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Posts published in “ज़रा सोचिए”

मिशन 2024 की सफलता के लिए नीतीश को अपनी छवि बनाए रखनी होगी

मिशन 2024 की सफलता बिहार के कानून व्यवस्था की स्थिति पर निर्भर करेगा ।
—–बेगूसराय की घटना सरकार के साख पर सवाल है—–

बेगूसराय फायरिंग मामले की जांच के दौरान बिहार पुलिस मेंं प्रोफेशनलिज्म की कमी साफ देखने को मिला,ऐसे में मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जो बिहार की पुलिसिंग पर खास नजर रखती है बेहद चिंता का विषय है।इस घटना के जांच के दौरान पुलिस की जो प्रवृत्ति देखी गयी है उससे आने वाले समय में अब हर घटना को जाति के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और इसका प्रभाव राज्य के कानून व्यवस्था पर पड़ेगा यह तय है।

बेगूसराय फायरिंग मामले मेंं गिरफ्तार अपराधियों के खिलाफ साक्ष्य है लेकिन उस साक्ष्य को लेकर जिस स्तर तक पुलिस को काम करने कि जरुरत थी उसमें साफ कमी देखने को मिल रही है और इसका असर यह हुआ कि पुलिस बेगुनाह लोगों को जेल भेज दिया है ऐसी बात चर्चा में आनी शुरु हो गयी है और इस घटना में जो अपराधी शामिल है उसको पुलिस बचा रही है।

घटना 13 तारीख के शाम की है बेगूसराय पुलिस का हाल यह था कि 24 घंटे तक वो अंधेरे में ही तीर चला रहा था ,14 तारीख की शाम को पुलिस ने दो तस्वीर जारी किया और कहा कि यही वो चार अपराधी जो दो मोटरसाइकिल पर सवार होकर इस घटना को अंजाम दिया है। इतने महत्वपूर्ण केस में 15 तारीख की शाम मीडिया में खबर आने लगी कि इस कांड में शामिल अपराधी पकड़े गये और इस घटना में शामिल अपराधियों का नाम क्या है यह भी मीडिया में चलने लगा जबकि उस समय तक सभी कि गिरफ्तारी भी नहीं हुई थी उन अपराधियों का नाम कैसे बाहर आ गया बड़ा सवाल है।

फिर 16 तारीख के अहले सुबह बेगूसराय पुलिस के इनपुट पर झाझा रेलवे स्टेशन पर तैनात जीआरपी ने केशव उर्फ नागा को पकड़ा जो इस मामले की सबसे बड़ी गिरफ्तारी थी क्यों कि उससे पूछताछ के दौरान इस घटना के पीछे का खेल सामने आ सकता था लेकिन हुआ क्या जीआरपी थाना के प्रभारी फोटो खिंचवा कर 5 बजे सुबह में ही मीडिया को तस्वीर के साथ उसके गिरफ्तारी को सार्वजनिक कर दिया और मीडिया को फोनिंग देने लगा इसका असर यह हुआ कि 10 बजे नागा गैंग से जुड़े लोग बिहट चौक पर स्थित कुणाल लाइन होटल के सीसीटीव का फुटेज जारी कर बेगूसराय पुलिस की पूरी कार्रवाई पर ही सवाल खड़ा कर दिया।

देखिए जिसको पुलिस सूटर बता रही है वो घटना के समय लाइन होटल पर बैठा हुआ है जैसे ही यह खबर मीडिया में आयी बेगूसराय पुलिस सकते में आ गया और फिर पूछताछ छोड़ कर कितनी जल्दी इसको जेल भेजा जाए इस पर काम करना शुरू कर दिया ।

इसका असर यह हुआ कि केस का पूरी तौर पर खुलासा नहीं हो पाया बहुत सारी बाते सामने नहीं आ सकी और इस वजह से एसपी के सामने प्रेस रिलीज पढ़ने के अलावे को दूसरा चारा नहीं था । क्यों कि उनके पास क्रॉस क्यूसचन का जवाब नहीं था यही स्थिति एडीजीपी मुख्यालय का रहा मीडिया वाले सवाल करते रहे गिरफ्तार अपराधियों में गोली चलाने वाला कौन था नाम तक बताने कि स्थिति में वो नहीं थे ,केशव उर्फ नागा के होटल में बैठे होने कि बात सीसीटीवी में कैद होने पर सवाल किया गया तो कहां गया ये सब घटना की साजिश में शामिल थे, साजिश क्या है तो यह अनुसंधान का मसला है इस तरह से सवाल जवाब ने पुलिस के कार्रवाई को और भी संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया और सुशील मोदी और गिरिराज सिंह जैसे नेताओं को इस मामले की सीबीआई और एनआईए से जांच की मांग करने का मौका मिल गया।

इतने संवेदनशील मामले में इससे पहले कभी भी इस तरह की बाते देखने को नहीं मिली है पुलिस वाले सूचना लीक कर रहे थे और झाझा जीआरपी ने तो हद कर दी तस्वीर तक जारी कर दिया जो दिखाता है कि बिहार पुलिस की कार्य प्रणाली पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है।

याद करिए 1995 से 2005 का दौर राज्य में जो भी आपराधिक घटना घटित होता था सरकार उसको जाति से जोड़ देता था इस वजह से बिहार की पुलिसिंग धीरे धीरे कमजोर होती चली गयी वही सरकार के इस प्रवृत्ति का लाभ उठाते हुए अपराधियों ने भी अपने अपराध को छुपाने के लिए पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए जाति से जोड़ना शुरू कर दिया और धीरे धीरे पूरी व्यवस्था जाति के आधार पर एक दूसरे के साथ खड़े होने लगी और उसी का असर था कि बिहार की कानून व्यवस्था पटरी से उतर गया।

नीतीश कुमार इसी व्यवस्था पर चोट करके राज्य में कानून का राज्य स्थापित करने में कामयाब रहे थे लेकिन पहली बार वो किसी घटना को जातिवादी आधार से जोड़ते हुए बयान दिया और इसका असर बेगूसराय फायरिंग मामले में पुलिस के कार्यशैली पर साफ दिखाई दिया है।

हालांकि इसके लिए सिर्फ लालू प्रसाद या नीतीश कुमार ही जिम्मेवार नहीं है सुशील मोदी और गिरिराज सिंह जैसे नेता के साथ साथ यहां के सवर्णवादी मानसिकता वाले जो लोग है वो भी कम जिम्मेदार नहीं है क्योंकि उनको भी इसी तरह की राजनीति सूट करता है ।

बेगूसराय की घटना पूरी तरह से अपराधिक घटना है और सरकार या फिर किसी जिले में एसपी बदलने के बाद अपराधियों की यह प्रवृत्ति रही है कि इस तरह की घटना करके वह देखना चाहता है कि सरकार और पुलिस प्रशासन की सोच क्या है ।
याद करिए नीतीश कुमार 2005 में जब सत्ता में आये थे तो शुरुआती एक वर्ष तक किस तरीके से अपराधी सरकार को लगातार चुनौती दे रहे थे लेकिन जैसे ही अपराधियों को यह समझ में आ गया कि सरकार,कोर्ट और सत्ता में बैठे अपनी जाति वाले अधिकारियों से अब मदद मिलने वाली नहीं है स्थिति धीरे धीरे सुधरने लगी।

लेकिन बेगूसराय की घटना के बाद अपराधी और असामाजिक तत्व एक बार फिर से सिस्टम में बैठे अधिकारियों और नेताओं पर दबाव बनाना शुरु कर सकते हैं इस उदाहरण के साथ की मेरे साथ जाति के आधार पर भेदभाव हो रहा है हालांकि इस सोच को कितना बल मिलेगा यह कहना मुश्किल है लेकिन इन नेताओं की यही कोशिश होगी कि इस आधार पर समाज को बांटा जाये।

सफेद हीरे की लूट की काली कहानी

चलिए आज हम आपको बताते है सफेद हीरे की लूट की कहानी।
चौकिए मत बिहार में झारखंड के अलग होने के बाद भले ही काले हीरे की लूट बंद हो गयी लेकिन सफेद हीरे की लूट बदस्तूर जारी है ।
क्या है सफेद हीरे की लूट की कहानी देखिए हमारी खास रिपोर्ट :-

कब तक हम लोग बुनियादी सवालों से मुख मोड़ते रहेंगे पिछले कई दिनों से यूरिया खाद को लेकर बिहार के किसान परेशान है सुबह तीन बजे लाइन में खड़े हो जाते हैं इस उम्मीद से कि एक बोरा भी यूरिया मिल जाये यह कहानी किसी एक जिले का नहीं है यह पूरे बिहार का मसला है और यह कोई इसी वर्ष का मसला नहीं है हर वर्ष जब किसान को धान और गेहूं के लिए यूरिया की जरूरत महसूस होती है तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिलता है ।

हम मीडिया वाले भी इस खबर को बस रूटीन खबर मानते हुए जब तक हंगामा चलता रहता है खबर किसी बुलेटिन में चला कर अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ अखबार वाले भी करते हैं और कही किसी पेज पर छोटी सी तस्वीर के साथ खबर लगाकर गंगा स्नान कर लेते हैं।

लेकिन यह समस्या क्यों है इस पर कभी उस तरीके से ध्यान नहीं दिये संयोग से खाद को लेकर बिहार के अलग अलग हिस्सों में हो रहे हंगामे की खबर पर बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल का एक बयान आया कि सरकार फेल है दुकानदार किसान को एक बोरा खाद लेने के लिए छाता और मछरदानी खरीदने का शर्त लगा रहा है केन्द्र सरकार की और से बिहार को प्रयाप्त खाद दी गयी है फिर भी खाद के लिए किसान परेशान है कालाबाजारी हो रहा है और हजार रुपया में एक बोरा खाद लेने को मजबूर है किसान।

बीजेपी नीतीश कुमार के साथ 2005 से लेकर 2022 (चार वर्ष छोड़कर)तक सरकार में साथ रही है सुशील मोदी से लेकर बीजेपी के तमाम बड़े नेता नैनो यूरिया लाने को बड़ी उपलब्धि मानते हुए बड़ी बड़ी बातें करते रहे हैं बरौनी में खाद कारखाना खोलने का श्रेय बीजेपी ले ही रही है तो फिर खाद किसानों को मिल क्यों नहीं रहा है ।

मेरे लिए ये बड़ा सवाल था क्यों कि मेरे गांव के जो छोटे छोटे किसान हैं वो कल भी यूरिया के लिए मुझे फोन कर रहे थे हालांकि इस तरह का फोन गेहूं और धान के हर सीजन में आता है और ये कोई पहली बार नहीं आया था ।

#स्वराज पर मैंने ये पूरी खबर पोस्ट करते हुए बीजेपी से भी सवाल किया कि सरकार से निकले जुम्मे जुम्मे एक माह भी नहीं हुआ है और आप सरकार से सवाल कर रहे हैं ये कोई इस बार की तो समस्या तो है नहीं । पता नहीं कैसे #स्वराज के इस खबर पर कृषि मंत्री सुधाकर सिंह की नजर पड़ गयी और उन्होंने मिलने की इच्छा व्यक्त की निर्धारित समय पर मैं पहुंच गया लेकिन मंत्री जी को आने में थोड़ा वक्त लगा, लेकिन आने के साथ ही करीब चार घंटे का समय उन्होंने मुझे दिया और इस दौरान बिहार में खाद के नाम पर हो रहे खेल को समझने का मौका मिला जहां कहीं भी लगता था ये क्या है और सवाल करते तो मंत्री जी मुझसे आग्रह करते थे कि यह सच जनता के सामने आना चाहिए।

