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कोठे की तवायफ़ और एक बिका हुआ पत्रकार , दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं।

जिस दौर में सुनील दत्त अपने बेटे संजय दत्त के लिए लड़ाई लड़ रहे थे उस समय बाल मन बार बार सोचता था सुनील दत्त जैसा व्यक्तित्व के साथ कांग्रेस को खड़े रहना चाहिए था।

गुस्सा आता था कांग्रेस पर, मुंबई पुलिस पर सुनवाई कर रहे जज पर ।आखिर संजय दत्त ने ऐसा क्या अपराध कर दिया जो सारे लोग उससे मुख मोड़ लिया, ना उसके पास से कोई हथियार बरामद हुआ था और ना ही उस हथियार से किसी की हत्या हुई थी फिर भी पूरा सिस्टम सुनील दत्त के साथ ऐसा व्यवहार कर रहा था जैसे वो दाऊद का पिता हो।

बाल मन था उस समय सोचने का नजरिया कुछ ऐसा ही था ।दिल्ली जब पढ़ाई के लिए पहुंचे तो उसी दौरान 1996 में लॉ फैकल्टी में पढ़ाई कर रही छात्रा प्रियदर्शिनी मट्टू की हत्या कर दी गयी थी उस हत्या के आरोप में लाॅ फैकल्टी के ही सीनियर संतोष सिंह पर बलात्कार करके हत्या करने का आरोप लगा संतोष सिंह के पिता उस समय दिल्ली पुलिस में डीसीपी थे संतोष सिंह की गिरफ्तारी ही नहीं हुई बाद में सजा भी हुआ ।

बाद में दिल्ली में ही 1999 में हरियाणा के नेता और बड़े कारोबारी का बेटा मनु शर्मा ने जेसिका लाल का मर्डर कर दिया था इस केस में भी बस उसकी बहन खड़ी हो गयी तो सिस्टम चाह करके भी कुछ नहीं कर पाया। इसी तरह याद करिए नीतीश कटारा हत्याकांड मामला नीलम कटारा खड़ी हो गयी तो बाहुबली डीपी यादव अपने बेटे को बचा नहीं पाया याद करिए प्रमोद महाजन के बेटे राहुल महाजन का मामला सत्ता का कोई लाभ मिलता हुआ नहीं दिखा।

याद करिए वो दौर जब प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के लिए विज्ञान भवन में अस्थायीजेल बनाया गया था क्यों पीएम पर भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले की सुनवाई चल रही थी और हो सकता है पीएम को सजा हो जाये मतलब ऐसा हो सकता है इसको देखते हुए अस्थायी जेल उसी अधिकारी ने बनवाया जो दिन रात पीएम को सैल्यूट मारता था ।

और आज इसी देश में एक मंत्री के बेटे पर हत्या का आरोप है पुलिस गिरफ्तार करने के बजाय सम्मन जारी कर रहा है लेकिन वो पुलिस के सामने उपस्थित नहीं होता है ।आज दूसरे दिन भी पुलिस मंत्री के आवास पर सम्मन चिपका कर लौट आया है लेकिन अभी तक हाजिर नहीं हुआ है ।

सुप्रीम कोर्ट सवाल कर रही है हत्या के आरोपी के घर सम्मन क्यों अभी तक गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई है लेकिन सरकार और सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट के इस टिप्पणी का कोई असर होता नहीं दिख रहा है। याद करिए ये वही देश है ना जहां निर्भया रेप मामले में पूरा देश सड़क पर आ गया था ये वही देश है ना जहां सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा हुंकार भरा की अन्ना रातो रात देश की दूसरा गांधी बन गये ,सब कुछ तो वैसा ही है वही दिल्ली पुलिस है, वही सुप्रीम कोर्ट है, वही पीएम हाउस है, वही राष्ट्रपति भवन है ,वही राजपथ है फिर ऐसा क्या बदला जो पूरी व्यवस्था बाहुबलियों, मंत्री और दुराचारी के सामने घुटने के बल पर रेंगने लगा इतने सारे उदाहरण के बाद यह मत पूछिए सीता किसकी जोड़ी मतलब यह सब इसलिए हो रहा है कि मीडिया अपना काम कर छोड़ दिया है।

मंटो ने सही ही कहां था कि कोठे की तवायफ़ और एक बिका हुआ पत्रकार , दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं।लेकिन इनमें तवायफ़ की इज्जत ज्यादा होती है। इसी तरह गांधी ने कहा था “मैं कहूंगा कि ऐसे निकम्मे अख़बारों को आप फेंक दें जो आपकी बात नहीं करता है सरकार से सवाल नहीं कर सकता है ।

चलिए निराशा के बीच एक अच्छी खबर भी है दुनिया ने पहली बार पत्रकारों को नये आयाम से देखना शुरु किया और पहली बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए जूरी ने इस बार दो पत्रकार को चुना है।समस्या ये नहीं है हम भारतीय में क्षमता नहीं है समस्या यह है कि हमने लड़ना छोड़ दिया है सुविधाभोगी हो गये हैं परिवार और बच्चों के भविष्य को लेकर इस तरह उलझ गये हैं कि आज सब कुछ दाव पर लग गया है ।

ऐसा नहीं है मीडिया हाउस चलाने वाले पहले दबाव नहीं बनाते थे फिर भी पत्रकारिता को बचाये रखने की जिम्मेवारी संपादक और पत्रकारों के हाथ में था आज हम ही विचारधारा के नाम पर तो चंद पैसे और सुविधा के नाम पर अपना सब कुछ दाव पर लगा दिये है।

मुझे समझ में नहीं आता है सिस्टम बचेगा तब ना हम आप बचेंगे ये अलग बात है कि अभी तक वो आग हमारे आपके घर तक नहीं पहुंचा है इस खुशफहमी में मत रहिए देर सबेर मेरे आपके घर भी जरूर पहुंचेगा कोरोना काल में महसूस हो ही गया होगा इसलिए देश रहेगा तो हम आप भी रहेंगे आपका विचारधारा भी रहेगा देश ही नहीं रहेगा तो फिर हम आप कहां रहेंगे ।

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