कन्हैया कुमार कम्युनिस्टों की प्याली में तूफान पैदा करने वाले पहले युवा नेता नहीं हैं। मुझे इस संदर्भ में देवी प्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) की याद आती है, जो 1975 से 1976 तक एसएफआई की ओर से जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। जेएनयू जब मैं आया, डीपीटी हम छात्रों के बीच आइकॉन थे। 1983 में ख़बर मिली कि डीपीटी तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी के सलाहकार हो गये। डीपीटी की क्रांतिकारी-वैचारिक छवि ऐसी भरभरा कर गिरी कि छात्रों का किसी भी आइकॉन पर से भरोसा उठ गया। मगर, डीपीटी की महत्वाकांक्षा 1999 में एनसीपी में आने के बाद पूरी हुई। 3 अप्रैल 2012 से 2 अप्रैल 2018 तक डीपीटी राज्यसभा सदस्य रहे।
लोक सभा के पूर्व सदस्य रामराज (अब डॉ. उदितराज) जेएनयू में एसएफआई राजनीति से निकले थे. इनकम टैक्स के एडिशनल कमिश्नर थे, 24 नवम्बर 2003 को पद से इस्तीफा देकर इंडियन जस्टिस पार्टी खड़ी की, फ़रवरी 2014 में बीजेपी ज्वाइन किया, और चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे. 2019 में बीजेपी से टिकट मिलने की मनाही के बाद उदित राज ने कांग्रेस का दामन थाम लिया. प्रश्न है, कांग्रेस में जाकर उदित राज अखिल भारतीय दलित चेहरा क्यों नहीं बन पा रहे? बिहार-बंगाल के चुनावों में पिछड़ों, अनुसूचितों के बीच उन्हें प्रोजेक्ट नहीं किया जा सका, पंजाब, यूपी के दलित पॉकेट में उदित राज का यदि इस्तेमाल नहीं हो रहा, तो कहीं न कहीं पार्टी के भीतर बाधा दौड़ है ।
शकील अहमद ख़ान एसएफआई के छात्र नेता थे जो 1992-93 में जेएनयूएसयू के अध्यक्ष बने, उनका भी राजनीतिक कायान्तरण हुआ और कांग्रेस के एमएलए बन गये। एक और एसएफआई नेता, जेएनयूएसयू के दो बार प्रेसिडेंट रहे बत्ती लाल बैरवा ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। सैयद नासिर अहमद एसएफआई से 1999 में जेएनयूएसयू के अध्यक्ष थे। नासिर अहमद फिलहाल कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य है। संदीप सिंह अल्ट्रा लेफ्ट सोच वाली आइसा को प्रतिनिधित्व देते हुए 2007-2008 में जेएनयूएसयू के प्रेसिडेंट चुने गये। क्रांतिकारी भाषण देते थे, अब सुना कि प्रियंका गांधी के भाषण लेखक संदीप सिंह ही हैं। आइसा के ही मोहित के पांडे ने ‘कांग्रेस शरणम गच्छामि’ का रास्ता चुना और प्रियंका के क़रीबी नेताओं में से एक हो गये।
मैं केवल जेएनयू का उदाहरण दे रहा हूँ, जहाँ से इतने सारे लेफ्ट छात्र नेता कांग्रेस में गये, क्या इससे कांग्रेस में ढांचागत परिवर्तन हो गया, या कांग्रेस मज़बूत हो गई? केवल महत्वाकांक्षा की मृगमरीचिका इन्हें मूल विचारधारा से बाहर की ओर खींच ले आती है। यदि डी. राजा, विनय विश्वम, अतुल अंजान या फिर अमरजीत कौर को ये भ्रम है कि कन्हैया कुमार को इन लोगों ने तैयार किया, तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता। दरअसल, कन्हैया कुमार को बीजेपी ने एक ऐसे ‘पोलिटिकल पंचिंग बैग’ के रूप में तैयार किया, जिसे तथाकथित राष्ट्रवादी जब चाहें टुकड़े-टुकड़े गैंग बोलकर घूंसे लगा सकते हैं। इससे कन्हैया कुमार का क़द बढ़ता है। जिस दिन ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ बोलना बंद हो जाएगा, कन्हैया की ब्रांडिंग धुमिल पड़ जाएगी। डीपी त्रिपाठी की तरह कन्हैया कुमार का लक्ष्य भी राज्यसभा है, या शायद उससे भी कहीं ज़्यादा. महत्वपूर्ण यह नहीं कि कन्हैया कांग्रेस में आ गये, महत्वपूर्ण यह है कि वहां कितने दिन टिक कर रहते हैं !
( पुष्पमित्र)
ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक.)