अब जरा सफेद सोना के इस लूट को आप भी समझिए यूरिया के उठाव और वितरण की पूरी प्रक्रिया क्या है पहले ये समझिए। बिहार में धान का कटोरा रोहतास से आरा तक माना जाता है जहां सोन नहर के कारण धान की जबरदस्त खेती होती है और बात उत्तर बिहार की करे तो बड़े स्तर पूर्वी और पश्चिमी चंपारण के साथ साथ दरभंगा और मधुबनी है जहां धान मुख्य फसल है।

लेकिन यूरिया की आपूर्ति मांग के अनुरूप 90 प्रतिशत से अधिक कटिहार ,जमुई ,किशनगंज, सहरसा ,सुपौल,मधेपुरा और पूर्णिया जिले को अभी तक मिल चुका है इतना ही नहीं जिन जिलों में मौसम विभाग का डाटा है कि बरसात सबसे कब हुई है और पूरे जिले में सुखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और कृषि विभाग मान रही है कि यहां 10 से 15 प्रतिशत ही धान की खेती हुई है उन जिलों में भी मांग के अनुसार 60 से 70 प्रतिशत यूरिया किसानों के बीच वितरण चुका है वहीं भोजपुर,बक्सर ,रोहतास और कैमूर को मांग के अनुरूप मात्र 50 प्रतिशत यूरिया ही मुहैया कराया गया है ।

यही स्थिति उत्तर बिहार के धान वाले इलाके की है दरभंगा और मधुबनी को भी मांग के अनुरूप 54 से 56 प्रतिशत ही यूरिया मुहैया कराया गया है। डाटा देख कर मैं हैरान रह और मंत्री जी से मैंने सवाल किया ये क्या खेल है नेपाल और बांग्लादेश से सटे बॉर्डर वाले जिलों में सबसे ज्यादा खाद की आपूर्ति हो रही है जबकि यहां उस तरह के खेती का इलाका भी नहीं है ।संतोष जी ये डाटा मेरा नहीं है पूर्व मंत्री जी के कार्यकाल का है बस इस डाटा के सहारे आप खेल को समझ सकते हैं ।

मतलब इस सफेद सोना के खेल में ऊपर से नीचे तक सबके सब शामिल है नेपाल और बांग्लादेश में यूरिया की कीमत 1200 से 1500 सौ रुपया प्रति बोरा है और अपने यहां 250 से 300 रुपया के बीच है ,अब आप समझ सकते हैं कि बिहार की यूरिया से कहां का धान और गेहूं लहलहा रहा है।

बात यहीं खत्म नहीं होती है बिहार में यूरिया जो भारत सरकार के कारखाने से चलती है उसके रैक प्वाइंट की सूची जहां खाद रखा जाता है इस सूची को देखकर आप हैरान रह जायेंगे।

खाद कंपनी धान वाले इलाकों में स्थित रैक प्वाइंट पर रैक कम भेज रहा है और उन इलाकों में ज्यादा भेज रहा है जहां धान की खेती कम होती लेकिन वो नेपाल और बांग्लादेश के बॉर्डर के करीब है। जैसे जैसे मैं इस खबर पर बढ़ रहा था तो मुझे लगा कहां हम लोग एक मरे दो घायल और पांच करोड़ कैश के साथ इंनजियर पकड़े जाने वाली खबर के चक्कर में पड़े रहते हैं यहां तो एक सीजन में बैठे बिठाए 10 हजार करोड़ का खेल एक माह में हो जा रहा है ।

ये है भ्रष्टाचार का संस्थागत खेल जहां बस यू ही चलता रहता है किसान और गरीबी मिटाने के नाम पर और हम लोग बात करते रहते हैं थाना वाला चोर है,सीओ चोर है, ब्लांक और थाने में भ्रष्टाचार चरम पर है ।

बिहार में बहार है; जहां देखे उधर कदाचार है

“ये बिहार है भाई; हम ना सुधरेंगे और ना ही सुधरने देंगे”
जी हां, एक बार फिर बिहार परीक्षा में चोरी को लेकर सुर्खिया बटोर रहा है मामला भोजपुर जिले से जुड़ा है जहां जैन कॉलेज में शुक्रवार को बीएड की परीक्षा के दौरान बड़े पैमाने पर कदाचार की सूचना पर पहुंंचे डीएम को दिन में तारे दिखायी देने लगा।

परीक्षा हांल का हाल देख हैरान डीएम राजकुमार ने त्‍वरित कार्रवाई करते हुए 50 से ज्‍यादा परीक्षार्थियों के पास से मोबाइल और 100 से ज्यादा चोरी करने के लिए पासपोर्ट, चिट-पुर्जा की बरामदगी हुई।डीएम ने मामले पर कड़ा संज्ञान लेते हुए कहा कि आज की परीक्षा रद की जाएगी। उन्‍होंने कहा कि आज की परीक्षा रद करने की अनुशंसा कुलपति से की जाएगी।

डीएम को मिली थी कदाचार की सूचना
बताया जाता है कि जैन कालेज के दो कमरों में बीएड की परीक्षा चल रही है। इसी दौरान जिला प्रशासन को सूचना मिली कि वहां बड़े पैमाने पर कदाचार हो रहा है। परीक्षार्थी जमकर नकल कर रहे हैं। इसके बाद डीएम अफसरों के साथ वहां पहुंचे। डीटीओ चितरंजन प्रसाद, जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी मंजूषा चंद्रा, डीआरडीए के डायरेक्टर सुनिल कुमार पांडे, एसडीओ लाल ज्योति नाथ शाहदेव समेत आधा दर्जन से ज्यादा अफसरों के वहां पहुंचने से हड़कंप मच गया।

जब जांच-पड़ताल शुरू की गई तो वहां की स्‍थि‍ति देख डीएम हैरान रह गए। मोबाइल और चिट-पुर्जे की भरमार लग गई। इसे गंभीरता से लेते हुए डीएम ने कहा कि आज की परीक्षा रद करने की अनुशंसा किया है साथ ही 80 परीक्षार्थियों को निष्‍कासित किया गया है।

एचडी जैन कालेज परीक्षा केंद्र पर आर्यभट्ट विश्वविद्यालय के बीएड, पार्ट टू की परीक्षा चल रहा था ।

करोड़ों की लागत से बन गया पुल, लेकिन एप्रोच पथ नहीं होने से कोई फायदा नहीं; हाई स्कूल, पंचायत भवन और गांव में वाहन जाना मुश्किल

पूर्ण निर्माण निगम ने एक करोड़ रुपए से ज्यादा की लागत से पुल का निर्माण तो कर दिया। लेकिन करोड़ों रुपए लागत का कोई फायदा नहीं हुआ। पुल के दोनों तरफ एप्रोच पथ नहीं है ऐसे में बरसात के दिनों में रास्ता बंद हो जाता है। ये हाल है कभी लाल कॉरिडोर के नाम से जाना जाने वाला भवानीचक सुरूंगापुर गांव का।


ग्रामीण बताते हैं के बरसात के सीजन में सबसे ज्यादा दिक्कत लड़कियों को होती है।
पुल के बगल में किसान उच्च विद्यालय भवानी चक है। जहां सैकड़ों की संख्या में लड़कियां और लड़के पढ़ने आते हैं। छात्रों का कहना है कि सरकार की तरफ से साइकिल तो मिल गए लेकिन आना पैदल ही पड़ता है। वही स्कूल के प्रधानाध्यापक भी सड़क की कमी की बात कहते हैं, लेकिन साथ ही दूसरी कमियों का रोना भी रोते हैं।


सड़क की बात को लेकर हमने आरडब्ल्यूडी से बात की। एसडीओ ने बताया इसकी जानकारी उनको भी है साथ ही भरोसा दिया कि हम कोशिश करेंगे कि जल्द से जल्द सड़क का निर्माण हो जाए। जहानाबाद का पश्चिम का ये इलाका कभी नक्सलियों का गढ़ माना जाता था। यह विकास की बयार ही है जिसके वजह से नक्सली अब गायब हो चुके हैं।

लेकिन सवाल है आधे अधूरे विकास से भला किसका भला होगा। जरूरत है की आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति हो।

ज़रा सोचिए : बिहार में क्यों नहीं थम रहा है पलायन

बिहार से पलायन नही रुकेगा, अव्वल तो पलायन बिहार के लिए एक अभिशाप नही बल्कि एक वरदान है । रोजगार के लिए पलायन हमेशा बुरा भी नही होता । केरल में बिहार से भी अधिक पलायन है परंतु औसत आमदनी और समृद्धि बहुत अधिक है, जिसमे रेमिटेंस सेंड बैक का बड़ा योगदान है । पलायन का नेचर और रोजगार की प्रकृति अलग है, वहां अधिकांश पलायन मिडिल ईस्ट गल्फ देशों में है। पलायन से केरल में प्रति व्यक्ति आय बढ़ी, बिहार में भी बढ़ी है ।

पलायन का सबसे बड़ा लाभ बिहार में आर्थिक के बजाय #सामाजिक स्तर पर हुआ, बिहार में गरीब गुरबों को सर उठाने का जज़्बा और हिम्मत पलायन के बल पर ही मिला । याद करिये 60 और 70 का दशक जब बिहार के गांवों में छोटी जाती के भूमिहीन मजदूरों के साथ कितना बुरा बर्ताव होता था, उनकी समाजिक स्थिति कितनी बदतर थी । उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना के रखा गया था । यदि कहूँ की, उन्हें इंसान नही माना जाता था, तो अतिश्योक्ति नही होगी । यही मजदूर जब पंजाब गया तो उसकी आमदनी बढ़ने लगी । जाहिर है इस रास्ते को श्रमिको और मजदूरों ने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर करने के माध्यम के साथ अपने आत्म स्वाभिमान को बढ़ाने के माध्यम के रूप में अपनाया, अब वो गांव के बड़े ज़मीदार की दासता से मुक्त था ।

बिहार में कृषि भूमि की औसत जोत पूरे भारत मे सबसे कम है, आबदी की वृद्धि दर सबसे अधिक है । अब भाइयों में बटवारें के पश्चात सिर्फ कृषि आमदनी से छोटे किसानों के बढ़ते परिवार को पालना कठिन होने लगा था । योजना आयोग की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत मे कृषि क्षेत्र से अविलंब 22 करोड़ अतिरिक्त लोगों को दूसरे क्षेत्र में रोजगार देने की आवश्यकता है । खेती के मजदूरों का पहले बिहार से पंजाब हरियाणा जैसे राज्यो में पलायन हुआ जहाँ कृषि भूमि की जोत बड़ी थी ।

