से सम्बद्ध मूल प्रश्नों की अनदेखी करते हुए इस पूरे मसले को रोमांटिसाइज़ कर दिया जाता है। इसके कारण मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, और उस पर सार्थक विचार-विमर्श संभव नहीं हो पाता है। यह स्थिति हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए भी सुविधाजनक है, और उन कोचिंग संस्थानों के लिए भी, जो हिन्दी माध्यम में कोचिंग उपलब्ध करवाते हैं, पर अपनी जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

अंग्रेजी माध्यम की ओर छात्रों एवं अभिभावकों का बढ़ता रुझान:

सबसे पहले, मैं पिछले दो दशकों के दौरान शिक्षा-व्यवस्था में आने वाले बदलावों की चर्चा करना चाहूँगा। इस दौरान:

  1. सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था ध्वस्त होती चली गयी, और उसकी कीमत पर निजी शिक्षण संस्थानों के विकास को प्रोत्साहित किया गया।
  2. जो भी अभिभावक सक्षम थे या तमाम मुश्किलों के बावजूद जो निजी शिक्षण-संस्थानों का खर्च वहन करने के लिए तैयार थे, उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों के बजाय निजी शिक्षण संस्थानों को प्राथमिकता दी।
  3. इनमें जो भी बच्चे पढ़ने में अच्छे थे, उनमें से अधिकांश ने अंग्रेजी माध्यम की ओर रुख किया। स्वाभाविक है कि अच्छे बच्चे अंग्रेजी माध्यम की ओर शिफ्ट करते चले गए, और हिन्दी माध्यम में छँटे हुए बच्चे रह गए। मेरा आग्रह होगा कि मेरी इन बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए। मैं सामान्य सन्दर्भों में बात कर रहा हूँ, विशिष्ट सन्दर्भों की नहीं।

तैयारी करने वाले बच्चों की पृष्ठभूमि:

सामान्यतः जो अच्छे बच्चे होते हैं, उनमें से अधिकांशतः बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग या मेडिकल की रुख करते हैं और इन्हीं में से कुछ प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने के बाद सिविल सेवा की तैयारी में लग जाते हैं। जो बच्चे उधर नहीं जा पाते हैं, वे ग्रेजुएशन के बाद या तो प्रबंधन, लॉ और एकेडेमिक्स की तरफ बढ़ जाते हैं, या फिर अंग्रेज़ी एवं मैथ्स ठीक-ठाक होने की स्थिति में बैंक पी.ओ. और अन्य वनडे एग्जाम की तैयारी में लग जाते हैं। वही लोग सिविल सेवा की तैयारी में लगते, जो या तो पूरी तरह से इसके प्रति प्रतिबद्ध हैं, या फिर इस दिशा में प्रयास कर एक चांस लेना चाहते हैं।

अधिकांश रिजल्ट इन्हीं के बीच से मिलता है, विशेष रूप से प्रोफेशनल बैकग्राउंड के बच्चों के बीच से, या फिर प्रतिबद्ध बच्चों के बीच से। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो दशकों के दौरान शिक्षा की गुणवत्ता की दृष्टि से अन्तराल बढ़ता चला गया है और इस बढ़ते हुए अन्तराल ने हिन्दी माध्यम के छात्रों को बैकफुट पर ले जाने का काम किया है। यहाँ तक कि अब तो यह अन्तराल अंग्रेजी माध्यम में भी मुखर होने लगा है।

माध्यम का फर्क और माइंडसेट का फर्क:

सिविल सेवा परीक्षा का कोई भी विश्लेषण तब अटक अधूरा है, अजब तक हिन्दी माध्यम एवं अंग्रेजी माध्यम के बच्चों के माइंडसेट के फर्क को नहीं समझा जाए। सामान्यतः हिन्दी माध्यम के बच्चे भावुक प्रकृति के होते हैं, विषय के प्रति उनका नजरिया भावुक होता है और इसी बह्वुक मनःस्थिति में वे निर्णय भी लेते हैं जो सिविल सेवा में उनकी संभावनाओं को प्रभावित करता है। इसके विपरीत, सामान्यतः अंग्रेजी माध्यम के छात्रों का एप्रोच प्रोफेशनल होता है, विषय के प्रति भी और तैयारी के प्रति भी। इसीलिए उनके निर्णयों में प्रोफेशनलिज्म की झलक दिखाई पड़ती है जो सफलता की सम्भावनाओं को बाधा देती है।

यह प्रोफेशनलिज्म पुस्तकों और कोचिंग संस्थानों के चयन से लेकर विषय-वस्तु के प्रति रवैये तक में परिलक्षित होता है। यही कारण है कि मानविकी विषयों, जो उनके लिए नया होता है, में भी मानविकी पृष्ठभूमि के छात्रों की तुलना में इंजीनियरिंग बैकग्राउंड वाले छात्रों का प्रदर्शन बेहतर होता है, अंकों के संदर्भ में भी और अन्तिम चयन में भी।

माइंडसेट के इसी फर्क के कारण सिविल सेवा परीक्षा के डायनामिज्म और इसके कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के प्रति हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के रेस्पोंस भी अलग-अलग होते हैं। यह फर्क उनके द्वारा प्रश्नों को दिए गए रेस्पोंस के स्तर पर भी देखा जा सकता है।

कोचिंग संस्थानों का नजरिया:

यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी, यदि कोचिंग संस्थानों की भूमिका पर चर्चा नहीं की जाए। आज हिंदी माध्यम के अधिकांश कोचिंग संस्थानों पर निदा फ़ाज़ली का यह शेर लागू होता है:

कभी-कभी हमने यूँ ही अपने जी को बहलाया है;

जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

मुझे कहना तो नहीं चाहिए क्योंकि मैं खुद भी इसी व्यवसाय से जुड़ा हूँ, पर खुद को यह कहने से रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है कि उनके टीचिंग, टीचिंग कम, क्लास-मैनेजमेंट कहीं ज्यादा है। और, इस सन्दर्भ में अगर सही एवं उपयुक्त शब्दों का चयन करें, तो यह मदारी के खेल’ में तब्दील हो चुका है। बच्चे भी कोचिंग में मदारी का खेल ही देखने जाते हैं, और टीचर भी मदारी का खेल दिखाने ही जाते हैं।

न बच्चों को इस बात से मतलब है कि उन्हें जो पढ़ाया जा रहा है, वहाँ से प्रश्न कवर होते हैं या नहीं; और न ही शिक्षक को इस बात से मतलब है। चूँकि बच्चे मज़ा लेने के लिए जाते हैं, इसीलिए शिक्षक का फोकस भी इसी बात पर रहता है कि कैसे बच्चों को मज़ा आये। ऐसा नहीं अहि कि अंग्रेजी माध्यम की स्थिति बहुत बेहतर है, पर चूँकि वहाँ बच्चों की गुणवत्ता अपेक्षाकृत बेहतर है और वे अपने कैरियर को लेकर कहीं अधिक कंसर्न्ड हैं, इसीलिए वहाँ स्थिति थोड़ी-सी बेहतर है।

लेकिन, जैसे-जैसे वहाँ भी भीड़ बढ़ रही है, फर्क कम होता जा रहा है। ऐसा नहीं कि हिन्दी माध्यम में अच्छे कोचिंग संस्थान और अच्छे शिक्षक नहीं हैं, पर उनमें से अधिकांश या तो हाशिये पर खड़े हैं, या फिर बाज़ार के दबाव में उन्हें अपने को बदलना पड़ रहा है।

गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री की उपलब्धता:

अगर अध्ययन-सामग्री की दृष्टि से देखा जाए, तो हिन्दी माध्यम की तुलना में अंग्रेजी माध्यम में गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री कहीं अधिक सहजता एवं सरलता से उपलब्ध है। यह फर्क न्यूज-पेपर और मैगज़ीन से लेकर कोचिंग संस्थानों द्वारा उपलब्ध करवायी जा रही अध्ययन सामग्रियों तक में देखा जा सकता है।

आज हिन्दी में द हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस सरीखे कौन-सा समाचार-पत्र उपलब्ध है और हिन्दी समाचार-पत्रों में किसके कवरेज में इतनी गहरायी एवं व्यापकता है, इस सवाल का जवाब कोई दे सकता है? अगर ऐसा कोई भी समाचार-पत्र हिन्दी माध्यम में उपलब्ध नहीं है, तो क्यों और इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इसके अतिरिक्त, अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के समक्ष आसानी से विकल्प उपलब्ध होते हैं जिनके कारण उपयुक्त विकल्पों का चयन उनके लिए आसान होता है। कहीं-न-कहीं यह भी दोनों माध्यमों में परिणामों के फर्क को जन्म दे रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र का बढ़ता आकर्षण:

पिछले दशक के दौरान, विशेष रूप से सन् 2008-09 की आर्थिक मन्दी के बाद निजी क्षेत्र में रोजगार की दृष्टि से अनिश्चितता भी बढ़ी है और वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से आकर्षण भी कम हुआ है। उधर, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र का फर्क भी कम हुआ है जिसके कारण सार्वजानिक क्षेत्र ने व्यावसायिक पृष्ठभूमि वाले छात्रों को कहीं अधिक आकर्षित किया है। फलतः सिविल सेवा की ओर उनका रुझान बढ़ा और प्रतिस्पर्धा मुश्किल होती चली गयी।

इस पूरी चर्चा के क्रम में इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि अहम् माध्यम नहीं है, अहम् है सिविल सेवा परीक्षा की माँग के अनुरूप अपने आपको ढ़ालना और उसकी ज़रूरतों को पूरा करना। इस सन्दर्भ में हिन्दी माध्यम के छात्रों के समक्ष मुश्किलें थोड़ी ज्यादा हैं, पर ऐसा नहीं है कि अगर नज़रिए को सकारात्मक रखा जाए और सकारात्मक नज़रिए से इन चुनौतियों से मुकाबले की कोशिश की जाए, टिन तमाम चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। (60-62)वीं बीपीएससी परीक्षा में हिन्दी माध्यम के डॉ. संजीव कुमार सज्जन का शीर्ष स्थान हासिल करना इसका प्रमाण है।

वक़्त की ज़रुरत को समझें हिन्दी माध्यम के छात्र:

आज हिन्दी माध्यम के बच्चे यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि यूपीएससी या फिर बीपीएससी उनके हिसाब से बदलने नहीं जा रही है, उन्हें इसके हिसाब से खुद को बदलना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि जहाँ वे विकल्पहीन हैं, वहीँ इन संस्थानों के पास पर्याप्त विकल्प है। जहाँ इन्हें बेहतर विकल्प दिखेगा, वे उसको प्राथमिकता के आधार पर चुनेंगे। इतना ही नहीं, उन्हें यह भी समझना होगा कि तैयारी के क्रम में मुश्किलें तो आनी ही हैं, अब चुनना उन्हें है कि वे क्लासरूम की मुश्किलों का सामना करना चाहते हैं या फिर एग्जाम-हॉल की मुश्किलों का।

अगर वे क्लास रूम की मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार हैं, तो एग्जाम हॉल में मुश्किलों से वे बच भी सकेंगे और चयन की सम्भावना भी प्रबल होगी; अन्यथा रिजल्ट के बाद एक-दो दिन जम कर बीपीएससी या यूपीएससी को गाली देकर भड़ास निकाल लें, इससे न तो कुछ फर्क पड़ने वाला है और न ही रिजल्ट बदलने वाला है।

अगर इन्होने खुद को नहीं बदला, तो कोचिंग संस्थान क्लास-रूम में उन बिन्दुओं की चर्चा से परहेज़ करते रहेंगे, जिनको समझने में मुश्किलें आ सकती हैं, पर जो एग्जाम की दृष्टि से उपयोगी हैं और जिनकी आपके चयन में अहम् भूमिका होगी। इसलिए हिन्दी माध्यम के छात्रों को मेरा एक ही सन्देश है: सवालों का सामना करें और अपने शिक्षकों से भी सवाल पूछें।

