चार माह तक चलने वाली बिहार राज्य पंचायत चुनाव का महापर्व जिला परिषद के अध्यक्ष के चुनाव के साथ ही सम्पन्न हो गया । लेकिन इस बार का पंचायत चुनाव एक बड़ा सवाल छोड़ गया है क्या गांधी, लोहिया और जेपी इसी पंचायत की परिकल्पना कर रहे थे क्यों कि चुनाव में जिस तरीके से धनबल का इस्तेमाल हुआ है कभी सोचा भी नहीं जा सकता है । वार्ड सदस्य से लेकर जिला परिषद के सदस्य बनने तक और फिर उप मुखिया से लेकर प्रखंड प्रमुख और जिला परिषद के अध्यक्ष बनने में एक अनुमान के अनुसार कम से कम तीन सौ करोड़ रुपया का निवेश वोटर और चुनाव जीत कर आये प्रतिनिधियों पर हुआ है । अब सवाल यह उठता है कि चुनाव जीतने के लिए इस स्तर पर पैसे का जो निवेश हुआ है उसका उदेश्य क्या है एक तो विधायक और सांसद के टिकट मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है दूसरा ग्रामीण विकास से जुड़ी योजनाओं से पैसा कमाना यह कैसे सम्भव है इसके लिए यह समझना जरूरी है कि ये जो पंचायत प्रतिनिधि चुन कर आये हैं ये पांच वर्षों तक करेंगे ।
- वार्ड सदस्य –वार्ड के विकास की योजनाओं का चयन करेंगे।
- मुखिया —पंचायत स्तर पर विकास की योजनाओं का चयन करेंगे ।
- पंचायत समिति सदस्य–इनके क्षेत्र में जितना भी पंचायत आयेगा उससे जुड़ी विकास योजनाओं का चयन करेंगे ।
- जिला परिषद सदस्य–इनके निर्वाचन क्षेत्र में जो भी पंचायत आयेगा उसके विकास की योजनाओं का ये चयण करेंगे ।
अब जरा ये भी जान लीजिए कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत ग्रामीण विकास का काम करने के लिए पैसे का कैसे बंटवारा होता है भारत सरकार ग्रामीण विकास को लेकर जो राशि देती है उसमें 70 प्रतिशत राशी पंचायत को , 20 प्रतिशत राशी पंचायत समिति को और 10 प्रतिशत राशि जिला परिषद को विकास के कार्यों में खर्च करने के लिए दिया जाता है। बात वार्षिक खर्च कि करे तो एक जिले में वर्ष में कम से कम पंचायती राज व्यवस्था के द्वारा ग्रामीण विकास के लिए भारत सरकार की और से 40 से 50 करोड़ रुपया आता है मतलब हर प्रखंड को दो से तीन करोड़ रुपया का हिस्सा मिलता है और उस राशि को लेकर ये सारा खेल खेला गया है ।ऐसी स्थिति में पंचायती राज व्यवस्था से क्या उम्मीद की जा सकती है । चलते चलते पंचायती राज व्यवस्था का राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इस भी चर्चा कर ही लेते हैं पंचायती राज व्यवस्था के तहत पहली बार ऐसा देखा गया है कि मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व लगातार पंचायत में कम होता जा रहा है इस बार किशनगंज और पूर्णिया जिला परिषद का अध्यक्ष मुसलमान बना है प्रखंड प्रमुख और मुखिया में भी यही स्थिति है।
हलांकि आरक्षण के बावजूद जातीय वर्चस्व में अभी भी कोई खास कमी नहीं आयी है वही बात राजनीतिक दल की करे तो पूरे चुनाव के दौरान राजनीतिक दल के चाहने के बावजूद भी एनडीए और महागठबंधन जैसी बात कहीं नहीं दिखी ,मोतिहारी और समस्तीपुर में तो भाजपा और राजद जिला परिषद के चुनाव में एक साथ आ गये इसी तरह बेगूसराय में रतन सिंह भले ही चुनाव हार गये लेकिन जिला परिषद का उनका कब्जा बरकरार रहा इसलिए इस चुनाव का कोई खास राजनीतिक यर्थाथ निकलता हुआ नहीं दिख रहा है बस पैसे का खेल सर्वोपरि रहा ।