अब बात करें बिहार के #औद्योगिकरण की: तथ्य ये है कि बिहार आजादी के कई वर्षों बाद तक देश का औद्योगिक रूप से अग्रणी एवम सम्पन्न राज्य था । शुरुआती दौर में ही सबसे अधिक चीनी मिलें, सीमेंट कारखाने, जुट मिल आदि बिहार में खुली, डालमिया नगर 3700 एकड़ का औद्योगिक शहर बसा जिसमे 40 से अधिक विभिन्न केमिकल, शुगर, डिस्टिलरी, सीमेंट, पेपर मिल की इकाइयां थी, जमशेदपुर, बोकारो, धनबाद कोल माईनस, बिहार कई प्रदेशो से आगे था, लेकिन ये प्रक्रिया गति पकड़ने के बजाय थमने लगी जिसके अनेक कारण थे:

1) भेदभाव पूर्ण नीति: #फ्रेट_इकुलाइज़ेशन की पॉलिसी ने बिहार में उद्योग लगाने के एडवांटेज को समाप्त कर दिया, कोयला, लौह अयस्क एवं अन्य खनिज बिहार से जिस दाम में मिलेंगे उसी दाम पर जब दक्षिण और पश्चिम के राज्यो में उपलब्ध होंगे तो कोई बिहार में कारखाना क्यों लगाए ।

2) #लैंड_लॉक स्टेट होने के कारण बिहार में उद्योग लगाने में डिसडवांटेज है क्यों कि अगर रॉ मटेरियल इम्पोर्ट करना है या आउटपुट एक्सपोर्ट करना है ऐसे में बंदरगाह से नजदीकी मायने रखती है ।

3) #भूमि की अनुपलब्धता – बिहार में आबादी का घनत्व अधिक है और अधिकांश भूमि कृषि योग्य है । बड़े उद्धयोग को जिस पैमाने पर भूमि की आवश्यकता होती है, बिहार में उसका सही स्थान पर प्रबन्ध कर पाना आज भी एक दुस्कर कार्य है । भूमि की दर भी बिहार में अन्य राज्यो की तुलना में बहुत अधिक है । समृद्ध राज्यो में भी जमीन बिहार से सस्ती उपलब्ध है ।

4) अब कुछ ऐसे कारण जो बिहार के औधोगिक पिछड़ेपन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहे है – #उद्यमियोंकोहेयदृष्टिसे_देखना – राज्य की जनता और प्रशासन ने कभी भी जोखिम लेकर पूंजी निवेश करने वाले, रोजगार देने वाले, उद्यमी को उसका यथोचित सम्मान नही दिया । जनता नेताओ, प्रशासनिक अधिकारीयों, पुलिस अधिकारीयों का तो सम्मान करती है लेकिन उद्यमियों के राह में बाधाएं हर स्तर पर आते है । सामाजिक कार्यक्रमो में उन्हें उद्योगपति अथवा #व्यापारी कहने के बजाए #समाजसेवी कह कर परिचित कराना पड़ता है । उनकी मेहनत और जोखिम को नजरअंदाज कर उनसे जलने वाले उन्हें हमेशा नीचे लाने को ततपर रहते है । क्या नेता, पुलिस और अफ़सर ही सम्मानयोग्य है, क्या इनमे भरस्टाचार नही, शायद बहुत अधिक, एक उद्यमी का देश की तरक्की में योगदान इनसे अधिक होता है, चाहे राज्य को दिया जाने वाला सेल्स टैक्स (अब GST) हो, या केंद्र को दिया जाने वाला आयकर (हिस्सा राज्य को भी मिलता है) अथवा डायरेक्ट इनडायरेक्ट कर्मचारियों, सप्लायर्स, ट्रांसपोर्टर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, रिटेलर्स के माध्यम से लोगो को दिए जाने वाला रोजगार हो, दूसरी और जो उत्पादन/ट्रेड वो कर रहे है अगर वो न करे तो आम लोगों के लिए वस्तुओं की उपलब्धता कम और महंगी होगी, किसानों की फसल का बेहतर मूल्य न मिले, लेकिन सारे लाभ होने के बाद भी इस राज्य ने उद्यमी को कभी भी सम्मान नही दिया, उसे हमेशा मुनाफ़ाखोर और दूसरे से काम लेकर खुद कमाने वाला के रूप में देखा, उससे लोग जलते , यही मुनाफा जब कोई बाहर की या विदेश की कम्पनी लेती है तो उसके आगे बिहार वाशी नतमस्तक रहते है । अरे मुनाफ़ा व्यापार की प्रगति और निरन्तरता के लिए परमावश्यक है, मुनाफ़ा ही नए निवेश का आधार होता है और उत्तरोत्तर प्रगति की नींव रखता है । आज बिहार में हर जिले में बन्द पड़ी सरकारी और निजी चीनी मिल, फर्टीलाइजर फैक्टरी, पेपर मिल आदि की ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी है ।

5) #अपनेघरमेहनत_नहीं: बिहारी श्रमिकों के साथ भी एक तथ्य है कि अपने राज्य में उनकी श्रम शक्ति उस प्रकार प्रभावी नही होती जैसे वो बाहर जा कर क्रियाशील होते है । यहाँ अपने लोगो के बीच वो अपनी प्रथाओं, अस्मिता, राजनीति, तीज त्योहारों और आलस्य उत्सव में मग्न रहते है, जबकि परदेश में उनके साथ ये बधाये नही होती।

6) #लो_एस्पिरेशन- मैंने बिहार के प्रत्येक जिले में छात्रों का सेमीनार लिया है, अक्सर छात्रों से पूछता था कि बताओ अगर तुम्हें अवसर मिले तो तुम किस नौकरी के लिए तैयारी करना चाहोगे? कौन सा जॉब करना है? कई बार छात्रों ने कहा कि टॉवर में गार्ड लगवा दीजिये, उस दौर में शिक्षा मित्र की बहाली आयी थी, तब वेतनमान मात्र 6000 प्रतिमाह था, लेकिन छात्रों में उसका जबरदस्त क्रेज था । आज विधानसभा में चपरासी, गार्ड, स्वीपर और माली की नौकरी के लिए 6 लाख लोगो ने आवेदन कर दिया, जिसमे स्नातकोत्तर और प्रोफेशनल कोर्स किये छात्र है, फैक्ट यही है कि लगातार छात्रों की एस्पिरेशन घटी है, पटना ssc, बैंकिंग और दरोगा-सिपाही बहाली के कोचिंग से भरा है IAS का कोचिंग पटना में एक भी स्तरीय नही । बिहार से आज भी भारी मात्रा में IAS के प्रतिभागी भाग लेते है, दिल्ली, इलाहाबाद में कोचिंग करते है, लेकिन बिहार का रिजल्ट लगातार गिरा है, अधिकांश हिंदी मीडियम से परीक्षा देते है, हिंदी मिडियम का ही रिजल्ट कुल सफल छात्रों में मात्र 2% है । उद्यमिता की बात ही वहाँ कैसे हो जहाँ एस्पिरेशन लेवल नीचे जा रहा हो । उद्यमिता की सबसे बड़ी ड्राइविंग फोर्स साहस और महत्वाकांक्षा होती है । ऊँचे सपनो के आधार पर ही उद्योग की नींव होती है ।

7) #पोस्टप्रोडक्शन के बजाय #प्रीप्रोडक्शन_स्कैम – बिहार में कही भी कोई उद्योग, विश्वविद्यालय लगाने की प्रक्रिया शुरु करेगा तो उस इलाके के राजनीतिज्ञ, अधीकारी, दबंग, जातीय मुखिया और गुंडे इस जुगत में लग जाते है कि कैसे इस इंडस्ट्रीलिस्ट / मारवाड़ी / पैइसावाले से माल टाना जाए । मुर्गी अंडा दे उसके बजाय उसका पेट ही चीर कर सारे अंडे एक साथ निकाल ले ।

8) आज स्थिति ये है कि इस राज्य में #बाहुबल और #राजनैतिक_संरक्षण के बिना उद्योग या कोई बड़ा प्रोजेक्ट लगाना सम्भव नही रह गया है । आप किस जाति के गांव में है, आपका प्रमुख मैनेजर किस जाति का है, भूमिहार का गांव है कि बाबूसाहब का है, बाभन एडवाइजर है कि नही, लाल झंडा का क्षेत्र तो नही न था? ऐसे कितने प्रश्न है जिसे कोई उद्यमी झेलना नही चाहेगा , निवेश ही करना है तो भारत मे विकल्प की कमी नही है ।

9) #रेडटेपब्योरोक्रेशी – माननीय मुख्यमंत्री की सबसे बड़ी विफलता अपने नौकरशाही में सुधार न ला पाने की है । जिस उद्यमी को सचिवालय का चक्कर लगता है उससे वहाँ के हाल पूछिये । सरकारी फाइल से स्लो कोई चीज़ भगवान ने बनाई नही, और ऊपर से अर्जेंट आदेश वाली फाइल सबकी बनती नही ।

10) #छवि : मुख्यमंत्री एक बार उद्यमियों के सम्मेलन में मुंबई गए थे, अगले दिन वहां के प्रमुख अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापा कि “नीतीश डेयर्स इन्वेस्टर्स” यानी कि मुख्यमंत्री ने निवेशकों को आमंत्रित करने का प्रयास जो किया उसे वहां के उद्यमियों ने डराने के प्रयास के रूप में लिया क्योंकि बिहार में निवेश बिना शर्तों के नहीं होता है जबकि उद्यमी ऐसे राज्यों को खोज रहे होते हैं जहां उनको रेड कारपेट वेलकम मिले कई बार ऐसी परिस्थितियां भी बनी जहां पर उद्यमी निवेश करने के पश्चात स्थानीय अथवा प्रशासनिक समस्याओं में उलझ गया, ऐसे में उच्च स्तर पर उद्यमी की परेशानी को समझने के बजाय सरकारी नियमों एवं वोट की राजनीति के मजबूरियों को महत्व दिया गया। यानी कि उच्चतम स्तर पर शासन की प्रतिबद्धता अपनी छवि और वोट बैंक की मजबूरियों के प्रति दृढ़ हैं जबकि राज्य के औद्योगिककरण के लक्ष्य को लगभग असंभव मानते हुए प्रयासों को छोड़ दिया गया है । यहाँ राजनेता उद्यमी की मदद करने की छवि बनने से डरते है, क्योंकि जनता इसे अच्छा नही मानती ।

11) #शिक्षा स्तर में गिरावट: पहले कर्पूरी फॉर्मूला, फिर परीक्षाओं में व्यापक कदाचार और अब मुखिया द्वारा बहाल अयोग्य शिक्षकों की वजह से बिहार की प्राइमरी, सेकेंडरी समेत पूरी शिक्षा व्यवस्था गर्त में चली गयी है । जिस बिहार की मेधा पर भारत को नाज़ था आज उस मेधा को बिहार में पुष्पित-पल्वित होने का अवसर ही नही मिल रहा । हायर एजुकेशन राजनीति और भ्रस्ट वाइस चांसलरों के भेंट चढ़ गई, बाद में वाइस चांसलर के ऊपर का पायदान भी दूषित हो गया, जब गंगोत्री ही दूषित हो जाये तो गंगा साफ कैसे रहे । खराब शिक्षा व्यवस्था से भविष्य के आन्तरिप्रेन्योर और स्टार्टअप फाउंडर्स की अपेक्षा करना कैसे संभव है ।