इन सवालों के बिना न तो अपने प्रति आपकी जवाबदेही निर्धारित हो सकती है और न ही आपको पढ़ने वाले शिक्षकों की जवाबदेही; और जवाबदेही के बिना सफलता मुश्किल है। जहाँ यूपीएससी या बीपीएससी की सीमा है, वहाँ आप या हम कुछ नहीं कर सकते, पर खुद को बदलकर उस सीमा की कैजुअलिटी का शिकार होने से खुद को बचाया तो जा ही सकता है। अगर समय रहते नहीं संभले, तो आने वाले समय में बीपीएससी परीक्षा के परिणामों में हिन्दी माध्यम के छात्र भी उसी तरह से हाशिये पर पहुँचते चले जायेंगे जिस तरह यूपीएससी की परीक्षा में पिछले एक दशक के दौरान हाशिये पर पहुँचते चले गए और आज उनकी भागीदारी तीस के आसपास तक सिमट चुकी है।

लेखक — कुमार सर्वेश
पिछले दो दशकों से सिविल सर्विसेज परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की मेंटरिंग कर रहे हैं।)

आरबीआई की घोषणाओं के बाद सेंसेक्स, निफ्टी में उछाल; आईटी, बैंक और धातु चमके

शुक्रवार को सेंसेक्स 381 अंक ऊपर 60,059 पर, निफ्टी 105 अंक ऊपर 17,895 पर बंद हुआ। आरबीआई ने दिन में अपनी मौद्रिक नीति समिति के फैसलों की घोषणा की। इसने प्रमुख दरों को अपरिवर्तित रखा और समायोजनात्मक रुख पर यथास्थिति बनाए रखी। आरबीआई की नीति के बाद सेंसेक्स 381 अंक चढ़ा, निफ्टीभी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा ।

सेंसेक्स चार्ट (08.10.21) एक नजर में

बेंचमार्क के साथ मिड-कैप इंडेक्स भी आज बाजार के करीब 133 अंक या 0.43 प्रतिशत से अधिक चढ़ गया। सेक्टरों में आईटी इंडेक्स में करीब 2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और खरीदारी में भी ऑटो, मेटल, एनर्जी के नाम देखे जा रहे हैं, जबकि रियल्टी इंडेक्स में 3 फीसदी की गिरावट आई है।

रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल), इंफोसिस, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, एलएंडटी, एचसीएल टेक्नोलॉजीज ने सूचकांकों की बढ़त में सबसे अधिक योगदान दिया। वहीं हिंदुस्तान यूनिलीवर और NTPC के शेयर 1% से ज्यादा गिरकर बंद हुए।

बीएसई का स्मॉल कैप इंडेक्स 241 अंक की तेजी के साथ 29,330 पर बंद हुआ। बीएसई मिडकैप इंडेक्स 38 अंक की तेजी के साथ 25,837 पर बंद हुआ। सेंसेक्स के 30 शेयरों में से 13 बढ़त के साथ बंद । बीएसई पर 414 शेयर्स में अपर सर्किट लगा तो वहीं 140 शेयर्स में लोअर सर्किट लगा।

सेंसेक्स के शेयर एक नजर में

निफ्टी पीएसयू बैंक, मीडिया, ऑयल एंड गैस, ऑटो और मेटल इंडेक्स भी 0.3-1.8 फीसदी के बीच चढ़े। निफ्टी मिडकैप 100 इंडेक्स 0.4 फीसदी और निफ्टी स्मॉलकैप 100 इंडेक्स 1.3 फीसदी चढ़ा।

निफ्टी के प्रमुख शेयरों के टॉप गेनर और लूजर का हाल

पंचायत चुनाव का तीसरा चरण छिटपुट घटनाओं को छोड़कर शातिपूर्ण ढ़ग से चल रहा है

बिहार पंचायत चुनाव के तीसरे चरण की वोटिंग चल रही है छिटपुट घटना को छोड़कर मतदान शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा है सुबह 6 बजे से ही महिला और पुरूष मतदान केंद्र पर पहुंचने लगे थे हलाकि जैसे जैसे घूप तेज होती गयी मतदान का प्रतिशत कम होता चला गया दोपहर 2 दो बजे तक 30 से 40 प्रतिशत वोटिंग की खबर है हलाकि इस बार पहले के तुलना में ईभीएम के खराब होने खबर कम आयी फिर भी दो दर्जन मतदान केन्दों पर मतदान जरुर प्रभावित हुआ ।

मतदान केंद्र पर सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतजाम किए गए हैं। इस चरण में 35 जिलों के 50 प्रखंडो में चुनाव होना है। सुबह 7 बजे से शुरू हुआ मतदान शाम 5 तक चलेगा। तीसरे चरण के कुल 23 हजार 128 पदों के लिए 81 हजार 616 उम्मीदवार मैदान में हैं।

गोपालगंज के भोरे इलाके की हुस्सेपुर पंचायत में मतदान के दौरान बवाल हो गया। यहां मतदान करने आए वोटरों ने BDO पर गाली-गलौज और धमकी देने का आरोप लगाया। इसके बाद नाराज लोगों ने बूथ से BDO को खदेड़ दिया। इधर, दरभंगा में चुनाव के दौरान गश्ती पर निकले SSP के काफिले पर पथराव हो गया है। एक गाड़ी का शीशा फूट गया है। मतदान केंद्र पर से भीड़ हटाए जाने के बाद आक्रोशित हो गए थे ग्रामीण।

जदयू के प्रदेश अध्यक्ष पत्नी संग वोट देने पहुंचे

वही रोहतास-पंचायत चुनाव के मतदान के दौरान ग्रामीणों का हंगामा।पुलिस प्रशासन पर गाली गलौज तथा एक तरफा कार्रवाई का आरोप।पुलिस पर एक मुखिया उम्मीदवार के पक्ष में काम करने का आरोप।कछवा ओपी के दनवार में लोगों ने सड़क किया जाम।एसपी आशीष भारती पहुंचे मौके पर दनवार पंचायत का है मामला।

पंचायत चुनाव अपडेट

1—2 बजे तक 30 से 40 प्रतिशत वोटिंग हुई है

2—कैमूर के चैनपुर प्रखंड के जगरिया पंचायत में बूथ पर बायोमैट्रिक सिस्टम में गड़बड़ी आ गई है। इस कारण मतदान विलम्भ से शुरु हुआ । जगदीशपुर प्रखंड में कौंरा पंचायत में बूथ संख्या 9,10 का EVM खराब होने कि वजह से मतदान विलम्भ से शुरु हुआ ।

3–मोतिहारी–घोड़ासहन के बूथ संख्या 192 पर EVM में आई खराबी के कारण मतदान विलम्भ से शुरु हुआ

4–भोजपुर के जगदीशपुर के तेंदूनी मध्य विद्यालय की मतदान संख्या 77 पर 60 मिनट से ईवीएम मशीन खराब रहने कि वजह से मतदान विलम्भ से शुरु हुआ ।

5—भोजपुर के कौंरा पंचायत के कौंरा गांव में बूथ संख्या 9,10 के ईवीएम भी आयी खराबी के कारण मतदान विलम्भ से शुरु हुआ

6– औरंगाबाद जिले के बारुण प्रखंड की गोठौली पंचायत के बूथ संख्या 42 पर इवीएम मशीन में खराबी के कारण विलम्भ से शुरु हुआ मतदान

7—समस्तीपुर –बूथ संख्या 244 पर हंगामा ,मतदाता और पुलिस कर्मी के बीच झड़प ,उजियारपुर प्रखंड के रामचन्द्रर पुर अन्हेल की घटना ।

8–हाजीपुर–जनदाहा प्रखंड के कजरी बुजुर्ग गाँव स्थित मतदान केन्द्र
संख्या 200 पर जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह कुशवाहा अपनी पत्नी के साथ अपने मताधिकार का किया प्रयोग ।

9–मुजफ्फरपुर-मुरौल के हरसिंहपुर लौतन बूथ संख्या-82 पर वैलेट पेपर में मिसप्रिंट के कारण तीन घंटे बाद शुरू हुआ मतदान ।

10–गोपालगंज जिले के भोरे के हुस्सेपुर पंचायत में मतदान के दौरान बवाल हुआ। यहां मतदान करने आए वोटरों ने BDO पर गाली-गलौज और धमकी देने का आरोप लगाया है। नाराज लोगों ने बूथ से BDO को खदेड़ दिया।

11—नवादा –वोट का किया बहिष्कार
रजौली में सिरोडाबर पंचायत की बूथ संख्या-162 पर वोट देने के लिए वोटर नहीं पहुंच रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि दो मुखिया प्रत्याशी के समर्थकों ने वोटिंग से पहले मारपीट की है। इसके विरोध में मतदान बहिष्कार कर दिया है।

12–बेतिया के सेमरी पंचायात के बूथ संख्या 305 पर बवाल। सेक्टर मजिस्ट्रेट की गाड़ी का लोगों ने तोड़ा शीशा।

13–भोजपुर के जगदीशपुर में गश्ती पार्टी की ओर से धनगाई थाने के समीप बसौना पंचायत की बूथ संख्या 49 के पास निवास करने वाले लोगों को घर में घुसकर पीटने के आरोप में लोगों ने तत्काल वोट डालना बंद कर दिया। आरा-बक्सर हाइवे पर धनगाई थाने के समीप सड़क जाम कर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं।

14–मुंगेर– जिले के संग्रामपुर प्रखंड के बूथ नंबर 35 एवं 43 पर EVM खराब होने की वजह से मतदान बाधित।
बक्सर के लखन डिहरा पंचायत के बूथ नंबर 2, 7, 8, 10 पर EVM पिछले 2 घंटे से खराब है।

15–बक्सर–
डुमरांव के मतदान केद्रों पर इस बार कोरोना की वैक्सीन भी देने की व्यवस्था कराई गई है।
दरभंगा–बहेड़ी के ग्राम पंचायत राज इनाई के बूथ संख्या 280 एवं 283 पर दो घंटे तक ईवीएम खराब रहने के कारण सुबह नौ बजे बजे के बाद शुरू हुई वोटिंग।

16—सुपौल–रानीगंज प्रखंड के छतियोना में पंचायत स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय छतियोना बूथ संख्या 312 में जिला परिषद सदस्य पद का ईवीएम मशीन में गड़बड़ी होने के कारण 7 बजे से ही मतदान बंद है।

रामविलास पासवान का पहली बरसी आज

रामविलास पासवान का पहली बरसी आज,पटना में पार्टी कार्यालय में आयोजित है श्रद्धांजलि
मंत्री पशुपति कुमार पारस के निर्देशन में चल रहा है कार्यक्रम,श्रद्धांजलि के बाद मीडिया से बात करते हुए सीएम नीतीश कुमार ने कहा किआज ही के दिन रामविलास पासवान जी का निधन हुआ था उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए हम सब इकट्ठा हुए हैं।

रामविलास पासवान ने जो काम किया है उसको सदैव लोग जानते रहेंगे।हमारा संबंध रामविलास पासवान से बहुत पहले का है जब से जेपी मूवमेंट शुरू हुआ था तब से हमारा संबंध है।उनके जाने की अभी उम्र नहीं थी ,राम विलास पासवान की स्मृति को लोगों तक पहुँचाने के लिए काम किया जाएगा।

बीजेपी जातीय कुबना की राजनीति से बाहर निकल नहीं पायी चेहरा बदला है सोच वहीं पूरानी है

भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति में बिहार को जो भागीदारी मिली है उससे यह संकेत साफ है कि बिहार बीजेपी में सुशील मोदी ,नंद किशोर यादव,प्रेम कुमार,अश्वनी चौबे और सीपी ठाकुर युग का अब अंत हो गया है और अब पार्टी बिहार में संजय जयसवाल,गिरिराज सिंह ,नित्यानंद राय और मंगल पांडेय के सहारे आगे बढ़ेंगी ।

1—30 वर्षों बाद भी बीजेपी जातीय कुनबा वाली राजनीति से बाहर नहीं निकल पाया
बिहार में बीजेपी का दूसरा एरा लालू प्रसाद के सत्ता में आने के साथ ही 1990 से शुरू हुआ और उस दौर में सुशील मोदी पार्टी के युवा चेहरा हुआ करते थे झारखंड अलग होने के बाद उन्होंने कैलाशपति मिश्र के एरा को खत्म कर बीजेपी को सवर्ण और बनिया की पार्टी से बाहर निकालने की कोशिश शुरू किया।

हालांकि सुशील मोदी को भी इसमें खास सफलता हासिल नहीं हुई और यही वजह रहा कि सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी को आज भी नीतीश कुमार जैसे नेताओं की जरूरत है।

इस बार भी राष्ट्रीय कार्यसमिति में बिहार को जो भागीदारी मिली है उसको देखने से यही लगता है कि बीजेपी सिर्फ चेहरा बदला है सोच वही पुरानी है ।सुशील मोदी की जगह संजय जयसवाल ,सीपी ठाकुर की जगह गिरिराज सिंह ,नंद किशोर यादव की जगह नित्यानंद राय,अश्विनी कुमार चौबे की जगह मंगल पांडेय ,कीर्ति झा आजाद की जगह गोपाल जी ठाकुर और अति पिछड़ा प्रेम कुमार की जगह रेणु देवी को जगह दिया गया ,राजपूत नेता में टीम मोदी को राजीव प्रताप रूडी पसंद नहीं है ऐसे में इनके पास राधा मोहन सिंह को छोड़कर कोई दूसरा नेता है नहीं ।

2—- इन नये चेहरों से बिहार बीजेपी क्या साधना चाहती है
इन चेहरे के पीछे पार्टी की सोच को अगर देखे तो बीजेपी बिहार में गिरिराज सिंह के सहारे भूमिहार को साधना चाहती है, इनकी वैसी पहचान है क्या जो कैलाशपति मिश्र और सीपी ठाकुर का जगह ले सके । इसी तरह संजय जयसवाल कभी सुशील मोदी का जगह ले सकते हैं , मंगल पांडेय और गोपाल जी ठाकुर कभी भी बिहार बीजेपी के पुराने ब्राह्मण नेता की जगह ले सकते हैं।हलाकि नित्यानंद राय नंद किशोर यादव से यादव मतदाताओं के बीच ज्यादा प्रभावी हैं लेकिन नित्यानंद राय जब तक लालू प्रसाद का परिवार है यादव में उनका प्रवेश बहुत मुश्किल है।

फिर अति पिछड़े की बात करे तो रेणु देवा पर दाव लगाना उसी तरह है जैसे प्रेम कुमार 20 वर्षो से अधिक समय से विधायक और मंत्री रहे।
मतलब जिन नये चेहरे पर बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व भरोसा जताया है उसमें फिलहाल वो क्षमता नहीं है जिसके सहारे बिहार में बीजेपी कुछ खास कर पाए ।

3—बीजेपी प्रभारी में बदलाव का क्या प्रभाव पड़ेगा बिहार की राजनीति पर
नरेन्द्र मोदी बिहार को लेकर काफी सावधान रहे हैं क्यों कि बिहार ऐसा पहला राज्य था जहां उनके पीएम रहने के बावजूद कुछ करिश्मा नहीं कर पाये, 2015 के विधानसभा चुनाव में पूरी कमान मोदी और शाह उठा रखे थे लेकिन पार्टी औंधे मुंह गिर गयी थी।

पीएम मोदी अभी भी सुशील मोदी को माफ करने को तैयार नहीं है ऐसे में टीम मोदी शुरु से ही सुशील मोदी के विकल्प में लगा हुआ है इस बार बिहार मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने के पीछे भी वजह यह रही है ।

हालांकि भूपेन्द्र यादव को जिस उद्देश्य बिहार का प्रभारी बनाया गया था उस उद्देश्य में बीजेपी कामयाब नहीं हो पाया पहली बार 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यादव को सबसे ज्यादा टिकट दिया लेकिन अधिकांश उम्मीदवार उनके हार गये।

नित्यानंद राय को गृह राज्यमंत्री बनाया गया फिर भी यादव वोटर को खीच नहीं पाये उलटे मध्य बिहार के इलाके में बीजेपी का जो परंपरागत वोट रहा है वो साथ छोड़ दिया हालांकि अंतिम समय में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को बिहार भेज करके नाराज सवर्ण वोटर को बनाने की कोशिश कि गयी थी लेकिन वो सफल नहीं हुआ तो अंत में चिराग को मैदान में उतरना पड़ा ।

ऐसे में हरीश द्विवेदी को बिहार का प्रभारी बनाये जाने से कोई बड़ा बदलाव होता नहीं दिख रहा क्यों कि बिहार में बीजेपी का जो कोर वोटर है सवर्ण और बनिया वही बीजेपी से खफा है और इसका लाभ राजद 2020 के विधानसभा चुनाव में बनिया को टिकट देकर उठा चुका है।

वही हरीश द्विवेदी के आने से यूपी में जदयू का बीजेपी के साथ गठबंधन होने में सहजता होगी ऐसा भी नहीं दिख रहा तो फिर हरीश द्विवेदी को बिहार का प्रभारी बनाये जाने के पीछे बीजेपी की सोच क्या है आगे आगे देखिए होता है क्या लेकिन इतना तो तय दिख रहा है कि इस टीम से बीजेपी की निर्भरता नीतीश पर हमेशा बनी रहेगी ।

भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति में बिहार को अच्छी खासी जगह मिली लेकिन सुशील मोदी का पर कतरा दिया गया

भाजपा ने आज पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की घोषणा की है ।80 सदस्यीय कार्यसमिति में बिहार से रविशंकर प्रसाद,गिरीराज सिंह ,भगीरथी देवी और नित्यानंद राय को जगह दी गयी है ,वही राधामोहन सिंह को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है ।

विशेष आमंत्रित सदस्य के रुप में सांसद गोपाल जी ठाकुर,मंत्री मंगल पांडेय,पूर्व मंत्री प्रेम कुमार और पूर्व मंत्री नंद किशोर यादव को बनाया गया है । उप मुख्यमंत्री के नाते तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को पार्टी ने राष्ट्रीय कार्यसमिति में शामिल किया है। पूर्व उप मुख्यमंत्री के नाते सुशील मोदी को भी जगह दी गयी है।

प्रवक्ता की सूची बिहार से चार प्रवक्ताओं को जगह दी गई है। इसमें बिहार के उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन को राष्ट्रीय प्रवक्ता के नाते लिया गया है। वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी, एमएलसी व राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय मयूख के अलावा गुरु प्रकाश को राष्ट्रीय कार्यसमिति में पार्टी ने जगह दी है।

बिहार भाजपा संगठन से अब भूपेन्द्र यादव बाहर हो गए हैं। सह प्रभारी हरीश द्विवेदी को बिहार भाजपा का प्रभारी बना दिया गया है। अनुपम हजारा नई व्यवस्था में भी सह प्रभारी का जिम्मा संभालेंगे।

द्विवेदी यूपी के बस्ती संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में UP में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 12 रैलियों के प्रबंधन में हरीश द्विवेदी ने अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद से उनका भाजपा में लगातार कद बढ़ता गया और उन्हें बिहार भाजपा का प्रभारी बना दिया गया है। सह प्रभारी अनुपम हजारा ही होंगे। अनुपम हजारा पश्चिम बंगाल के हैं। कभी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खास रहे हजारा बेलापुर से तृणमूल कांग्रेस से सांसद रह चुके हैं। हालांकि, 2019 चुनाव में वो जाधवपुर से भाजपा के टिकट पर हार गए थे।

बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा में भी इंजीनियरों का रहा बोलबाला टांप 10 में सात इंजीनियर है

बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की 65वीं संयुक्त प्रतियोगिता परीक्षा का फाइनल रिजल्ट आज जारी हो गया। इसमें रोहतास के गौरव सिंह ने टॉप किया है। वहीं, दूसरे नंबर पर बांका की चंदा भारती रहीं है। जबकि, तीसरे नंबर पर नालंदा के वरुण कुमार ने जगह बनाई है।

टॉप 10 में दो लड़कियां हैं। लड़कियों में सेकेंड टॉपर अनामिका को ओवर-ऑल नौवां स्‍थान मिला है। टॉपर गौरव व सेकेंड टाँपर चंदा सहित टॉप 10 में सात इंजीनियर हैं।

BPSC टॉपर गौरव सिंह की मां शशि कुमारी उत्क्रमित मध्य विद्यालय में पंचायत शिक्षिका हैं। पिता स्व. मनोज कुमार सिंह एयरफोर्स में जॉब करते थे। बच्चों की कम उम्र में ही मनोज कुमार सिंह का देहांत हो गया था। टॉपर गौरव का दूसरा भाई अमन कुमार सिंह पंजाब के लुधियाना से इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है। वहीं, BPSC की सेकेंड टॉपर चंदा भारती बांका की रहने वाली हैं। वे गया बुडको में असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं। पिता विवेकानंद यादव गढ़वा में असिस्टेंट इंजीनियर हैं। मां का नाम कुंदन कुमारी है। चंदा भारती तीन भाई एक बहन हैं।
इंटरव्यू के लिए 1,142 अभ्यर्थियों को बुलाया गया था

इंटरव्यू के लिए 1,142 अभ्यर्थियों को बुलाया गया था, जिसमें से 1,114 अभ्यर्थी शामिल हुए थे। अनारक्षित वर्ग के पुरुष उम्मीदवारों के लिए कटऑफ 532, अनारक्षित वर्ग की महिला उम्मीदवारों के लिए कटऑफ 515, ईडब्ल्यूएस के लिए 530, ईडब्ल्यूएस (महिला) के लिए 504, एससी (पुरुष) के लिए 507 और एसटी (पुरुष) के लिए 495 मार्क्स रही है। बिहार सरकार के 14 विभागों में कुल 423 रिक्त पदों के लिए परीक्षा हुई थी, जिसमें से 422 उम्मीदवारों को सफल घोषित किया गया है। इस भर्ती का इंटरव्यू अगस्त में हुआ था।

गुप्ता काल से शुरु हुआ है भारत में स्त्री शक्ति की पूजा

शक्ति-पूजा का अर्थ

प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म तीन मुख्य संप्रदायों में बंटा रहा है – विष्णु का उपासक वैष्णव, शिव का उपासक शैव और शक्ति का उपासक शाक्त संप्रदाय। दुनिया के सभी दूसरे धर्मों की तरह वैष्णव और शैव संप्रदाय जहां सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति पुरुष को मानते हैं, शाक्तों की दृष्टि में सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति स्त्री शक्ति है। देवी को ईश्वर के रूप में पूजने वाला शाक्त धर्म दुनिया का संभवतः एकमात्र धर्म है।

स्त्री-शक्ति की आराधना की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परंपरा की शुरुआत इतिहास के गुप्त काल से मानते हैं जब ‘देवी महात्मय’ नाम के ग्रंथ की रचना हुई थी। दसवीं से बारहवीं सदी के बीच ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद शाक्त परंपरा उत्कर्ष पर पहुंची थी। सच यह है कि स्त्री-शक्ति की पूजा की जड़ें प्रागैतिहासिक काल में ही मौजूद हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रचलन था। खुदाई में उस काल की देवी की कई मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में भी वाक्शक्ति की प्रशंसा में एक देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति कहती है – मैं ही समस्त जगत की अधीश्वरी तथा देवताओं में प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में स्थित हूं। देवगण जो भी कार्य करते हैं वह मेरे लिये ही करते हैं। वेदों की कई अन्य ऋचाओं में अदिति का मातृशक्ति के रूप में वर्णन है जो माता, पिता, देवगण, पंचजन, भूत, भविष्य सब कुछ हैं। कालांतर में शक्ति पूजा की इस प्राचीन परंपरा के साथ असंख्य मिथक और कर्मकांड जुड़ते चले गए।

योगियों की शक्ति उपासना की पद्धति थोड़ी अलग है। वे शक्ति का अस्तित्व किसी दूसरी दुनिया या आयाम में नहीं, मानव शरीर के भीतर ही मानते हैं। रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति के रूप में। विभिन्न यौगिक क्रियाओं और ध्यान के माध्यम से इस शक्ति की ऊर्ध्व यात्रा शुरू कराई जाती है। जब यह शक्ति शरीर के छह चक्रों का भेदन करती हुई मष्तिष्क में स्थित सातवें चक्र में पहुंच जाती है तो योगी को असीम शक्ति और परमानंद की अनुभूति होती है।

मित्रों को स्त्री – शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन नवररात्रि की शुभकामनाएं, इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए !

लेखक –ध्रुव गुप्ता

हाईकोर्ट ने मुखिया हीरावली देवी को चुनाव लड़ने की दी अनुमति

पटना हाई कोर्ट ने कैमूर(भभुआ) जिले के लहदन ग्राम पंचायत राज की मुखिया रही हीरावती देवी को चुनाव लड़ने का आदेश दिया। जस्टिस विकास जैन की खंडपीठ ने हीरावती देवी की याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्हें मुखिया पद का चुनाव लड़ने की अनुमति दी।

साथ ही कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग और जिलाधिकारी कैमूर को सिंबल आवंटित करने का आदेश दिया। हीरावती देवी को आगामी 20 अक्टूबर को होने जा रहे चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने का भी आदेश दिया है।

इसके पूर्व कोर्ट ने मुखिया के पद पर निर्वाचन के लिये नामांकन पत्र को स्वीकार करने का आदेश दिया था। हीरावती देवी को पंचायती राज विभाग के प्रधान सचिव के आदेश से मुखिया के पद से 28 अक्टूबर, 2019 को हटा दिया गया था।
इस आदेश के विरुद्ध अपीलार्थी ने पटना हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर किया था, जोकि 8 मार्च, 2021 को खारिज हो गया था। इस रिट याचिका में दिए गए आदेश के विरुद्ध याचिकाकर्ता ने पटना हाई कोर्ट में ही अपील दायर किया था, जिस पर सुनवाई करते हुए खंडपीठ ने यह आदेश को पारित किया।

राज्य सरकार के पंचायती राज विभाग के प्रधान सचिव द्वारा 20 अक्टूबर, 2019 को पारित उस आदेश को रद्द करने हेतु याचिका दायर की थी, जिसके जरिये उन्हें लोहदन पंचायत के मुखिया के पद से हटा दिया गया था।

अपीलार्थी के अधिवक्ता ने बताया कि मुखिया के ऊपर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने कथित रूप से लगभग 34 लाख रुपये का गबन किया था। इन्होंने प्रबंधन कमेटी के नाम से चेक जारी नहीं कर पंचायत सचिव के नाम से चेक जारी किया और पैसे का इस्तेमाल अपने लिये किया था। ये राशि मुख्यमंत्री सात निश्चय योजना की थी।
किन्तु याचिकाकर्ता की जानकारी में जब यह बात आई तो इन्होंने ब्याज समेत पूरे पैसे को खाता में जमा करवा दिया। गबन की गई राशि पर कंपाउंड इनटरेस्ट लेने का भी आदेश दिया गया। अपीलार्थी ने इस राशि को भो खाता में जमा किया।

अपीलार्थी जनवरी, 2016 में मुखिया के तौर पर निर्वाचित हुए थी। पब्लिक फण्ड के गबन को लेकर स्पष्टीकरण भी पूछा गया था। बी डी ओ ने जिला पंचायत राज ऑफिसर को अपीलार्थी द्वारा पैसा जमा कर दिए जाने की सूचना भी दे दिया था।
इस मामले में अगली सुनवाई आगामी 21 अक्टूबर को होगी।

सेंसेक्स, निफ्टी में उछाल; सेंसेक्स 488 अंक उछला, निफ्टी 17,800 के करीब; टाइटन में 10% की बढ़त

भारतीय बाजार कल के नुकसान से उबरकर गुरुवार को सकारात्मक पर समाप्त हुआ। सेंसेक्स 488 अंक उछलकर 59,677.83 पर, जबकि निफ्टी 144.35 अंक ऊपर 17,790.35 पर बंद हुआ ।

सेंसेक्स चार्ट (07.10.21) एक नजर में

तेल और गैस को छोड़कर, अन्य सभी सेक्टोरल इंडेक्स निफ्टी रियल्टी और ऑटो इंडेक्स में 4-6 फीसदी की बढ़त के साथ हरे निशान में बंद हुए। बीएसई के मिडकैप और स्मॉलकैप इंडेक्स में 1-1 फीसदी से ज्यादा की तेजी आई।
बैंक निफ्टी 0.62% बढ़कर 37,750 पर पहुंच गया ।

रियल्टी के साथ ऑटो ने बढ़त हासिल की। टाइटन और टाटा मोटर्स शीर्ष लाभार्थियों में से थे। टाइटन आज सेंसेक्स में शीर्ष पर रहा, समापन पर 10.69% उपर था, इसके बाद एमएंडएम, मारुति, इंडसइंड बैंक और सन फार्मा का स्थान रहा। डॉ रेड्डीज ने सबसे खराब प्रदर्शन किया जो 1.3% नीचे था, इसके बाद एचडीएफसी और नेस्ले इंडिया थे। सेंसेक्स हरे रंग में 20 और लाल रंग में 10 शेयरों के साथ बंद हुआ ।

सेंसेक्स के शेयर एक नजर में

स्मॉलकैप क्षेत्र से कम से कम 346 शेयर 52 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। इस बीच, 15 शेयर 52-सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गए, जिनमें से ज्यादातर माइक्रोकैप स्पेस से थे। लगभग 460 शेयरों ने अपर सर्किट लिमिट और 145 लोअर सर्किट लिमिट को हिट किया। सेंसेक्स हरे रंग में 20 और लाल रंग में 10 शेयरों के साथ बंद हुआ, जबकि निफ्टी में 33 अग्रिम और 17 गिरावट देखी गई।

निफ्टी के प्रमुख शेयरों के टॉप गेनर और लूजर का हाल

कन्हैया का कांग्रेस के साथ आना कांग्रेस और कन्हैया दोनों की जरुरत है

कन्हैया कुमार: बहुत कठिन है डगर पनघट की

न मैं वामपंथी हूँ और न ही काँग्रेसी हूँ, लेकिन मेरी नज़रों में वामपंथी या काँग्रेसी होना गुनाह नहीं है, उसी प्रकार जिस प्रकार भाजपायी और संघी होना गुनाह नहीं है। गुनाह है इनके कुकर्मों के खिलाफ आवाज़ न उठाना। इसी प्रकार, न व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति में मेरा विश्वास है और न ही मैं किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हाँ, दक्षिणपंथियों की विभाजनकारी राजनीति के ख़िलाफ़ हूँ, इसमें सन्देह की कोई गुँजाइश नहीं है। मेरी सहानुभूति लेफ़्ट के प्रति भी है और काँग्रेस के प्रति भी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं लेफ्ट या काँग्रेस की हर बात से सहमत हूँ, या फिर इन्हें निर्दोष मानता हूँ: सन्दर्भ चाहे मुस्लिम-तुष्टिकरण का हो, या फिर इनकी नकारात्मक राजनीति का। आलोचनात्मक विवेक के बिना समर्थन या विरोध मुमकिन नहीं है। यही स्थिति कन्हैया के सन्दर्भ में भी है। मेरा यह मानना है कि जब मुद्दों और समस्याओं को रोमांटिसाइज़ किया जाता है या फिर राजनीति में मुद्दों की जगह व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को अहमियत दी जाती है, तो समस्याओं के समाधान की संभावना धूमिल पड़ती चली जाती है।

यही भूल भारतीय जनमानस ने सन् 1977 में की थी, और यही भूल 1989 में दोहरायी गयी। यही चूक अन्ना आन्दोलन के दौरान हुई और यही चूक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में हुई। यही चूक सन् 2019 में कन्हैया कुमार के संदर्भ में वामपंथियों से हुई, और यही चूक आज कन्हैया कुमार के काँग्रेस में प्रवेश से उत्साहित काँग्रेसजन या कन्हैया-समर्थक कर रहे हैं। सच तो यही है कि वामपंथ और कन्हैया कुमार एक दूसरे को सँभाल नहीं पाए, और परिणाम सामने है, कन्हैया कुमार का काँग्रेस के पक्ष में खड़ा होना। यह स्थिति काँग्रेस के लिए बेहतर है क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, उसे पाना-ही-पाना है, थोडा ज्यादा या फिर थोडा कम। यह स्थिति कन्हैया कुमार के लिए बेहतर हो सकती है और बेहतर प्रतीत हो रही है, पर कितनी बेहतर होगी, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है जिसे आने वाला समय बताएगा। पर, वामपंथ और विशेष रूप से सीपीआई के लिए यह स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं है। रही बात मुझ जैसों की, तो उन्हें पता था की देर-सबेर यह तो होना ही था। पिता के श्राद्ध में बाल मुंडवाने से इनकार और चुनाव के वक़्त मंदिर में मत्थे टेकना, नोटबन्दी के समय माँ को लाइन में लगवाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना और खुद चुनावी लाभ के लिए माँ के इस्तेमाल की हरसंभव कोशिश, युवाओं की ऐसी टोली को तैयार करना जो उनके प्रति वफादार हो: ये तमाम बातें ऐसी आशंकाओं को जन्म ही नहीं दे रहे थे, बल्कि उसे पुष्ट भी कर रहे थे।

काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं:

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ‘अपने भविष्य को लेकर चिन्तित’ कन्हैया का काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं है। हाँ, अब वह आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति का दावा नहीं कर सकता है। मेरी नज़रों में तो पहले भी नहीं कर सकता था। लेकिन, उसका काँग्रेस में जाना निस्संदेह जनवादी आन्दोलन के लिए एक झटका है, ऐसा झटका जिससे संभल पाना आसान नहीं होगा। यह उसके लिए एक सपने के टूटने की तरह है जिसकी कसक लम्बे समय तक बनी रहेगी। पर, अगर वामपंथ इस घटना को सकारात्मक नज़रिए से ले, तो यह उसके लिए आत्ममूल्यांकन का अवसर भी है कि क्या उसने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर व्यक्ति को तरजीह देकर सही किया था। ऐसे हज़ारों-लाखों कन्हैया फ़ील्ड में सक्रिय रहते हुए जनवादी आन्दोलन को मज़बूती दे रहे हैं। मेरी नज़रों में उनकी अहमियत और उनकी उपलब्धियाँ कन्हैया से कहीं अधिक मायने रखती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि वे कन्हैया की तरह ‘मीडिया-डार्लिंग’ नहीं हैं।

कन्हैया कुमार की ज़रुरत:

हर राजनीतिक दल की अपनी विशिष्ट संरचना और विशिष्ट प्रकृति होती है। जिस प्रकार संघ-परिवार के बिना भाजपा की कल्पना नहीं की जा सकती है और नेहरु-गाँधी परिवार के बिना काँग्रेस की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार वामपंथी दलों की भी अपनी विशिष्ट प्रकृति है। एक तो यह उन अपवाद राजनीतिक दलों में है जिसमें आतंरिक लोकतंत्र मौजूद है और जहाँ पार्टी संगठन में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर ऊपर जाना होता है; और दूसरे पार्टी-संगठन बुज़ुर्ग वहाँ पर भी कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं। जहाँ तक बेगूसराय की बात है, तो सीपीआई अब भी बिहार में कहीं पर बची हुई है और थोड़ा-बहुत प्रभाव रखती है, तो बेगूसराय में। वहाँ ट्रेड यूनियन भी मज़बूत है, और यह पार्टी की आय का प्रमुख स्रोत भी है जिस पर वामपंथी नेताओं की नज़र है।

यद्यपि पार्टी ने कन्हैया कुमार को एडजस्ट करने की हर संभव कोशिश की और उसकी महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने का प्रयास करते हुए पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थान भी दिया, तथापि कन्हैया कुमार की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने में वह असफल रही। इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि बेगूसराय के बुज़ुर्ग वामपंथी कन्हैया कुमार को वाकओवर देने के लिए तैयार नहीं थे, और कन्हैया कुमार फ्रीहैंड से कम पर मानने के लिए तैयार नहीं। अगर कन्हैया ने लोकसभा-चुनाव के समय उन्हें और पार्टी के कैडरों को साइडलाइन करने की हरसंभव कोशिश की, तो उन्होंने भी कन्हैया कुमार की हार को सुनिश्चित करने में कहीं कोर-कसर नहीं उठा रखा। दोनों के बीच यह अदावत विधानसभा-चुनाव के दौरान देखने को मिली। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि न तो कन्हैया पार्टी एवं उसके बुजुर्गों के साथ सहज रह गए और न ही पार्टी एवं उसके बुजुर्ग कन्हैया कुमार के साथ।

दूसरी बात यह कि कन्हैया ने आरम्भ से ही ऐसा लाइन लिया जो गैर-वामपंथी विपक्ष के साथ सहज महसूस कर सके और उसका स्टैंड गैर-वामपंथी विपक्ष के लिए असहज करने वाला न हो। इसे इस बात से भी बल मिला कि पिछले चुनाव के दौरान कन्हैया को अक्रॉस द पार्टी लाइन जाकर सहयोग एवं समर्थन मिला। साथ ही, कई लोगों को व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन वामपंथी दल से उसकी उम्मीदवारी के कारण उन्होंने कन्हैया को समर्थन देने और उसके लिए वोट करने से परहेज़ किया। इससे कन्हैया कुमार को यह लगा कि अगर वह सीपीआई का उम्मीदवार न होकर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ता, तो जीत सकता था। अब यह बात अलग है कि यह खुशफहमी ऐसी स्थिति पैदा होने पर टिक पाती अथवा नहीं, लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि कन्हैया कुमार को एक बड़े प्लेटफ़ॉर्म की तलाश है। जैसे ही इसके लिए उपयुक्त समय और उपयुक्त अवसर आया, कन्हैया कुमार सीपीआई का दामन छोड़कर काँग्रेस के नाव पर सवार हो गए। इससे इतना तो हो ही जाएगा कि कन्हैया कुमार को एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल जाएगा जहाँ से निकट भविष्य में शायद राज्यसभा का रास्ता भी खुले और काँग्रेस के प्रवक्ता के रूप में वे मीडिया कवरेज भी हासिल कर पाने में सफल हों। राजनीतिक भविष्य को लेकर जो अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही है और सत्ता का एक डर, जो उनके अन्दर कहीं गहरे स्तर पर विद्यमान है, वह डर दूर होगा अलग से।

वामपंथियों को लुभाता रहा है काँग्रेस:

ऐसा नहीं है कि यह स्थिति बेगूसराय में ही देखने को मिलती है। इस सन्दर्भ में वामपंथियों का लम्बा-चौड़ा इतिहास है। काँग्रेस तो वामपंथियों की सहोदर ही है। वामपंथियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन उसे हमेशा मिलता रहा है, और जेएनयू के वामपंथियों की तो काँग्रेस आश्रय-स्थली ही रही है। जैसा कि पुष्परंजन जी अपने आलेख ‘हिटलर के मुल्क में मार्क्सवादियों की जीत’ में लिखते हैं। सन् (1975-76) में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी ने एसएफआई से काँग्रेस और फिर काँग्रेस से एनसीपी तक की यात्रा तय की, तो जेएनयू में एसएफआई राजनीति से निकले डॉ. उदितराज (पूर्व नाम रामराज) ने भाजपा होते हुए काँग्रेस तक की यात्रा। इसी प्रकार चाहे शकील अहमद ख़ान (1992-93) की बात करें, या बत्ती लाल बैरवा की, या फिर नासिर अहमद की, इन लोगों ने जेएनयू के भीतर एसएफआई की राजनीति करते हुए अध्यक्ष के रूप में जेएनयू छात्रसंघ को नेतृत्व प्रदान किया, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन्होंने काँग्रेस का दमन थामते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने का काम किया। वहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता इन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पायी। अब, सवाल यह उठता है कि जब अल्ट्रा लेफ्ट सोच वाली आइसा से जेएनयू छात्रसंघ-अध्यक्ष रहे संदीप सिंह (2007-08) और मोहित के. पाण्डेय काँग्रेस में जा सकते हैं, तो कन्हैया कुमार तो फिर भी एआईएसएफ, जो वामपंथी संगठनों में सबसे अधिक उदारवादी सोच वाला छात्र संगठन है जो सीपीआई से सम्बद्ध है, से जुड़े रहे हैं।

काँग्रेस की ज़रुरत:

दरअसल, अगर काँग्रेस ने कन्हैया को प्राथमिकता दी है, तो इसका कारण यह है कि वह कन्हैया कुमार की मोदी-विरोधी छवि, उनकी वाकपटुता, पढ़े-लिखे युवाओं के बीच उसके क्रेज़ और उसकी अखिल भारतीय अपील को भुनाना चाहती है। साथ ही, कन्हैया कुमार के आने से काँग्रेस को नयी पीढ़ी का ऐसा नेता मिलेगा जिसकी मास-अपील है और जिसके सहारे काँग्रेस बिहार में अपने मृतप्राय संगठन में जान फूँकना चाहती है। इतना ही नहीं, काँग्रेस कन्हैया कुमार के सहारे एक बार फिर से सवर्ण मतदाताओं पर नज़र गराए हुए है और उसे लगता है कि पिछले तीन दशकों से हाशिये पर खड़े सवर्ण समुदाय के लिए कन्हैया कुमार उनके राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्स्थापना में सहायक साबित हो सकते हैं। इससे ऐसा लगता है कि काँग्रेस बिहार में अपने रिवाइवल को लेकर गम्भीर है, लेकिन उसकी दुविधा महागठबंधन की ज़रुरत और काँग्रेस एवं कन्हैया कुमार को लेकर राजद के रवैये को लेकर है।

काँग्रेस देश की ज़रुरत:

मैं कन्हैया की इस बात से सहमत हूँ, यह कहना तो उचित नहीं है क्योंकि मैं ये बातें लम्बे समय से कह रहा हूँ। मेरा मानना है कि “देश को बचाने के लिए काँग्रेस को बचाना होगा।” जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो मेरे लिए काँग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं होता। अपनी तमाम कमियों के बावजूद, मेरे लिए काँग्रेस भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, उस सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का, जिसके केन्द्र में सहिष्णुता और समन्वय का भाव मौजूद है, जो भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति संवेदनशील है तथा जो अपनी मूल प्रकृति में समावेशी है। आज सत्ता-प्रायोजित असहिष्णुता और उसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायीकरण ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के समक्ष ऐसे चुनौतियाँ उपस्थित की हैं जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता पर भी भरी पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में इस सोच के खिलाफ ज़ंग किसी भी देशभक्त की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

विचारधारा की राजनीति के भ्रम से मुक्त हो वामपंथ:

कन्हैया कुमार के इस निर्णय से वामपंथी सकते में हैं, और आलम यह है कि उन्होंने कन्हैया के विरुद्ध मोर्चा तक खोल दिया है। उसे समझौतावादी से लेकर अवसरवादी तक साबित करने की हरसंभव कोशिश हो रही है। वामपंथियों को अगर इस बात की गलतफहमी हो कि वे और उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ‘विचारधारा की राजनीति’ करते हैं, वे इस गलतफहमी को अपने दिमाग से बाहर निकल दें। इस प्रकार की सोच अतिवाद की ओर ले जाती है। इसी सोच का परिणाम है कि जब बेगूसराय के रास्ते कन्हैया कुमार का राजनीति में प्रवेश हुआ, तो उन्होंने कन्हैया के चरित्र एवं व्यक्तित्व को रोमांटिसाइज़ करते हुए उसे ‘मोदी के वामपंथी अवतार’ में तब्दील ही कर दिया और मुद्दों को दरकिनार करते हुए व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति की दिशा में ठोस पहल की; और अब जब कन्हैया कुमार वामपंथ का दामन छोड़कर काँग्रेस में शामिल हो चुका है, तो उसे खलनायक साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। आखिर इस बात की अनदेखी क्यों की जा रही है कि आज के दौर की राजनीति विचारधारा से परे जा चुकी है, और जो भी लोग विचारधारा की राजनीति कर रहे हैं, वे या तो हाशिये पर धकेले जा चुके हैं या धकेले जा रहे हैं। यह खुद वामपंथी राजनीति की भी वास्तविकता है, अन्यथा शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की अनदेखी कर लोकसभा-चुनाव,2014 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह और लोकसभा-चुनाव,2019 में कन्हैया कुमार को उम्मीदवार नहीं बनाया जाता। क्या यह सच नहीं है कि शत्रुघ्न बाबू की जगह राजो दा को टिकट दिलवाने में सूरजभान, शत्रुघ्न बाबू के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता और उसकी धन-बल की राजनीति की अहम् भूमिका रही? क्या यह सच नहीं है कि पिछले चुनाव में सीपीआई कैडर की उपेक्षा करने की कन्हैया कुमार को खुली छूट दी गयी? खुद बेगूसराय की राजनीति में भोला बाबू और सुरेन्द्र मेहता जैसे लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सीपीआई का दामन नहीं छोड़ा? क्या यह सच नहीं है कि हालिया सम्पन्न बिहार विधानसभा-चुनाव में मटिहानी से सीपीएम उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह की हार में पूर्व सीपीआई विधायक राजेन्द्र राजन जी के चकवार-प्रेम और बछवाड़ा से सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय की हार में सीपीएम के रामोद कुँवर के भाजपा उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता के प्रति प्रेम की अहम् भूमिका रही? उस समय तो वैचारिक प्रतिबद्धता का ख्याल नहीं रहा। अब सवाल यह उठता है कि यह दोगलापन कब तक चलेगा कि जब तक कोई सीपीआई में है, तो उदार, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील है; और अगर किसी दूसरे दल में, तो प्रतिक्रियावादी, समझौतावादी और कम्युनल?