अनेको और वजहें है लेकिन मूल बात यहीं है कि बिहार की जनता जब तक औद्योगिकीकरण नही चाहेगी तब तक ये होगा नही, जो प्रदेश अपने #स्थानीय_उद्यमियों को सम्मान न दें, वहाँ बाहर से निवेश ज्यादा आएगा नही सिर्फ लोकल आबादी की खपत को स्थानीय स्तर पर पूरा करने के लिए कोई बिस्किट फैक्टरी लग जायेगी, कोई वाशिंग पॉवडर प्लांट, कोई छोटा सीमेंट कारखाना, उद्देश्य सिर्फ बाहर से लोकल खपत को मंगाने का माल भाड़ा बचाना होगा । बिहार ट्रेडिंग राज्य है, यहाँ ट्रेडर इंडस्ट्रीलिस्ट से ज्यादा कमाता है, यहाँ पढ़ाने वालो से ज्यादा डिग्री बेंचने वाले और दूसरे राज्यो में छात्रों का नामांकन कराने वाले एजेंटों/कंसल्टेंट का टर्नओवर है, और सबसे बड़ा मसला लोगो के दृष्टिकोण का है, उद्यमियों के प्रति व्यहवार का है ।

पलायन को अभी वरदान मानिए- कोशिश यही होनी चाहिये कि पलायन करने वाले श्रमिको को प्रशिक्षित किया जाए ताकि उनकी आमदनी बढ़े, जीवन स्तर बेहतर हो ।

मुख्यमंत्री हमेशा कहते थे कि बिहारी इतना मेधावी है कि अगर चांद पर भी वैकेंसी होगी तो बिहारी वहाँ अप्लाई करेंगे । मेरा सवाल था क्यो? जब महाराष्ट्र और आसाम में ग्रुप 4 की वैकेंसी के लिए आये बिहारी नौजवानों का विरोध हुआ तब मुझे यही लगा कि आखिर हमारे नौजवान चपरासी बनने बिहार से बाहर क्यो जाए? अगर बिहारी नौजवान, अफसर बनते है, उद्यमी बनते है, मैनेजर, प्रोग्रामर, डॉक्टर, साइंटिस्ट बनते है और किसी अन्य राज्य में कार्य करते है, उनका तो विरोध नही होता, कम वेतनमान के सरकारी जॉब पर स्थानीय गरीब यदि अपना हक़ चाहते है तो बुरा क्या, वो आखिर चपरासी बनने बिहार नही आते?

बिहार में #उच्चशिक्षा के लिए भी_पलायन होता है और पूरे देश में सबसे ज्यादा होता है । ये भी नही रुकेगा कोई रोकने की पॉलिसी नही वही समस्या है चाहे राजतंत्र के स्तर पर हो या जनता के स्तर पर, विस्तृत पोस्ट कभी और वैसे औद्योगिकरन कि एक बड़ी रीक़वाइरमेंट ट्रेंड मैनपॉवर के उपलब्धता भी होती है । जिसकी व्यवस्था बिहार में कभी हुई नही और जहाँ स्तरीय शिक्षण संस्थान होंगे उद्योग वही शुरू होते है, जैसे आईटी सेक्टर दक्षिण के राज्यो में बढ़ा क्योंकि तकनीकी संस्थानों की एक सपोर्ट चेन पहले से थी, उद्योगीकरण ने उस चेन को मजबूत कर दिया ।

पॉलिसी स्तर पर कितनी बाधा है, एक उदाहरण से समझे- कोटा में सबसे अधिक और बड़े कोचिंग वहाँ के औद्योगिक क्षेत्र में है यहां पाटलिपुत्र जैसे शहर के बीचों बीच स्थित औद्योगिक क्षेत्र में आप प्रदूषण वाला उद्योग लगा सकते है, पढ़ा नही सकते (हां सरकार वहाँ खुद आईआईटी खोले, इंजीनियरिंग कॉलेज, एटीडीसी ट्रेनिंग सेंटर, CA इंस्टीट्यूट खोल सकती है, लेकिन कोई निजी शैक्षणिक न्यास शिक्षण संस्थान नही खोल सकता, बाकी सत्ता से जोड़े है तो मॉल भी खोल ले । 8 साल पहले बिहटा में विवि स्थापना के लिए एमिटी और सिमेज ने सरकार से जमीन खरीदी, बाजार दर पर अलॉटमेंट हुआ, पेमेंट कर दिया गया, आजतक जमीन मिली नही, पैसा जमा है । अमेटी ने पूरे भारत मे अपना सबसे छोटा विवि बिहार में किराए के भवन में खोल दिया अब वो निश्चिंत है जब तक सरकार जमीन नही देगी उसका काम हो रहा है । वैसे ये पोस्ट मैंने किसी निजी अनुभवों को साझा करने के लिए नही लिखा परन्तु अनुभव से अधिक ऑथेंटिक सुनी बातें नही होती, इसलिए साझा कर रहा हूँ, वैसे इस दिशा में बीस वर्षों में हज़ारो निजी अनुभव है ।

याद है कोलकाता शहर में वो #हाथरिक्शा खींचने वाले, बड़ा बाजार में टोकरी पर बोझा ढोने वाले कुली लगभग सभी बिहार के थे और आज भी है । बिहार आज पूरे देश मे सुरक्षा गार्ड, रिक्शा-ठेला -ऑटो ड्राइवर, छोटे दुकान-फैक्टरी कर्मचारि और अन्य वर्कर्स/ एम्प्लोयी का सबसे बड़ा सप्लायर है । यही #बिहारकासबसेबड़ा_एक्सपोर्ट है और आमदनी का जरिया भी है । जरूरत ये है कि हम अपने प्रोडक्ट को कितना तैयार कर बाहर भेज रहे है, कितना एक्विप कर रहे है, कितना पॉलिश कर रहे है ताकि बाहर उसे अपनी प्रतिभा, मेधा और श्रम का उचित मूल्य मिले ।

आने वाला समय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का है, रोबोटिक्स का है, इंटरनेट ऑफ थिंग्स का है, बिग डेटा का है । ऐसे में जिन रोजगारों के लिए बिहार से श्रमिक बाहर जाते है वो आने वालों वर्षो में समाप्ति की ओर होंगे । अपनी श्रम शक्ति और मेधा को हमे भविष्य की इन चुनौतीयों के लिए तैयार करना होगा ।

इसलिए पलायन होगा- होने दीजिए, कोशिश यही होनी चाहिये कि पलायन के स्वरूप को बदला जाए ।

औद्योगिकरण के लिये अगर जनता और सरकार के मिज़ाज और व्यहवार में, नीति और नियत में परिवर्तन आ जाये तो सोने पर सुहागा होगा लेकिन ऐसा होगा नही यहां अभी जातिवाद के साथ साथ धर्म की राजनीति होगी ।

लेखक—नीरज अग्रवाल

एक दुनिया नाबालिग बलात्कार पीड़िताओं की

मम्मी तो बस डांटती थीं, किसका बच्चा पेट में ले आई हो, लेकिन हमें तो चार महीने तक पता नहीं था कि मेरे पेट में बच्चा है.” बिहार की राजधानी पटना के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाली एक आदिवासी लड़की का ये दर्द है. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली 14 साल की ये बच्ची संथाल आदिवासी समाज से आती है. इसके पिता सरकारी नौकरी में हैं और इस बच्ची के साथ दुष्कर्म का आरोपी भी उसी विभाग में नौकरी करता है.

क्या हुआ था? यह पूछने पर बहुत सुंदर हैंडराइटिंग में लिखने वाली ये बच्ची कहती है, “मैं तो उसको भैया-भैया कहती थी. दिसंबर (साल 2020) में दोपहर को घर के बाहर मैं अपने दो दोस्तों के साथ खेल रही थी. इतने में वो आया और हमको किसी काम का बहाना बनाकर अपने घर ले गया. वहां उसने मुझे बांध दिया और सारे कपड़े खोल कर गंदा काम किया. थोड़ी देर बाद उसने मुझसे कहा कि मैं ये बात किसी से न कहूं और भगा दिया.”

सात भाई-बहनों में से एक ये बच्ची बताती है कि फिर उसे महीने (मासिक) आने बंद हो गए. धीमी आवाज में वो रूक-रूक कर कहती है, “मार्च में मम्मी ने पूछा कि तुम्हारे महीने क्यों नहीं आ रहे हैं? मम्मी ने उसके बाद एक स्ट्रिप लाकर दी. और जांचने को कहा. उससे पता चला मेरे पेट में बच्चा था. बाद में जून में हमें बड़े अस्पताल ले जाकर डीएनए टेस्ट हुआ और उसके बाद बच्चा मार दिया गया. मुझे चार दिन तक बहुत दर्द हुआ. उसके बाद ठीक हो गई.”

दुष्कर्म के आरोपी गिरफ्तार युवक की मां फिलहाल अपने घर में अकेले रह रही है. वो अपना नाम नहीं बताना चाहतीं, लेकिन गुस्से और गम में कहती हैं, “बच्ची के साथ गलत हुआ है लेकिन मेरे लड़के का कोई दोष नहीं. और हमको तो कुछ मालूम नहीं था. जब उसे पुलिस वाले लेने आए तब पता चला.”

राजधानी पटना में इससे पहले भी साल 2018 में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा का गर्भपात कराया गया था. छात्रा के पेट में जब दर्द उठा, उसके बाद ही परिजनों को पता चल पाया कि उनकी बच्ची गर्भवती है. इस बच्ची का डीएनए टेस्ट कराके गर्भपात करा दिया गया था.

राजधानी पटना में इस तरह के अपराध कि शिकार नाबालिग बच्चियों के स्वास्थ्य और उनके गर्भपात को लेकर थोड़ी संवेदनशीलता बनी रहती है. प्रशासन पर भी ‘दबाव’ रहता है. लेकिन बिहार के दूर-दराज के जिलों में क्या हालात बदतर हैं. इस रिपोर्ट में हम ऐसी ही पीड़िताओं की बात करेंगे.

अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की महासचिव मीना तिवारी कहती हैं, “राजधानी पटना और बिहार के दूसरे इलाकों में एक तरह का विभाजन है. पटना में चूंकि महिला संगठन व अन्य तरह के दबाव हैं इसलिए यहां सरकारी मशीनरी थोड़ी ज्यादा सक्रिय और संवेदनशील दिखती है. लेकिन छोटी जगहों पर जहां शादी ही अंतिम व जरूरी चीज है वहां समाज, पुलिस और इंस्टीट्यूशन बहुत असंवेदनशीलता से व्यवहार करते हैं. अगर इसे संपूर्णता में देखें तो बिहारी समाज और राजनीति के सामंती तत्व इसके केंद्र में हैं.”

उम्र- 13 साल, वजन- 36 किलो, बच्चा- 3.2 किलो
मीना तिवारी जो बात कह रही हैं दरअसल उसी असंवेदनशीलता का नतीजा है कि कई बार नाबालिग दुष्कर्म की शिकार बच्चियों को न चाहते हुए भी अपने अनचाहे गर्भ को जन्म देना पड़ता है. समस्तीपुर की संगीता उनमें से एक हैं.

उसने साल 2016 में एक बच्चे को जन्म दिया था. तब उसकी उम्र महज 13 साल थी. प्रसव के वक्त उसका खुद का वजन 36 किलो था. अपने इस वजन के साथ वो 3.2 किलो का बच्चा अपने गर्भ में ढोती रहीं. उस वक्त पटना के एक होम में रह रही संगीता, अपने उस अनचाहे बच्चे को न तो दूध पिलाना चाहती थी और ना ही उसका चेहरा देखना चाहती थी. सरकारी कांउसलर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “इस मां का अपने बच्चे से कोई लगाव नहीं.”

घटना के छह साल बाद ‘नाबालिग से वयस्क’ हो चुकी संगीता की अपने बच्चे के प्रति बेरूखी कायम है. वो अब बेगूसराय जिले के एक सरकारी होम में है. बाल कल्याण समिति, समस्तीपुर की सदस्य लीना कुमारी बताती हैं, “उसके परिवार का कोई व्यक्ति मिलने नहीं आता. वो खुश रहती है, लेकिन वो अपने बच्चे को अब भी नहीं देखना चाहती. हम लोगों ने समाज कल्याण विभाग को चिठ्ठी लिखकर ये पूछा है कि बच्चे को अब कहां शिफ्ट किया जाएं.”

संगीता का अपना जीवन भी बिना मां के ही गुजरा है. वो छोटी थीं जब उनकी मां गुजर गई. चाची ने पाला है. लेकिन घर और अपने छोटे भाई बहनों को संभालने की जिम्मेदारी भी थी. उसके साथ दुष्कर्म की वारदात तब हुई जब वो अपनी घरेलू जिम्मेदारी निभा रही थी. गांव के ही एक लड़के ने अपने पिता को खाना पहुंचाने जा रही संगीता के साथ दुष्कर्म किया. डरी सहमी संगीता घर वापस आ गई लेकिन एक दिन उसके पेट में तेज दर्द उठा. उसकी चाची, उसे डॉक्टर के पास ले गई जहां मालूम चला कि वो गर्भवती है.

शादी कौन करेगा? गर्भपात की अनसुनी अर्जियां
समस्तीपुर बाल कल्याण समिति के तत्कालीन अध्यक्ष तेजपाल सिंह बताते हैं, “मैंने उस वक्त समस्तीपुर सिविल सर्जन को लगातार चिठ्ठी लिखी कि मेडिकल बोर्ड बैठाकर संगीता के गर्भपात पर फैसला लें. सिविल सर्जन को मालूम ही नही था कि बाल कल्याण समिति क्या है. हम दोनों के बीच पत्राचार इतना लंबा चला कि मजबूरन उसका प्रसव कराना पड़ा. बाद में तो उसके घरवालों ने उसे ये कहकर ले जाने से इंकार कर दिया कि अब उससे शादी कौन करेगा?”

‘उससे शादी कौन करेगा’ ये ठीक वहीं सवाल था जो साल 2019 में कैमूर जिले में एक 16 साल की गर्भवती नाबालिग बच्ची के पिता ने पूछा था. हिंदुस्तान टाइम्स में अगस्त 2019 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक उस बच्ची ने कैमूर के सदर अस्पताल में एक बच्चे (लड़की) को जन्म दिया था. जिसके बाद उसके पिता ने पूछा था, “कौन मेरी लड़की से शादी करेगा, अगर उसके पहले से ही बच्चा हो.”

तत्कालीन बिहार राज्य महिला आयोग की सदस्य निक्की हैम्ब्रम जो इस केस को मॉनीटर कर रही थीं, वह बताती हैं, “जांच के दौरान ये पाया गया था कि ये मामला प्रेम प्रसंग का है. लेकिन महत्वपूर्ण बात ये थी कि बच्ची और उसका परिवार चाहता था कि गर्भपात हो जाए. लेकिन सरकारी कामकाज इतने ढीले तरीके से होता है कि बच्चियों को मजबूरन बच्चा पैदा करना ही पड़ता है.”

कैमूर की पीड़िता के पिता की बात को छोड़ दें तो ऐसे मामलों में भी शादियां होती हैं. ये दीगर बात है कि कभी दुष्कर्म और गर्भवती होने की बात छिपाकर शाददी कर दी जाती है तो कभी किसी ऐसे लड़के से शादी हो जाती है जो शारीरिक या अन्य तौर पर कमतर होता है. ऐसी शादियों में मां-बाप इसी का शुक्र मनाते हैं कि उनकी बेटी की शादी हो गई।
सुयशी सीतामढ़ी की रहने वाली 21 साल की सुयशी की मां कहती हैं, “बड़ी मेहरबानी हुई कि मेरी बच्ची की शादी खाते-पीते घर में हो गई. वरना उससे शादी कौन करता?”

बच्चा पैदा होगा, तभी तो इंसाफ मिलेगा
लेकिन क्या सुयशी के जीवन की खुशी भी उसकी मां के सुकून में है. सुयशी कहती हैं, “हमारी शादी तो अम्मा ने विकलांग आदमी से कर दी है. चार हजार रूपए चंदे के तौर पर जुटाए और लड़के के गांव जाकर ही शादी कर दी. अम्मा ने इनको (पति) कुछ नहीं बताया. बस हमारी शादी की, और घर में पहनने वाले कपड़ो में हमें विदा कर दिया.”

सुयशी अपनी पहचान छुपाने के लिहाज से हमसे अपने घर से दूर एक हाईवे पर मिलीं. उनके पति व्हील चेयर के सहारे अपने घर से 1.5 किलोमीटर दूर स्थित बाजार जाकर लहठी (एक तरह की चूड़ी) बनाते हैं और बहुत कमाई वाले दिनों में भी महज छह-सात हजार रुपए कमाते हैं.

सीतामढ़ी में भारत नेपाल बार्डर पर बसे एक गांव की रहने वाली सुयशी को मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ था. उसका दुष्कर्म शादी का प्रलोभन देकर 15 साल की उम्र में किया गया था. वो बताती हैं, “मैं जिसके यहां काम करती थी, उसने कहां शादी कर लेंगे तुमसे. फिर मेरे बच्चा ठहर गया तो मारपीट कर भगा दिया. इस मारपीट में बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ.”

सुयशी को लेकर गांव में पंचायत बैठी थी. लेकिन जब पंचायत का फैसला आरोपी ने नहीं माना तो मामले में एफआईआर हुई. इस मामले में सीतामढ़ी व्यवहार न्यायालय ने आरोपी के घर की कुर्की जब्ती का आदेश दिया है.

क्या सुयशी बच्चा पैदा करना चाहती थीं? इस सवाल पर वो कुछ देर चुप रहकर आहिस्ता से कहती हैं, “बच्चा पैदा होगा, तभी तो इंसाफ मिलेगा. बस इसलिए बच्चा चाहते थे. अब तो उसका डीएनए भी नहीं करा सकते. उस वक्त मेरे भाई थाने में मेरा मरा हुआ बच्चा लेकर गए थे. लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया. भैया उसको जमीन में गाड़ दिए.”

सामूहिक बलात्कार और डीएनए
बिहार के गांवों में होने वाली इस तरह की घटनाओं में ज्यादातर मामले थाने नहीं जाते. इन मामलों में पहले ग्रामीण स्तर पर ही पंचायत बैठती है. जिसमें कभी दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाकर तो कभी लड़के–लड़कियों की शादी कराकर मामले को निपटा दिया जाता है. लेकिन जब पंचायत के स्तर पर ये मामले नहीं सुलझते तो पीड़ित पक्ष स्थानीय थाने का दरवाजा खटखटाता है.
लेकिन यहां भी अहम सवाल है कि सामूहिक बलात्कार के मामलों में जहां चार पुरूषों पर दुष्कर्म का आरोप हो और पीड़ित बच्ची गर्भवती हो जाएं, वहां क्या किया जाएं?

पूनम, शादी के बाद हुए अपने बच्चे के साथ पूनम की जिंदगी के कई साल इसी तरह के सामूहिक बलात्कार और अपने गर्भ में पले बच्चे के भविष्य की कश्मकश में गुजर गए. उसके साथ एक अंधेरी शाम को गांव के ही कुछ पुरूषों ने सामूहिक दुष्कर्म किया था. जब चार महीने तक पीरियड्स नहीं आए तो पूनम की मां ने उसकी गर्भावस्था की जांच करवाई. पूनम के पिता के दबाव में गांव में पंचायत बैठी और ये तय हुआ कि दो लाख रुपए का मुआवजा देकर मामला खत्म किया जाए.

पूनम की मां बताती हैं, “ये लोग चाहते थे कि बच्चे को मार दें. हम क्यों मार दें बच्चे को? मैंने उसे अपने बच्चे की तरह पाला. पूनम को तो बच्चा पैदा करके भी कोई होश नहीं था. वो खेलती कूदती रहती थी. हम उसे पकड़कर लाते थे कि बच्चे को दूध पिलाओ. बाद में हम लोगों ने पूनम की शादी कर दी लेकिन बच्चा अपने पास रख लिया.”

पंचायत के फैसले से नाखुश पूनम के परिवार ने मामला स्थानीय थाने में दर्ज कराया. पेशे से वकील लक्ष्मण मंडल ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क के सीतामढ़ी जिला समन्वयक हैं. वो बताते हैं, “ये जिले में पहला मामला था जब डीएनए टेस्ट कराया गया था. इस टेस्ट से ये पता चलता है कि बच्चा किसका है. लेकिन तत्कालीन सिविल सर्जन की निगरानी में भी डीएनए का सैंपल ठीक से नहीं लिया गया.”

इस मामले में फिर से डीएनए सैंपल लिया गया है, लेकिन इस बीच पूनम के बच्चे का अपहरण हो गया. पूनम कहती है, “मेरे साथ दुष्कर्म करने वालों ने ही मेरे बच्चे का अपहरण किया है. हम अपनी ससुराल से तीन महीने में एक बार बच्चे से मिलने आ जाते थे. मेरी जो शादी हुई उससे भी दो बच्चे हैं, लेकिन मुझे अपने पहले बच्चे की भी याद आती है.”

इस मामले में एक आरोपी जो पूनम के घर के पास ही किराने की दुकान चलाता है, वो कहता है, “इन लोगों ने अपने बच्चे का अपहरण खुद कराया है. इनके सारे इल्जाम झूठे हैं.”

शहरी जीवन और प्रगतिशील समाज की सोच से इतर बिहार के ग्रामीण समाज को उसके सोचने विचारने के तरीके से देखने पर इस समस्या को सही तरीके से समझा जा सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता और पंचायत स्तर पर लंबे समय से काम कर रही शाहीना परवीन इस समस्या की कई परतें बताती हैं.

वो कहती हैं, “पहला तो ये कि ग्रामीण बिहार में अभी भी ये टैबू है कि जिस पुरूष से महिला गर्भवती होती है उसी से वो शादी करना चाहती है. दूसरा ये कि प्रेग्नेंसी टेस्ट किट आदि की उपलब्धता आसान हुई है लेकिन अबॉर्शन सेंटर अभी भी बहुत कम हैं. तीसरा इन मामलों में अगर आप कानून की मदद लेते हैं तो अबॉर्शन मुश्किल हो जाता है, इसलिए भी लड़की वाले गांव की पंचायतों के पास ये मामले ले जाते हैं. बाकी जाति और आर्थिक पक्ष से भी इन मामलों को देखा जाना चाहिए जहां कभी-कभी प्रेगनेंसी सामाजिक दबाव का एक हथियार भी बन जाती है.”