बदलते परिवेश और बदलती सोच को समझने की ज़रुरत:

दरअसल, वामपंथी विचारधारा से काँग्रेस की निकटता और उसके भीतर पारंपरिक रूप से मज़बूत सेंटर लेफ्ट की मौजूदगी, जो पिछले तीन दशकों के दौरान कमजोर पड़ी है, अपनी भूलों के कारण वामपंथ का निरन्तर कमजोर पड़ते चला जाना, वामपंथी दलों पर बुजुर्गों के वर्चस्व के कारण युवाओं के सीमित स्पेस, छात्र नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इसकी पृष्ठभूमि में अखिल भारतीय उपस्थिति एवं प्रभावशीलता के कारण काँग्रेस में बेहतर राजनीतिक भविष्य की सम्भावना इस प्रवृत्ति को उत्प्रेरित करती है। वामपंथी दलों को भी इस सच्चाई को स्वीकारना होगा और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वे बदलते हुए हालात और बदलती हुई सोच को समझने के लिए तैयार नहीं हो जाते। उन्हें समाज में मूल्यों एवं वैचारिकता के क्षरण को भी समझना होगा और इस बात को भी समझना होगा कि प्रबल राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार युवा अपनी बारी की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके पास समय नहीं है और उन्हें कम समय में बहुत कुछ हासिल करना है। वे विचारधारा के नाम पर अपनी भविष्य की संभावनाओं से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सबके मूल में मौजूद है वह दबाव, जो पिछली तीन दशकों के दौरान पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण सृजित हुआ है और जिसने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों और नैतिकताओं को तहस-नहस कर दिया है। इतना ही नहीं, वामपंथ को लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए सत्ता की राजनीति की बजाय दबावकारी समूह की राजनीति को प्राथमिकता देनी चाहिए, और उन लोगों एवं उन दलों को भी भरोसे में लेना चाहिए जिनकी प्रतिबद्धता भले ही वामपंथी विचारधारा के प्रति नहीं है, पर जो वामपंथी सरोकारों से इत्तफाक रखते हैं। इस मोर्चेबन्दी को मज़बूत करते हुए वामपंथ को सड़क की राजनीति पर और अधिक फोकस करना चाहिए क्योंकि एक तो अन्य गैर-भाजपा दल सुविधाभोगी होने के कारण सड़क की राजनीति भूल चुके हैं और दूसरे, डॉ. लोहिया ने कहा है: “जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है।” तमाम सीमाओं के बावजूद वामपंथ की खासियत इस बात में है कि यह कैडर-आधारित पार्टी है और इसके अधिकांश कैडर, कुछ हद तक वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ सड़क की राजनीति में विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में नियति ने भारतीय वामपंथियों पर ऐतिहासिक दायित्व के निर्वाह की जिम्मेवारे सौंपी है जिससे वे मुँह नहीं मोड़ सकते हैं।

बहुत कठिन है डगर पनघट की:

जहाँ तक कन्हैया कुमार के राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है, तो कन्हैया के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होने जा रहा है। इसका कारण यह है कि उन्होंने वामपंथी दलों की अदावत मोल ली है जिसके लिए शायद वामपंथी उन्हें माफ़ नहीं करें, और इसकी कीमत देर-सबेर उन्हें चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में कन्हैया ने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता गँवाते हुए अपनी राजनीतिक पूँजी को दाँव पर लगाया है। इस क्रम में उनकी छवि अवसरवादी राजनेता वाली बनी है और इसके कारण यह सन्देश गया है कि वे भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही हैं। इसके कारण वे लोग उनसे दूर छिटकेंगे जो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहते हुए वैकल्पिक संभावनाओं की पड़ताल कर रहे थे।

टिपिकल राजनीतिज्ञ हैं कन्हैया कुमार:

यह कहने, कि कन्हैया कुमार टिपिकल राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर हैं, की तुलना में यह कहना कहीं अधिक उचित है कि कन्हैया कुमार में आरम्भ से ही टिपिकल राजनीतिज्ञ के लक्षण मौजूद रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में उनकी जीत ही संभव नहीं हो पाती। सन् 2016 में ही क़रीब जेएनयू वाली घटना के 6-7 माह बाद बाप्सा के नौ सदस्यों को, जो दलित समुदाय से आते थे, को जेएनयू से निलम्बित किया गया था, कन्हैया सहित तमाम तथाकथित प्रगतिशील और उदारवादी ताक़तों ने निलम्बन के मसले पर उनका साथ देने से इनकार करते हुए ‘जय भीम, लाल सलाम’ नारे को ‘सार्थक’ बनाया। कुछ ऐसे ही हालात बेगूसराय में दिखे, जब पूर्व एमएलसी उषा साहनी को कोई पूछने वाला तक नहीं था, जबकि वे उस सभा में सीपीआई की वरिष्ठतम नेत्री थीं और उस सेमीनार में प्रमुख वक्ता के रूप में कन्हैया कुमार मंच पर विराजमान थे। लोकसभा-चुनाव के बाद होने वाली हिंसा में तीन वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, लेकिन कन्हैया कुमार ने मृतकों के घर जाकर उनके प्रति संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता नहीं महसूस की। ये सारे प्रकरण एक दौर में रूमानी नायक में तब्दील हो चुके कन्हैया कुमार के टिपिकल राजनीतिज्ञ होने की ओर इशारा करते हैं।

कन्हैया की समस्या:

श्याम विज सही ही लिखते हैं, “लोग कहते हैं कि कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कन्हैया कुमार की समस्या यही है कि वह महत्वाकांक्षी नहीं है।” अगर कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी होते, तो इससे देश एवं समाज का भी भला होता, और खुद उनका भी भला होता। दरअसल, कन्हैया की समस्या यह है कि उसकी महत्वाकांक्षा का दायरा अत्यन्त सीमित है। वह येन-केन-प्रकारेण संसद तक पहुँचने की चाह रखता है, उससे अधिक कुछ नहीं; जबकि उसके सामने खुला मैदान है। लेकिन, इसके लिए उसे मीडिया की चकाचौंध से और इसके द्वारा मिलने वाली सस्ती लोकप्रियता की चाह से मुक्त होना होगा। उसे व्हाट्स एप्प, फेसबुक और ट्वीटर की मायावी दुनिया से बाहर निकलकर ज़मीन पर उतरकर राजनीति करनी होगी, अपने कोम्फोर जोन से बाहर निकलना होगा और अनकम्फर्ट जोन में प्रवेश के लिए तैयार होना होगा। लेकिन, अबतक इसके लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हैं। अबतक उसने बने-बनाये प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल किया है, हर वह काम किया है जो मीडिया में फुटेज दिला सके और इस काम में उसे सवर्णवादी मीडिया का पूरा-पूरा साथ मिला है। यहाँ तक कि उसने उस मूल एजेंडे से समझौते भी किए हैं और उन लोगों की अनदेखी करते हुए उनकी उपेक्षा की है, उनका तिरस्कार तक किया है जो संघर्ष के दिनों में उसके साथी रहे हैं और जिन्होंने उस समय उसका साथ दिया जिस समय कन्हैया कुमार के साथ लोग खड़े होने से परहेज़ कर रहे थे। जेएनयू से लेकर बेगूसराय तक, एआईएसएफ से लेकर सीपीआई तक के उसके साथी एवं कैडर इसके साक्षी हैं।

एर्रोगेंस से मुक्ति पाने की ज़रुरत:

इतना ही नहीं, कन्हैया कुमार की छवि भी उनकी मुश्किलों को बाधा रही है। दिल्ली से बेगूसराय और पटना तक, छात्र-जीवन से राजनीतिक जीवन तक कन्हैया के एर्रोगेंस की किस्से सुने जा सकते हैं। दरअसल, कन्हैया जितना डिजर्व करता था, उसे उससे कहीं बहुत अधिक मिला। वह अपनी इस सफलता को पचा नहीं पा रहा है। इसने उसे एर्रोगेंट बनाया, और उस एर्रोगेंस के कारण उसने बहुत कम समय में अपने दोस्तों और शुभचिंतकों को खोया है। आज कन्हैया के प्रति सहानुभूति एवं समर्थन रखने वालों को सुदर्शन की ‘हार की जीत’ कहानी के बाबा भारती की बात याद आ रही होगी, और एक ही प्रश्न उनके मानस-पटल पर बार-बार कौंध रहा होगा: ‘अब कोई किसी ‘कन्हैया’ पर कैसे विश्वास करेगा? अब इस तरह से विश्वास करना मुश्किल होगा।”

मुस्लिम-परस्त छवि से छुटकारा पाने की चुनौती:

अबतक कन्हैया की छवि प्रो-मुस्लिम की रही है, और उन्होंने बेगूसराय चुनाव के दौरान जो रवैया अपनाया, उससे उनकी यह छवि और भी अधिक मज़बूत हुई है। उनकी इस छवि को मज़बूत करने में उनके विरोधियों की भी अहम् भूमिका रही, और सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मसले पर होने वाले आन्दोलन में उनकी सक्रियता ने इसे और अधिक पुष्ट किया है। उन्हें ये बातें समझनी होंगी कि सिर्फ मुसलमानों एवं दलितों के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। दलित वोटबैंक के तो पहले से ही कई दावेदार हैं, और अब तो यह बिखर चुका है। रही बात मुस्लिम वोटबैंक की, तो दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार, इसके कारण मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़, समाज एवं राजनीति में मुस्लिमों के हाशिये पर चले जाने के अहसास और इसकी पृष्ठभूमि में ओवैसी के राजनीतिक उभार के कारण आने वाले समय में उसमें भी बिखराव आने जा रहा है। आने वाले समय में उन्हें ज़मीनी स्तर पर राजनीति करते हुए अपना जनाधार भी विकसित करना होगा और काँग्रेस संगठन को मजबूती प्रदान करते हुए बिहार में मृतप्राय काँग्रेस में जान भी फूँकनी होगी, अन्यथा वे इतिहास के बियाबान में कहाँ खो जायेंगे, पता भी नहीं चलेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें, और इस बात को पुष्ट करें कि उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ सीखा भी है। काँग्रेस में जाने का निर्णय उनकी राजनीतिक परिपक्वता की ओर भी इशारा करता है और इस बात की ओर भी कि वे फूँक-फूँक कर कदम रख रहे हैं, लेकिन इसी दौरान उन्होंने ऐसे काम भी किये हैं जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता पर सवालिया निशान लगते हैं। अब, जब कन्हैया काँग्रेस के साथ जुड़कर अपनी नयी राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे हैं, उन्हें इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए कि वे अब राजनीति के नौसिखुआ नहीं हैं।


इतना ही नहीं, समस्या कन्हैया कुमार की छवि, उसके रवैये और उसकी कार्यशैली के कारण भी है। पहली बात यह कि कन्हैया कुमार की कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि, ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा और उनकी मुस्लिम-परस्त छवि इसमें बाधक बन सकती है। इतना ही नहीं, बड़े सलीके से उनकी सवर्ण-विरोधी छवि और हिन्दू-विरोधी छवि भी निर्मित की गयी। उसके पिता के श्राद्ध में बाल नहीं मुंडवाने को मुद्दा बनाया गया। लोकसभा-चुनाव के समय कोरई गाँव की घटना को अंजाम दिया गया और इसका इस्तेमाल उन्हें सवर्ण-विरोधी साबित करने के लिए किया गया। पिछले लोकसभा-चुनाव में यही छवि बेगूसराय से कन्हैया कुमार की जीत में बाधक बनी थी। दूसरी बात यह कि सीपीआई का सदस्य रहते हुए कन्हैया कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे ऐसा लगता हो कि संगठन को मजबूती प्रदान करने में उसकी कोई रूचि है, जबकि उसके पास इसके बेहतर अवसर उपलब्ध थे। तीसरी बात यह कि कन्हैया कुमार अहमन्यता के शिकार हैं, और इसी कारण उन्हें यह लगता है कि उनका मुकाबला सिर्फ और सिर्फ मोदी से है। यह अहसास उन्हें ज़मीनी स्तर की राजनीति से दूर रख रहा है जिसके बिना न तो कन्हैया कुमार की महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है और न ही वे काँग्रेस की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कन्हैया कुमार कहाँ तक पूर्व की अपनी गलतियों से सीखते हुए राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हैं और अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं? इसकी अपेक्षा तो नहीं के बराबर है, पर तब तक कन्हैया को उनके उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के लिए शुभकामनाएँ तो दी ही जा सकती हैं।