इन मामलों में सरकार पीड़ित पक्षों के लिए किस तरह राहत देती है. इस सवाल पर बिहार राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की संयुक्त सचिव धृति जसलीन शर्मा बताती हैं, “प्रत्येक राज्य में विक्टिम कंपनसेशन योजना बनी हुई है. इस योजना के अंतर्गत यदि कोई बच्ची यौन शोषण के चलते गर्भवती हो जाती है तो उसको मुआवजे का प्रावधान है.”

बिहार राज्य में तकरीबन डेढ़ साल से राज्य महिला आयोग का पुनर्गठन नहीं हुआ है. ऐसे में इन मामलों की पीड़िताओं के लिए मुश्किलें और बढ़ गई हैं. इस बीच केंद्र सरकार ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधित) के तहत दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं के लिए गर्भपात की अवधि 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दी है.

लेकिन क्या ये बिहार जैसे सामंती और प्रशासनिक रूप से लचर राज्य की दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए राहत की बात है? राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य निक्की हैम्ब्रम कहती हैं, “ये ठीक है कि सरकार ने कुछ हफ्ते बढ़ा दिए लेकिन मेरे ख्याल से हफ्ते बढ़ाने से ज्यादा जरूरत इस बात की होनी चाहिए कि प्रशासन का ढीला रवैया ठीक किया जाए. एक बार वो ठीक हो जाएगा तो बहुत सारी बातें दुरूस्त हो जाएंगी. हमारी बच्चियां इस अनचाहे गर्भ के ट्रामा और भार से बच जाएगीं.”

(रिपोर्ट में सभी दुष्कर्म पीड़िताओं और परिजनों के नाम बदल दिए गए हैं.)
यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फांउडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है

लेखक –सीटू तिवारी

उड़ता बिहार या उजड़ता बिहार

किसी दिन सुबह उठकर एक बार इसका जायज़ा लीजियेगा कि कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं ? कितने बाहर निकलकर नोएडा, गुड़गांव, पूना, बेंगलुरु, चंडीगढ़,बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में जाकर बस गये हैं?

कल आप एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलिएगा जहां से आप बचपन में स्कूल जाते समय या दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे।

तिरछी नज़रों से झांकिए.. हर घर की ओर आपको एक चुपचाप सी सुनसानियत मिलेगी, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जायेंगे।

आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं ?
भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उसके एक बच्चा और ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे हों और बेहतर से बेहतर पढ़ें लिखें।
उनको लगता है या फिर दूसरे लोग उसको ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उनके बच्चे का कैरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के होस्टलों में।

अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का सिलेबस और किताबें वही हों मगर मानसिक दबाव सा आ जाता है बड़े शहर में पढ़ने भेजने का।

हालांकि इतना बाहर भेजने पर भी मुश्किल से 1% बच्चे IIT, PMT या CLAT वगैरह में निकाल पाते हैं…। फिर वही मां बाप बाकी बच्चों का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं।

4 साल बाहर पढ़ते पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं। फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं । सहपाठियों से शादी भी कर लेते हैं।आपको तो शादी के लिए हां करना ही है ,अपनी इज्जत बचानी है तो, अन्यथा शादी वह करेंगे ही अपने इच्छित साथी से।

अब त्यौहारों पर घर आते हैं माँ बाप के पास सिर्फ रस्म अदायगी हेतु।
माँ बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं । दो तीन साल तक उनके पैकेज के बारे में बताते हैं। एक साल, दो साल, कुछ साल बीत गये । मां बाप बूढ़े हो रहे हैं । बच्चों ने लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लिये हैं।
अब अपना फ्लैट है तो त्योहारों पर भी जाना बंद।

अब तो कोई जरूरी शादी ब्याह में ही आते जाते हैं। अब शादी ब्याह तो बेंकट हाल में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है। होटल में ही रह लेते हैं।

हाँ शादी ब्याह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहां रखा ही क्या है?
खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर में रहने लगे हैं । अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े खांसते बीमार माँ बाप को साथ में रखा जाये। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में।

कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां बाप को आधा – आधा रखने को भी तैयार नहीं।
अब साहब, घर खाली खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये “प्रॉपर्टी डीलरों” की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है । वो इन बच्चों को घुमा फिरा कर उनके मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं । उनको गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर फ्लैट का लोन खत्म किया जा सकता है । एक प्लाट भी लिया जा सकता है।

साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य दिखाने लगते हैं।
बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं।

आप स्वयं खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नज़र रखते हैं । खरीद कर डाल देते हैं कि कब मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि आपका खुद का बेटा छोड़कर पूना की IT कंपनी में काम कर रहा है इसलिए आप खुद भी इसमें नहीं बस पायेंगे।
हर दूसरा घर, हर तीसरा परिवार सभी के बच्चे बाहर निकल गये हैं।

वही बड़े शहर में मकान ले लिया है, बच्चे पढ़ रहे हैं,अब वो वापस नहीं आयेंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है । इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, कुछ नहीं है साहब, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा?

भाईसाब ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्रोपेर्टी की नज़र से मत देखिए, बल्कि जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखिए। आप पड़ोसी विहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं।
आज गांव सूने हो चुके हैं
शहर कराह रहे हैं |
सूने घर आज भी राह देखते हैं.. बंद दरवाजे बुलाते हैं पर कोई नहीं आता !

दुनिया भटियारखाना बन जायेगा

स्वस्थ बहस आमंत्रित..अनर्गल पर भुभुन फोड़ा जाएगा..जो नये जुड़े हैं विशेष ध्यान रखें..
पिछले दो दिनों से यह देख रही..एक बार मन किया कि नज़रंदाज़ कर दूँ..फिर सोचा इसी विषय से अखबारों में वापसी करूँ..चूंकि पहले से ही व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को मजबूत आयाम देकर अगस्त माह से लौटना तय किया था तो इसी निर्णय पर टिके रहने का सोचा..

अब जब अखबारों में दर्जनों लेख यौन शिक्षा को सिलेबस में शामिल करने के लिए लिख चुकी हूँ तो नज़र चुराना ठीक नहीं लगा।।आइये अब बात करते हैं..

यह एक पंक्ति मात्र पंक्ति भर नहीं है…यह एक कुठाराघात है..कुंठा भी है..प्रश्न भी है और विकृति भी है..आंकड़ों को सच मान लेती हूँ क्योंकि मेरे स्वयं के जुटाये आंकड़ें भी लगभग यही है को विभिन्न स्टडीज से समझ आये..पंक्ति का पूर्वार्ध पूर्णरूपेण सत्य है.उत्तरार्ध भी सही है..परन्तु इस विषय के सम्बन्ध में कत्तई नहीं..

ओर्गास्म जिस्मानी ताल्लुकात के चरम सुख को कहते हैं..अब स्त्रियों में यह मात्र शारीरिक नहीं होती..यह मानसिक और सबसे बढ़कर भावनात्मक होती है..एक स्त्री को बिना छुए हुए ओर्गास्म तक पहुंचाया जा सकता है..स्त्री एक साथ 10 सम्बन्ध बनाते हुए या एक दिन में 10 लोगों से सम्बन्ध बनाकर भी ऑर्गेज़्म से कोसों दूर रह सकती हैं..और यह कोई स्टेटमेंट नहीं बल्कि स्टडी और यथार्थ है जिसे आप कामसूत्र के समय से पा सकते हैं..कामसूत्र क्यों लिखा गया जिनको जानकारी है वो इस बात से सहमति रखेंगे..ये बात हुई ऑर्गेज़्म की।। यह कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश स्त्रियों को यह पता भी नहीं होता कि यह क्या बला है..पति या पार्टनर का ध्यान भी ना के बराबर ही इस बात पर होता है कि उनकी पत्नी या पार्टनर संतुष्ट हुई या नहीं..इसके कई कारण हैं जिन पर कभी और बात होगी..

यह स्थिति अच्छी तो नहीं कही जा सकती परन्तु मुझे आपत्ति है ‘कहीं और तलाशने’ और इस संदर्भ में नैतिकता का ठेका स्त्रियों को ना लेने की बात पर..कहीं और क्यों तलाशा जाए? अपने पति से बात क्यों न कि जाए? यह एक टैबू जो मर्द समाज बना चुका है उसकव तोड़ने के लिए दूसरे मर्द के पास क्यों जाना? क्या गैरन्टी है आपको ऑर्गेज़्म दूसरे मर्द के पास मिल ही जायेगा..नहीं मिला तो तीसरे फिर चौथे के पास जाएंगी?

स्त्री में हार्मोन्स की वजह से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की इच्छा मर्दों से ज्यादा होती है यह भी रिसर्च कहता है..पर वो इसको नियंत्रित करना जानती है..तभी स्त्रियां बलात्कार नहीं करती🙂

नैतिकता कोई ठेका नहीं है जो आज इसको मिलना चाहिए कल उसको..विवाहित या प्रेम में पड़ा पुरुष भी जब किसी अन्य स्त्री से उसकी सहमति से सम्बन्ध बनाता है ना तो वह अन्य स्त्री स्त्री ही होती है और उसका नैतिक पतन भी वही हो जाता है..फिर चाहे उस अन्य स्त्री को ऑर्गेज़्म से मतलब हो या ना🙂

जब ये 70% स्त्री भी सर्वस्व ताक पर रख तलाशने निकल जाएंगी ना तो यह दुनिया भटियारखाना बन जायेगा..और सबसे अहम बात उन 70% में 95% को ऑर्गेज़्म चहिये ही नहीं होता..दिल से नहीं चाहिए होता है क्योंकि उनका चरम सुख उनका परिवार, प्रेम और अपना चरित्र होता है जो जन्मों के खुशी के लिए 2 पल के सुख को तुच्छ समझती हैं..

लेखक —-स्वाति खुश्बू

नॉर्थ ईस्ट का होना पाप है क्या? नॉर्थ ईस्ट की हूं कालगर्ल,चाइनीज,प्रॉस्टिट्यूट नहीं

मेरा नाम शैरॉन लामारी है। नॉर्थ ईस्ट के खूबसूरत राज्य मेघालय के शिलॉन्ग में मेरा घर है। मैं हमेशा से आसमान में उड़ना चाहती थी। मेहनत से एयरहोस्टेज बन गई, लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था। मैं एयरलाइंस इंडस्ट्री से एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में आ गई। जहां भी काम करने के लिए गई, वहां मेरे लिए नॉर्थ ईस्ट का होना एक तरह से पाप हो गया।

लुक्स यानी मेरे नयन-नक्श आज तक मेरे हर काम में आड़े आते हैं। मुझे इस देश का नागरिक ही नहीं माना जाता है। मेरे पास अपने लुक्स को लेकर इतनी कहानियां हैं कि लिखने के लिए दीवारें कम पड़ जाएं। आप आम लोगों को छोड़ दीजिए। इस देश के पढ़े-लिखे जिम्मेदार लोग ही हमें इस देश का नहीं समझते। हमें कुछ भी बोल देते हैं।

2006 की बात है। मैं सहारा एयरलाइंस में एयरहोस्टेज थी। आज के सांसद रवि किशन तब सिर्फ भोजपुरी फिल्मों के एक्टर थे। दिल्ली से मुंबई जा रही हमारी फ्लाइट में वो भी सफर कर रहे थे। उन्होंने फ्लाइट के दौरान पूरे क्रू के सामने पूछा- तुम चाइनीज हो? मुझे बुरा तो बहुत लगा। उस वक्त तो मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन पांच मिनट के बाद मैं उनके पास गई और कहा, सर मैंने साड़ी पहनी है, मैं अच्छी हिंदी बोल रही हूं तो आपको मैं कहां से चाइना की लग रही हूं?

मैंने उनसे पूछा कि क्या आपके चाइना में दोस्त हैं, क्या आपने कभी चाइनीज देखें हैं? रवि किशन के पास मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं था। जब रवि किशन जैसे लोग ही ऐसी बात करेंगे, हमें चाइनीज समझेंगे तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद करें।

कोविड की दोनों लहरों में मैं मुंबई में जहां से भी गुजरती लोग मेरे पास से भाग जाते थे। कई लोग बोलते थे- चाइना..चाइना…चाइना।। ऐसे ही कोई हमें मोमोज बोलता है तो कोई कुछ और, लेकिन हमें कोई इस देश का हिस्सा नहीं मानता है।

मेरे नॉर्थ ईस्ट लुक्स के नुकसान की अति यह थी कि मेरे बॉयफ्रेंड ने मुझे पागलखाने में भर्ती करवा दिया था। मैं 21 दिन पागलखाने में भर्ती रही।

दरअसल, गुवाहाटी में रहने वाले एक पंजाबी लड़के के साथ मैं रिलेशन में थी। मैं उस वक्त सहारा एयरलाइंस में एयर हॉस्टेस थी।
जब कभी मुझे छुट्टी मिलती तो मैं उसके पास गुवाहाटी आ जाती। मेरा अपना भी एक घर गुवाहाटी में था। मेरे पेरेंट्स और भाई-बहन भी वहीं मेरे पास जा जाते थे। वो लड़का मेरे भाई का भी अच्छा दोस्त बन गया था।

उसका वहां एक रेस्त्रां था, मैं जब भी छुट्टी पर जाती थी तो मैं ही वहां बैठती थी। मैं वहां इतना मन लगाकर काम किया करती थी कि घाटे में चल रहा उसका रेस्त्रां प्रॉफिट में आ गया।

लेकिन फिर वही हुआ। वह धीरे- धीरे मुझसे किनारा करना चाहता था। मेरे लुक्स की वजह से वह मुझसे शादी नहीं करना चाहता था। उसका कहना था कि उसका परिवार इस शादी के लिए राजी नहीं है। उसकी इस बात पर मेरा मन था कि मान ही नहीं रहा था।

एक दिन हम दोनों कहीं जा रहे थे, उसने शराब पीकर तेज रफ्तार से गाड़ी चलाई और जानबूझकर ऐसे गाड़ी भिड़ा दी जिसमें मुझे ही चोट आई, उसे कोई चोट नहीं आई। मेरा सिर फट गया। शरीर के दूसरे हिस्सों में भी गहरी चोटें आईं।

मुझे गुवाहाटी के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया। मैं कुछ दिन आईसीयू में रही। आईसीयू से बाहर आने के बाद मैं तरह-तरह की दवाएं खा रही थी। भूख लगने की दवा, नींद आने की दवा यानी हर चीज की दवा। मैं बहुत हाइपर रहने लगी, डॉक्टर मुझसे परेशान हो गए।

नॉर्थ ईस्ट के पहाड़ों में रहने वाला मेरा सीधा-साधा सा परिवार है। बॉयफ्रेंड ने मेरे भाई से कहा कि मुझे पागलखाने में भर्ती करवा दिया जाना चाहिए। मेरी भलाई समझकर भाई मान गया। मेरे परिवार ने मुझे पागलखाने में भर्ती करवा दिया।

जब मुझे वहां ले जाया गया तो मैं नहीं जानती थी कि वह पागलखाना है। मुझे लगा कि मुझे चेकअप के लिए ले जाया जा रहा है। जब एक हॉल कमरे में मुझे धकेला गया। मोबाइल छीन लिया गया।

मैंने वहां से भागने की कोशिश की। भागकर उस हॉल के सामने वाली एक दीवार पर चढ़ गई। मैंने देखा कि दीवार के उस पार भी वैसे ही लोग थे। एक घंटे के बाद मुझे उस दीवार से नीचे उतारा गया और रस्सी से एक बेड के साथ बांध दिया गया।

मैं न चीखी और न चिल्लाई। मैं जानती थी कि मैं पागल नहीं हूं। अगर मैं चीखें मारूंगी तो यह लोग मेरी उल्टी-सीधी दवाएं शुरू कर देंगे। मैं किसी भी तरह से उस पागलखाने से भागना चाहती थी।

मैंने बहुत सूझ से काम लिया। कभी रोई या चीखी चिल्लाई नहीं। नॉर्मल बीहेव किया। ऐसे में तीन-चार घंटों के बाद मेरे हाथ-पांव खोल दिए गए। मैं नॉर्मल रहने लगी।

वहां अजीबोगरीब लोगों के साथ मुझे बहुत खराब लगता था। उनमें एक मैं ही नॉर्मल थी। आप खुद सोचिए कि एक ठीक-ठाक इंसान को पागलखाने में डाल दिया जाए तो उसकी क्या हालत होती होगी।

किसी तरह दिन बीतते रहे। पागलखाने में मौजूद मरीजों को सुबह-शाम आधे-आधे घंटे के लिए खाना खाने के लिए खोला जाता था। बाकी समय बंद रखा जाता था। लोग बिखरे बालों और गंदे कपड़ों में यहां-वहां घूमते रहते थे। लगभग 21 दिन बाद मैं उस पागलखाने से बाहर निकल सकी।

बाहर आकर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। दरअसल बारहवीं के बाद मैंने गुवाहाटी के एक टॉप इंस्टीट्यूट से एयर हॉस्टेस का कोर्स किया था। मैं पहले सहारा एयरलाइंस रही और बाद में कतर एयरलाइंस में।

मैंने पांच साल एयरलाइंस सेक्टर में जॉब किया, लेकिन इस एक्सीडेंट के बाद मेरी एक टांग में रॉड डाली गई, जिसके बाद मैं एयरलाइंस में नौकरी करने के लायक नहीं रही।

मुझे इंसोमेनिया की शिकायत हो चुकी थी। नींद नहीं आती थी। लेकिन मैंने अस्पताल की दवाएं और नींद न आने की दवाएं छोड़ने का फैसला किया। योग और साधना शुरू की। आखिरकार मैं उस मनोस्थिति से निकल ही आई।

अब मैं गुवाहाटी के एयरहोस्टेस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट्स में ट्रेनिंग देने लगी, लेकिन मुझे रात में मुंबई आने के सपने आते थे। इतने सपने आते थे कि मुझे लगा कि मुझे मुंबई चले जाना चाहिए।

एयरलाइंस सेक्टर की वजह से पहले से मेरे दोस्त मुंबई में रहते थे। मैं यहां चली आई। एक कास्टिंग डायरेक्टर ने मुझसे नाप-तोल में विज्ञापन का काम देने का कहा। एक विज्ञापन के 15 हजार रुपए मिलने थे। महीने में कुल तीन विज्ञापन शूट होने थे।

मुझे लगा कि मुंबई में मेरा गुजारा हो जाएगा। जब मुंबई आई तो महीने में सिर्फ एक ही विज्ञापन शूट करने के लिए मिला। कास्टिंग डायरेक्टर का कहना था कि मेरे लुक्स ऐसे हैं कि सभी राज्यों और इलाके के लोगों को ठीक नहीं लगेगा।

मैं काफी मायूस हुई, लेकिन मेरे अंदर बहुत हिम्मत थी। मैंने तय किया कि मैं मुंबई से जाउंगी तो नहीं। इंटनटेनमेंट इंडस्ट्री में लड़की होने की अपनी चुनौतियां हैं और नॉर्थ ईस्ट की लड़की होने की चुनौतियां तो खत्म ही नहीं होती हैं। मेरे लुक्स हर जगह आड़े आते हैं। मेरा काम मुश्किल कर देते हैं।

मैं सच बताऊं तो नॉर्थ ईस्ट का समाज महिला प्रधान है, बच्चे मां का सरनेम लगाते हैं। प्रॉप्रर्टी में लड़कियों को हिस्सा पहले दिया जाता है। मणिपुर और मेघालय जैसे राज्यों में घर औरतें ही चला रही हैं।

हमारा समाज प्रोग्रेसिव, पढ़ा-लिखा और बराबरी का समाज है। जैसे हमारे यहां बस में अगर मर्द बैठा है तो महिलाएं सीट नहीं मांगती हैं। औरतें वो सारे काम करती हैं, जो मर्द करते हैं। इसलिए वाइन पीना, पार्टी में नाचना या देर रात घर आना, मेकअप करना, फैशनेबल कपड़े पहनना हमारे समाज का हिस्सा हैं।

हम नॉर्थ ईस्ट की हैं इसलिए यहां किसी से अच्छे से बात कर लो तो उसे लगता है कि यह मेरे साथ सोएगी ही, किसी के साथ पार्टी में डांस कर लो तो उसे लगता है कि हम प्रॉस्टिट्यूट हैं, वाइन पी लो तो उसे लगता है कि हम आसानी से उनके लिए अवेलेबल हैं।

एक बार मेरी मुंबई के एक नामी वकील मुलाकात हुई। वह मुझसे कहने लगा कि मैंने नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों की जिंदगी बना दी है, तुम्हारी भी बना दूंगा। तुम्हें चाहिए ही क्या अच्छा पैसा और अच्छा सेक्स ? यानी हम नॉर्थ ईस्ट की हैं तो हम सिर्फ सेक्स करने के लिए ही पैदा हुई हैं।

एक बार मुझे मेरा पासपोर्ट रिन्यू करवाना था तो पुलिस वाला मुझसे कालगर्ल की तरह बात करने लगा। अरे भाई मैं पढ़ी लिखी और आत्मनिर्भर हूं। एयरहोस्टेस रही हूं। कोई तवायफ नहीं।

यह तो कुछ भी नहीं। गुवाहटी के जिस इंस्टीट्यूट से मैंने एयरहोस्टेस का कोर्स किया था वह हमें एक एयरलाइंस में नौकरी के इंटरव्यू के लिए मुंबई लेकर आए। रात में इंस्टीट्यूट के एमडी ने मुझे जुहू अपने होटल के कमरे में बुलाया, मैं नहीं गई।

गुवाहाटी जाने के बाद वहां एमडी के साथ काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने मुझे बहुत लताड़ा। कहने लगी कि मैं एमडी के कमरे में क्यों नहीं गई। मैंने उनसे कहा कि मुझे कमरों में जाकर नौकरियां नहीं चाहिए, मैं खुद कर लूंगी।