लेखक –कुमार सर्वेश

तीसरे चरण के चुनाव से पहले ही 3 हजार से अधिक उम्मीदवार हुए निर्वाचित नक्सल प्रभावित मतदान केन्द्रों पर रहेंगी विशेष नजर

बिहार पंचायत चुनाव में तीसरे चरण का कल मतदान है शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव को लेकर राज्य निर्वाचन आयोग की माने तो इस बार फुलप्रुफ व्यवस्था है।इभीएम और बेवकास्ट के साथ साथ थम जांच मशीन पर इस बार विशेष नजर रखी जा रही है । कल वोटिंग सुबह 7 बजे से शाम 5 तक होगी। तीसरे चरण में कुल 23 हजार 128 पदों के उम्मीदवार अपने किस्मत आजमायेंगे। इन पदों के लिए 81616 उम्मीदवार मैदान में हैं । इनमें 43061 महिला उम्मीदवार मैदान में है तो 38555 पुरूष मैदान में हैं। तीसरे चरण में कुल 57 लाख 98 हजार, 379 मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इसके लिए 6646 भवनों में 10529 मतदान केन्द्र बनाये गए हैं ।

नक्सल प्रभावित पंचायत की सुरक्षा को लेकर विशेष सुरक्षा का दावा

हलाकि इस बार नक्सल प्रभावित पंचायत में भी चुनाव है जिसको देखते हुए
राज्य निर्वाचन आयोग ने 445 मतदान भवन नक्सल प्रभावित इलाकों के सभी मतदान केंद्रों पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए है। शांतिपूर्ण, भय मुक्त, मतदान केंद्रों की सुरक्षा, EVM की सुरक्षा के लिए बिहार पुलिस के कुल 35616 अफसर और जवानों को लगाया गया है। इनमें जिला पुलिस के साथ-साथ BSMP, SAP और होमगार्ड की टीम शामिल है।

चुनाव से पहले ही हजारों उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो चुके हैं

राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार तीसरे चरण में 3144 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हो चुके हैं । सबसे अधिक 3020 पंच निर्विरोध निर्वाचित हो गए हैं । इसी तरह से पंचायत समिति सदस्य के 3 पदों पर भी निर्विरोध निर्वाचन हो गया है। ये निर्वाचन तीसरे चरण के 35 जिलों के 50 प्रखंडों में हुआ है। इन सीटों पर 8 अक्टूबर को मतदान होना है ।वोटिंग से पहले प्रथम चरण की सीटों पर रिजल्ट जारी

ग्राम पंचायत सदस्य पद के लिए 118, पंच पद के लिए 3020, मुखिया पद के लिए 2, पंचायत समिति सदस्य पद के लिए 3, ग्राम कचहरी सरपंच पद के लिए 1 पद शामिल है। तीसरे चरण में 186 पद खाली रह गए हैं यहां कोई प्रत्याशी दावेदारी नहीं किया है। इसमें ग्राम पंचायत सदस्य पद के लिए 7, पंच पद के लिए 176 और ग्राम कचहरी सरपंच पद के लिए 3 पद शामिल है। आयोग का कहना है कि इन पदों पर किसी भी प्रत्याशी ने दावेदारी नहीं की है। तीसरे चरण में कुल 186 पद खाली रह गए हैं यानी यहां किसी ने भी नामांकन नहीं किया। इनमें सबसे अधिक पंच पद 176 हैं।

बिहार पुलिस के कार्यशैली पर उठा सवाल रुपा और उसकी माँ की आत्महत्या के लिए कौन है जिम्मेवार

आत्महत्या जैसी घटना ना तो मीडिया के लिए कोई खबर है और ना ही समाज के पास वक्त है उस पर मंथन करने को,हां सुशांत सिंह राजपूत जैसे लोग आत्महत्या कर लेते हैं तो उस पर महीनों चर्चाए जरुर होती है ।लेकिन आज हम आपको बिहार की एक बेटी की आत्महत्या की वजह को लेकर आप से बात करना चाहते हैं शायद आपको उबाऊ लगे क्यों कि बिहार की वो बेटी ना तो कोई सेलिब्रिटी है ना ही यूपीएसपी की परीक्षा पास कि है।

पता नहीं क्यों जब से बिहार की उस बेटी का सुसाइड नोट पढ़ा हूं मैं ठीक से सो नहीं पा रहा हूं बार बार उसके सुसाइड नोट का हर एक शब्द सिस्टम और समाजिक मर्यादओं के सामने लाचार एक बिहारी और भारतीय का चेहरा मेरे आंखों के सामने नाचने लगता है।

पहले मां बेटी के सुसाइड करने का मजमून क्या है जरा इस पर चर्चा कर लेते हैं फिर बात सुसाइड नोट की होगी ,हुआ ऐसा है कि छपरा के मढ़ौरा में सोमवार को इसरौली पेट्रोल पंप के पास बाइक सवार पांच अपराधियों ने हथियार के बल पर कैशवैन से 40 लाख रुपए लूट लिया था ।

लूट की घटना के बाद सारण पुलिस को एक सीसीटीवी फुटेज मिला जिसके आधार पर घटना के बाद भाग रहे अपराधियों के मोटरसाइकिल का नम्बर पता चला उसी आधार पर पुलिस ने भेल्दी थाना क्षेत्र के खारदरा में अपराधी सोनू पांडेय के घर छापा मारा जहां से पुलिस को लूट की घटना में उपयोग किये गये मोटरसाइकिल के साथ साथ से छह लाख रुपए और एक देशी पिस्टल बरामद किया हलाकि सोनू घर पर मौजूद नहीं था लेकिन अवैध हथियार मिलने की वजह से पुलिस सोनू के पिता चंदेश्वर पांडेय को गिरफ्तार कर लिया।

गिरफ्तारी के दौरान पुलिस ने सोनू के पिता के साथ जिस तरीके मारपीट गाली गलौज और पत्नी और बेटी के सामने जलील किया उससे आहत होकर सोनू की मां और बहन ने आत्महत्या कर लिया ।हलाकि पुलिस ने सोनू के पिता के साथ जो व्यवहार किया उसमें अस्वभाविक कुछ भी नहीं है जिसको लेकर सिस्टम पर सवाल खड़े किये जा सके पुलिस तो ऐसा करती ही है इसमें ऐसा क्या है जो मां बेटी सुसाइड कर ली, लेकिन रुपा ने सुसाइड नोट के सहारे जो सवाल खड़े की है वह सवाल संकेत है आज की युवा पीढ़ी की सोच कितनी दूर तलक चली गयी और सिस्टम कहां पीछे छुट गया है इतना ही नहीं सवाल बिहार के युवक से भी जो चंद पैसे के लिए किस तरीके से गलत कदम उठा रहे हैं और उसका असर एक संवेदशील परिवार पर क्या पड़ रहा है ।

सुसाइड नोट में रुपा ने लिखा है भाई के कुकृत्य के कारण जिस तरीके से पुलिस हमलोगों के सामने पापा को जलील किया है ऐसी स्थिति में अब जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं रहा गया है।

मेरे मां-बापा हमेशा से चाहते थे कि उनका बेटा और बेटी भविष्य में कुछ अच्छा काम करें लेकिन अफसोस उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। हम लोग गरीब जरूर हैं लेकिन गलत नहीं है और मेरे पापा हमेशा से हम सबको एक ही बात समझाते हैं कि बेटा मर जाना मगर कभी गलती ना करना। मेरे पापा बहुत बदनसीब हैं मेरे पापा का सपना पूरा ना हो सका।

रुपा ने सुसाइड नोट में आगे लिखा है कि मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि मेरे पापा को गलत ना समझें। प्लीज प्लीज प्लीज मेरे पापा खुद हमेशा सोनू से इस सब के कारण नाराज रहते थे। पापा हम आप की यह हालत नहीं देख सकते। हम कभी नहीं सोचे थे कि कोई आप पर ऐसे हाथ उठाए पर ऐसा हुआ। पुलिस किसी का सम्मान और दर्द नहीं समझती ऐसे में पापा मेरे जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं है मां को भी साथ ले जा रहे हैं ।

रुपा तो चली गयी इस दुनिया से लेकिन हमारे आपके सामने कई सावल छोड़ गयी है एक मध्यवर्गीय परिवार के लिए आज भी मर्यादा और परिवार का इज्जत कितना मायने रखता है ऐसे में पुलिस को अपने कार्यशैली में बदलाव लाने कि जरुरत है नहीं तो आने वाले समय में इस तरह की कई घटनाए घट सकती है ।

बेटा अपराधी है तो बाप कहां से गुनहगार हो गया ।सोनू के कृत्य की सजा उसका परिवार क्यों भुगते छपरा एसपी को सोनू की मां और बहन की आत्महत्या करने को लेकर जिम्मेवारी तय करनी चाहिए इतना ही नहीं रुपा को इस दुनिया को छोड़ने की जो वजह रही है उस वजह के सहारे पुलिस के कार्यशैली में क्या सुधार लाया जा सकता है उस पर मुख्यमंत्री से लेकर डीजीपी तक को विचार करनी चाहिए।

बिहार में सरकार आपके द्वारा और पंचायती राज व्यवस्था से नक्सली मुख्यधारा में लौटने लगे हैं।

लाल इलाके में टूट रहा नक्सलियों का मिथक,
जिसके भय से कभी इलाके के लोग वोट डालने नहीं जाते थे
आज वही जनता के चौखट पर जाकर पंचायत के विकास वोट मांग रहा है

जी है हम बात कर रहे हैं बिहार में कभी नकस्लियों का गढ़ रहा झारखंड राज्य के सीमा से सटे गया जिले के बाराचट्टी थाना क्षेत्र के दक्षिणी इलाके पतलुका पंचायत का जहां 1990 के बाद कभी किसी ने वोट नहीं डाला ।चुनावों के दौरान नक्सलियों के वोट वहिष्कार के नारे का पूरी तौर पर पालन होता था। डर से लोग वोट डालने नही जाते थे और उम्मीदवार इस इलाके में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं जुटाते थे। यही वह इलाका है जहां आपात स्थिति में लैंड हुये बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू का हेलीकॉप्टर नक्सलियों ने फूंक दिया था।

परंतु अब स्थितियां बदल चुकी है। यहां के मतदाता विकास के लिए बढ़-चढ़ कर मतदान करने की बात कह रहे हैं। उम्मीदवार भी निडर होकर जनसंपर्क अभियान चला रहे हैं। जहां खून खराबा का माहौल था वहां अब विकास की बात हो रही है। मुख्यधारा में लौटे कई नक्सली इस पंचायत चुनाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिस्सा ले रहे हैं।

पूर्व नक्सली नंदा सिंह बताते हैं कि जितने वर्षों तक उन्होंने बंदूक उठाये रखा वह उनके जीवन का वो काला अध्याय था। अब वे समझ चुके हैं कि बंदूक से बदलाव सम्भव नही है। क्षेत्र के विकास के लिए वे चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा ले रहे हैं। अब वे लोकतंत्र में विश्वास जता रहे हैं और ग्रामीणों के बीच घूम-घूम कर जनसंपर्क अभियान चलाकर वोट मांग रहे हैं। ताकि मौका मिलने पर क्षेत्र का विकास कर सकें।यह स्थिति नक्सल प्रभावित गया जिले का ही नहीं है बिहार के अधिकांश नक्सल प्रभावित जिलों में पंचायती राज व्यवस्था के लालू होने के बाद चीजे बदल गयी है नक्सली या तो खुद चुनाव लड़ रहे हैं या उनके समर्थक चुनाव लड़ रहे हैं इतना ही नहीं विरोध में अगर उम्मीदवार चुनावी मैदान में है भी तो उसके साथ किसी भी तरह का हिंसक घटना ना घटे इसके लिए नक्सली खुद चुनाव प्रचार के दौरान खास सतर्कता बरतता है ।