मैं कहीं भी चली जांऊ, अलग दिखाई देती हूं। टीवी-फिल्म में मुझे काम इसलिए नहीं मिल रहा है कि मेरी शक्ल की किसी की बेटी नहीं हो सकती है। बहू नहीं हो सकती है यानी इंडस्ट्री में हमारे लिए कोई काम नहीं है।

मुझे यहां सब चाइनीज बोलते हैं। मेरे हाथों से बहुत से विज्ञापन निकल गए। ऑडिशन कॉल होते हैं, सिलेक्शन भी होता है। लेकिन बाद में कहा जाता है कि सेमीन्यूड कर लोगे। यानी हम नॉर्थ ईस्ट के हैं तो हम यही सब करेंगे। कई जगह तो मैंने मुंह पर बोल दिया कि नॉर्थ ईस्ट की हूं तो क्या नंगी हो जाऊं? मेरे लुक्स ने प्यार से लेकर करिअर तक में मुझे आगे नहीं बढ़ने दिया।

आजकल के प्रेमी जोड़े नए-नए फिल्मों को देख कर घर से भागकर शादी करने से पीछे नहीं हट रहे हैं

हर रोज ऐसी घटनाएंद सुर्खियों में रहती है । कुछ इसी प्रकार का ताजा मामला बिहार के जहानाबाद का है। जहां एक प्रेमीयुगल अपने माता-पिता से बिना पूछे ही घर से भागकर स्टेशन स्थित बराह भगवान के मंदिर में शादी रचा ली। इधर, लड़की के परिजनों को पता चला तो ढूंढते हुए मंदिर पहुंच गए जहां काफी मान मनाऊअल के बाद राजी हुए और फिर शादी में शरीक हुए।

दरअसल शहर के रामगढ़ मोहल्ले के रंजय कुमार को दो साल पहले कड़ौना गांव के उषा कुमारी के साथ आंखे चार हुई। धीरे धीरे दोनो की फोन पर बातें होने लगी। बाते होते होते प्यार का परवान इतना चढ़ गया कि दोनो ने शादी करने का फैसला कर लिया।जिसके बाद इसकी जानकारी घर वालों को दी।

जिसके बाद लड़की वाले शादी के लिए राजी नही हुए। आज दोनो कोर्ट मैरेज करने के ख्याल से पूरी प्लानिंग के तहत घर से भाग गए। इधर लड़की के घर वाले लड़की को घर मे न पाकर इधर उधर खोजबीन शुरू कर दी। इसी दरम्यान पता चला कि रंजय और उषा दोनो स्टेशन परिसर स्थित बराह भगवान के मंदिर में शादी करने पहुंचे है।

जानकारी मिलते ही लड़का और लड़की के परिवार भी पहुंच गए। काफी देर तक दोनो में मान मैन्यूअल का दौर चला जिसके बाद दोनो की शादी मंदिर में रचाई गयी। शादी देखने को लेकर मंदिर में लोगो की भीड़ लग गयी।
Byte – उषा कुमारी,युवती
रंजय कुमार,युवक

बदहाल बिहार का एक और सच शिक्षा के गुणवत में कही खड़ा नहीं उतर रहा है बिहार

बिहार से जुड़ी इन तीन तस्वीरों को गौर से देखिए पहली तस्वीर बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष आनंद किशोर की है इन्हें बिहार बोर्ड की परीक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार एवं नए प्रयोगों के कारण प्राइम मिनिस्टर्स अवार्ड फार एक्सीलेंस इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के लिए चयनित किया गया है। दूसरी तस्वीर पटना वीमेंस कॉलेज के बाहर एक ग्रेजुएट छात्रा प्रियंका गुप्ता द्वारा चाय बेचने की है। और तीसरी तस्वीर पटना के गंगा घाट पर हज़ारों की संख्या में रेलवे-एसएससी की परीक्षा के लिए पढ़ाई कर रहे छात्रों की है।हालांकि इस तरह की तस्वीरे आपको आरा और बक्सर के रेलवे स्टेशन पर भी दिख जाएगा जहां छात्र रेलवे स्टेशन के स्ट्रीट लाइट के नीचे छात्र पढ़ाई करते है ।

अब जरा इन तीनों तस्वीरों के सहारे बिहार को समझने की कोशिश करते हैं। पहली तस्वीर सरकार को स्कूल में पढ़ाई नहीं पढ़ाई होते हुए दिखनी चाहिए ,स्कूल और कांलेज में पढ़ाई हो या ना हो परीक्षा समय पर होते हुए दिखनी चाहिए ।
कोरोना काल में पढ़ाई पूरी तरह ठप रहा सीबीएसई ने तब तक परीक्षा की तिथि घोषित नहीं किया जब तक स्कूल कोर्स पूरा करने का लिखित आश्वासन बोर्ड को नहीं दिया अभी भी 10वीं और 12वीं की परीक्षा शुरु नहीं हुई है ,जिसको देखते हुए जेईई की परीक्षा की तिथि दूसरी बार बढ़ाई गयी है।

लेकिन बिहार बोर्ड का 10वीं और 12वीं के परीक्षा का रिजल्ट आये हुए एक माह होने जा रहा है ऐसा इसी बार नहीं हुआ है पिछली बार भी ऐसे ही बिना पढ़ाई किये हुए परीक्षा लिया गया था । 2016 से आनंद किशोर बिहार बोर्ड के अध्यक्ष है परीक्षा समय पर लेना इनकी उपलब्धि रही है लेकिन बात अगर शिक्षा में गुणवत्ता की करे तो ये बिफर पड़ते हैं, एक बार मैं ही यह सवाल कर दिया था कि आप पटना साइंस कांलेज के छात्र रहे हैं आपके साथ पढ़ने वाले टांप 10 छात्र कहां है, क्या कर रहे हैं एक को तो हमलोग देख ही रहे हैं शेष के बारे में आप जानते ही होगे, लेकिन आज आप जिस बोर्ड के अध्यक्ष हैं उसका टांपर कहां है, क्या कर रहा है ,पढ़ाई के मुकाम में कहां तक पहुंचा है,कोई जानकारी हो तो बताये इस सवाल पे ये गुस्से से लाल हो गये वैसे मुझसे इनकी बनती अच्छी है जब मिलते हैं उलझ ही जाते हैं इसलिए अब फोन से ही बात करना ये ज्यादा पसंद करते हैं पुरस्कार के लिए बधाई लेकिन सवाल तो बनता है इस तरह के पुरस्कार पाने के लिए चयन का आधार क्या है ।

बिहार में इस समय शिक्षा का बजट 38035.93 करोड़ रुपये का है इतनी बड़ी राशी खर्च करने के बावजूद बिहार शिक्षा के क्षेत्र मे कहां खड़ा है इस पर कभी ठंडे दिमाग से सोचिए हम बात आईआईटी ,नीट और यूपीएससी की नहीं कर रहे हैं इन परीक्षाओं में हाल तो यह है कि 2019 आते आते बिहार बोर्ड और बिहार के विश्वविधालय से पढ़ा छात्र गिनती के पांच दस पास कर रहे हैं।

बात बिहार की करे तो 2009 के बाद बिहार सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर बीपीएससी और बिहार पुलिस अवर सेवा आयोग द्वारा बिहार प्रशासनिक सेवा , बिहार पुलिस सेवा से लेकर सीओ .बीडीओ सहित राज्य सरकार के तमाम विभाग से जुड़े पदाधिकारियों का चयण किया है।

साथ ही बीपीएससी द्वारा बड़े स्तर पर प्रोफेसर की भी बहाली हुई है। 2009 के बाद जो दरोगा, की बहाली हुई है ,प्रोफेसर की बहाली हुई या फिर प्रशासनिक अधिकारियों की बहाली हुई है उस बहाली पर गौर करिएगा तो 2015 आते आते जो स्थिति पहले न्याययिक परीक्षा की होती थी जिसमें यूपी के बहुत सारे छात्र पास करते थे वैसे ही स्थिति बीपीएससी की भी हो गयी है 30 से 35 प्रतिशत छात्र यूपी,हरियाना ,उड़ीसा और झारखंड से आ रहे हैं। प्रोफेसर बहाली में तो राज्य सरकार पहले ही बिहार के विश्वविधालय से पीएचडी करने वाले या फिर बेट पास करने वाले छात्रों को परीक्षा के लिए योग्य माना ही नहीं था, 3300 मे गितनी के पचास भी नहीं हैं जिनकी पूरी पढ़ाई बिहार में हुई हो।

यही हाल बीपीएससी के परिणाम का भी है 64वीं और 65 वीं में मेरा भगीना पास किया है इस वजह से उसके बैंच के लड़कों से मिलने का मौका मिला,नवोदय विधालय ना होता तो समझिए बिहार में पढ़े छात्र किसी काम के नहीं रहता, गितनी के दो चार हैं जिसकी पढ़ाई बिहार के कांलेजों में हुई है जब इन छात्रों से मैं सवाल किया तो उनका कहना था बिहार की पहचान क्या रही है शिक्षा, दस वर्ष पहले तक बिहारी मतलब गणित और साइंस में मास्टर लेकिन आज बिहार की स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा राष्ट्रीय स्तर पर सबसे नीचे स्तर पर पहुंच गया है ।

पहले नोर्थ इस्ट के बच्चे कमजोर माने जाते थे अभी बिहारी बच्चों का हाल उससे भी बूरा है 64वीं बैंच का टांपर एमपी का है और पूरे बैच में बिहार के कांलेज से पढ़ा बच्चा दूर दूर तक दिखायी नहीं दे रहा है चयनित बच्चेअधिकांश इनजीनियरिंग बैग्रांउड के हैं उसमें भी बिहार के इंनजीनियरिग कांलेज से पढ़ा छात्र दो चार भी अभी तक ट्रेनिंग मेंं नहीं मिला है।बीपीएससी के 64वीं और 65 वीं बैच में हरियाणा की लड़की डीएसपी और एसडीओ बनी है उडीसा का कई छात्र है जो बीडीओ और सीओ बना है ,यूपी की तो बात ही छोड़िए ।

ऐसे में बिहार में पढ़े बच्चे प्रियंका गुप्ता की तरह चाय नहीं बेचेगा तो करेगा क्या और ये जो गंगा किनारे या फिर आरा बक्सर के रेलवे स्टेशन पर पढ़ते हुए बच्चों का जो भीड़ दिख रहा है उसे कौन समझाये की जिस स्तर का सवाल परीक्षा में पुछे जा रहे हैं उसकी पढ़ाई ही में कहां खड़ा है ये बच्चों का हाल प्रियंका के चाय बेचने से भी बूरा है पढ़ाई में फिसड्डी जी जान से मेहनक करके राष्ट्रीय लेवल पर पहुंच भी रहा है तो 10 वर्षो से बैंक ,रेलवे और एसएससी में नौकरी आधी से भी कम हो गयी वही भेकेन्सी कब निकलेगी इसका कोई पता नहीं है ये है बिहार का सच इसे देख कर आप मुस्कुरा
सकते हैं ।