आप भी सुनिए क्या कहता है नक्सली

पेट्रोल और डीजल केन्द्र सरकार सात वर्ष में 14 लाख करोड़ का कमाई किया है

पाँच साल में सरकार को क़रीब चौदह लाख करोड़ रुपये पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्स से मिले हैं। विवेक कॉल का डेक्कन हेरल्ड में छपा लेख पढ़ सकते हैं। आख़िर केंद्र सरकार पेट्रोल और डीज़ल का दाम क्यों बढ़ाए जा रही है? जब चुनाव होते हैं तब दाम का बढ़ना कैसे रुक जाता है? क्या आप यह नहीं समझ रहे कि हर दिन आपकी जेब से सरकार कितना पैसा निकाल रही है? इससे बेहतर होता कि आयकर ही ले लेती है। पाँच लाख तक की आमदनी को टैक्स से माफ़ी देकर सरकार ने कोई तीर नहीं मारा था। इतने कम कमाने वालों से टैक्स के नाम पर मिलता ही क्या लेकिन कारपोरेट का टैक्स कम कर सरकार ने दूसरे रास्ते से भरपाई का रास्ता निकाल लिया है। पेट्रोल डीज़ल पर टैक्स लगा कर। आज भी दाम बढ़े हैं। धर्म की राजनीति का यह सबसे सफल प्रदर्शन है। धर्म लोगों का नागरिक विवेक नष्ट कर देता है। अब सरकार लोगों के शरीर से ख़ून भी चूस लें तो लोग कहेंगे कि धार्मिक सुरक्षा और पहचान के लिए ये कुछ भी नहीं ।

आज दिल्ली में पेट्रोल 103.24 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 91.77 रुपये प्रति लीटर हो गया। मुंबई में पेट्रोल 109.25 रुपये प्रति लीटर और डीज़ल 99.55 रुपये प्रति लीटर हो गया।

आर्थिक मोर्चे पर फेल सरकार के पास कोई रास्ता नहीं बचा है। आपके बौद्धिक मोर्चे पर फेल हो जाने का लाभ उठाएँ और जेब से पैसे निकाल ले। धर्म की विजय हो।

लेखक –रवीश कुमार

माँ दुर्गा डोली पर सवार होकर आयी है और हाथी पर सवार होकर लौटेगी।

आज से पूरा बिहार माँ दुर्गा के उपासना में डूब जायेगा आज मां दुर्गा डोली पर सवार होकर आयी है और हाथी पर सवार होकर लौटेगी इस बार शारदीय नवरात्र आठ दिन का ही होगा।

आज 7 अक्टूबर को कलश स्थापन होगा। चतुर्थ व पंचमी पूजा एक साथ होगी यह बदलाव पितृ पक्ष मेला की वजह से हुई है ।
इस बार चतुर्थी व पंचमी तिथि एक साथ होने से कुष्मांडा माता व स्कंदमाता की अराधना एक साथ होगी।

माता रानी डोली में सवार होकर आएगी। इस लिहाज से महिलाओं का वर्चस्व बढ़ेगा और मान सम्मान में वृद्धि होगी। लेकिन महामारी से लोग परेशान रहेंगे। शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि जब मां दुर्गा डोली पर सवार होकर आती है तो राजनीतिक उथल पुथल की स्थिति होती है। यह प्रभाव सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ सकता है। माता का डोली पर आना ज्यादा शुभ संकेत नहीं माना जाता। लेकिन माता का प्रस्थान हाथी पर होगा जिसे शुभ माना गया है। 15 अक्टूबर को नवरात्रि का पारण किया जाएगा और दशहरा पर्व भी मनाया जाएगा।

हाईकोर्ट ने कृषि सेवा से जुड़े अधिकारी के नियुक्ति प्रक्रिया शीघ्र पूरा करने का दिया निर्देश।

पटना हाई कोर्ट ने बिहार कृषि सेवा में डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर समेत अन्य पदों पर बहाली के मामले पर सुनवाई करते हुए चयन प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने का निर्देश बीपीएससी को दिया है। चीफ जस्टिस संजय करोल संजय करोल की खंडपीठ ने मनोज कुमार सिंह व अन्य की याचिका पर सुनवाई की।

235 पदों पर बहाली के लिए बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा विज्ञापन निकाला गया था। अधिवक्ता कुमार कौशिक ने कोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ताओं ने बिहार एग्रीकल्चर सर्विस कैटेगरी – 1 के रूल्स कैडर (अपॉइंटमेंट, प्रमोशन) रूल्स, 2014 को चुनौती दी थी।

इसके तहत संविदा सेवा को वेटेज नहीं देने का प्रावधान है। याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति संविदा पर जिला स्तर पर डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर, प्रोजेक्ट डायरेक्टर के पदों पर की गई थी। 27 मार्च, 2018 को कोर्ट ने रिजल्ट के अंतिम प्रकाशन पर रोक लगा दिया था, लेकिन परीक्षा लेने की अनुमति दे दी थी।

तीन अप्रैल 2018 को मुख्य परीक्षा का संचालन किया गया। 07 नवंबर, 2019 को मुख्य परीक्षा का रिजल्ट घोषित किया गया था।

आजादी के बाद देश में फैले हिंसा के दौरान 84 दिन गाँधी पटना में रहे थे ।

महात्मा गाँधी और मेरे परदादा मंज़ूर सुब्हानी की साथ की तस्वीर। 20 मार्च से 30 मार्च 1947 तक महात्मा गांधी बिहार में ही रहकर दंगे की आग में झुलस रहे लोगो से शांति का प्रयास कर रहे थे।इस दौरान वे मसौढ़ी, पटना, हांसदीह, घोड़ौआ, पिपलवां, राजघाट, जहानाबाद, घोसी, अमठुआ, ओकरी, अल्लागंज, बेला, जुल्फीपुर, अबदल्लापुर, बेलार्इ, शाइस्ताबाद आदि स्थानों पर मुस्लिम लीग के सदस्यों, हिन्दू महासभा के सदस्यों, स्त्री-पुरुष मुसलमान शरणार्थियों से मिले एंव ग्राम प्रतिनिधियों, पुलिसकर्मियों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से बातचीत की।

गाँधी बिहार में

प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना-प्रवचन किये।
राष्ट्रपिता महात्मा हमारे पूर्वजों के गाँव ज़ुल्फीपुर (मोदनगंज)भी पहुँचे थे ।वहाँ साम्प्रदायिक दंगे में हुई छति का जायज़ा लेने पहुँचे गाँधी जी ने हमारे परदादा मंज़ूर सुब्हानी जो कि स्थानीय जमींदार थे से विस्तृत जानकारी ली ।

दंगे में उस वक़्त हमारे पूर्वजो को भी वह जगह छोड़नी पड़ी थी परिवार के औरतें खुद को उस इंसानियत खो चुकी भीड़ से बचने के लिए घर के पास बने कुआँ में बच्चों संग छलांग लगा दी थी ।

ये तस्वीरे उसी कुँए की है जिसे देखने अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देखने पहुँचे थे। दंगे के बाद तब हमारे परदादा वहाँ गांधी जी के साथ खड़े थे वही कुआँ को दर्शाते हुए पूरी कहानी उन्हें बता रहे थे। गांधी जी इतनी भी हिम्मत नही हो पा रही थी वो कुआँ अंदर झांके बहुत भयावह हाल था।

परिवार के जो लोग वहाँ से भाग निकले थे वह काको आ कर बसे और यहाँ मकान बना ।
तसवीरें हमारे उसी पैतृक घर की है जो घर दंगे के कारण वीरान हो चुका था गांधी जी उसी घर का मुआयना करते नज़र आ रहे हैं। इससे ज़्यादा कहानी न मैं लिख पाऊंगा न आप पढ़ पाएंगे ।

गाँधी चंपारण में

बिहार के इसी कौमी दंगों में अथक दौरा करते गांधीजी ने मार्च 1947 में बिहार के सर्वमान्य नेताओं से सार्वजनिक रूप से पूछाः ” आपसे पूछना चाहता हूं कि आपकी आंखों के सामने 110 साल की उम्र वाली महिला का कत्ल हुआ और आप उसे देख कर भी जिंदा हैं तो कैसे ? …न मैं शांत बैठूंगा, न आपको बैठने दूंगा।… मैं पांव पैदल सारी जगहों पर भटकूंगा और हर कंकाल से पूछूंगा कि उसके साथ क्या हुआ… मेरे भीतर ऐसी आग धधक रही है जो मुझे तब तक शांति से बैठने नहीं देगी जब तक मैं इस पागलपन का कोई इलाज न खोज लूं। और अगर मुझे यह पता चला कि मेरे साथी मुझे धोखा दे रहे हैं तो मैं उबल ही पडूंगा और आंधी-तूफान कुछ भी हो, मैं नंगे पांव चलता ही जाऊंगा…”

बस इससे ज़्यादा अब मैं नहीं लिख पाऊंगा पर वो वक़्त तो गुज़र गया पर आज भी उन घटनाओं को किताबो में पढ़ता हूँ तो आंसू आज भी नही रुकते।

मत्स्य पालकों के बीच डॉल्फिन के बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रम का हुआ आयोजन

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार के द्वारा दिनांक 6 अक्टूबर को’ एन आई टी घाट, पटना में मत्स्य पालकों के बीच डॉल्फिन के बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया। जिसका उद्घाटन ‘‘श्री नीरज कुमार सिंह’’, माननीय मंत्री, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार सरकार के कर-कमलों द्वारा किया गया। उक्त अवसर पर श्री दीपक कुमार सिंह, प्रधान सचिव, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, बिहार सरकार उपस्थित रहे।

जागरूकता कार्यक्रम के साथ , मत्स्य पालकों के बच्चों के बीच खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया गया। साथ ही उनके प्रोत्साहन हेतु, उनके बीच पुरुस्कार भी वितरित किया गया।

माननीय मंत्री ने अपने संबोधन में लोगों से डॉल्फिन के बचाने को अपील की, उन्होंने कहा कि हमारी और आपकी आपसी समझ और समन्वय से ही इनका बचाव करना सुलभ होगा। आपको बिहार सरकार,इस कार्य के लिए प्रोत्साहित करती रहेगी। साथ ही आपके जीवकोपार्जन में किसी प्रकार की दिक्कत न हो उसका भी उपाय हम करेंगे।

आप सबों से मेरी यह गुजारिश है कि कृपया इसके बचाव में जो बन पड़े कीजिए, साथ ही लोगों को भी अपने से जोड़ जागरूक कीजिए। आज आपके बच्चों ने अपनी बेहतर कला का प्रदर्शन किया और डॉल्फिन को बचाने में अपनी समझ को दर्शाया, यह अत्यंत ही सराहनीय है। मैं आप सभी का आभारी हूं, जो आज आप कर रहे हैं, वह हमारा बेहतर कल में दिखेगा।

प्रधान सचिव ने लोगों से गंगा को स्वच्छ रखने और इसे प्रदूषित न करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यह धरती सभी की है जिस पर मानवों के साथ अन्य सभी जीव जंतुओं और जलीय जीवों का अधिकार है। कृपया इसे बचाया जाए, जिससे जैव विवधता और पारिस्थिति तंत्र संतुलित रहे। मुख्य वन्य प्राणी प्रतिपालक और डॉल्फिन मैन प्रोफेसर आर के सिन्हा ने भी अपने विचार रखे।

इस अवसर पर श्री आशुतोष, प्रधान मुख्य वन संरक्षक (Hoff) बिहार, श्री प्रभात कुमार गुप्ता, श्री गोपाल शर्मा, अंतरिम प्रभारी, राष्ट्रीय डाॅल्फिन शोध केन्द्र, पटना के साथ श्री शशिकांत कुमार DFO, Park पटना, DFO Patna उपस्थित रहे।