मेरी नजर में , पुरुष का होना
पुरूष के संदर्भ मे, जब मै किसी पुरुष को इंसान से आगे बढकर पुरुष समझकर देखुँ तो मुझे पौरुष के दर्प से भरे हुए पुरूष ही अच्छे लगते हैं।
पौरुष के दर्प से भरे हुए पुरूष का अर्थ ‘अमरीश पुरी या गुलशन ग्रोवर’ नहीं है… पोपुलर अर्थ में कहूँ तो ‘ बाहुबली’ टाइप। पौराणिक अर्थ में कहूँ तो ‘ आदियोगी शिव’ जैसा। जिसके साथ कैलाश के दुरूह शिखर पर भी जीवन आसान लगे ।
मेरे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि मेरा भाई, दोस्त, प्रेमी, पति, खाना बनाने मे मेरी मदद करता है कि नहीं, कपड़े धोता- सुखाता है कि नहीं, पोंछा लगाता है कि नहीं.. …हाँ, उसका होना मुझे कितना ‘अभय ‘ बनाता है, ये महत्वपूर्ण है। वो साथ रहे तो मै इस ब्रह्मांड मे डर के अस्तित्व को भूल जाऊँ ।
पुरुषवाद ने स्त्रियों से माॅडेस्टी छीन ली, उनकी उड़ान को कुंद कर दिया। उसकी कीमत समाज ने चुकायी और चुका रहा है।
उसी तरह, नारीवाद के नाम पर पुरूष से उसका पौरूष मत छीनिए। पुरूष से डरी हुई स्त्री और स्त्री से डरा हुआ पुरूष , दोनो ही समस्या है ।
यौन हिंसा पुरूष का सबसे डार्क स्पेस है, इस पर बचपन से ही काम किए जाने की जरूरत है । इसके प्रति समाज की सामुहिक ज़िम्मेदारी है । अध्ययन मे पाया गया है कि क्राॅनिक यौन अपराधी का बचपन, किसी न किसी वज़ह से माँ के स्नेह से वंचित रहा है या तो खुद शोषण का शिकार रहा है ।
तो पुरूष पोंछा लगाता है कि नहीं, सब्जी काटता है कि नहीं इससे ज्यादा जरूरी है कि, वो स्त्री को स्नेह और उसका सम्मान करे। उसे समझना चाहिए कि स्त्री को उसके सर्वोत्तम स्वरूप में प्यार – सम्मान और स्नेह से ही पाया जा सकता है।
स्त्री को भी ये समझना चाहिए की पुरूष भी उसका ही हिस्सा है , अलग स्वरूप । जब भी कोई पुरूष कटता है, मरता है, अपमानित होता है , तो साथ- साथ उसको जन्म देने वाली माँ भी उतना ही मरती है ।
प्रतियोगी के रूप मे पुरुष हमेशा क्रूर होता है , ये आदिम वृत्ति है , जब वो शिकारी था ।उसने हत्याएँ की , जंगल जलाएँ …!!! स्त्री और उसके बच्चे के लिए घर बनाये । फिर उसने दुसरे पुरूषों से लड़कर विजेता बन स्त्री और उसके बच्चे पर अपनी प्रभुता स्थापित की । अब वो निश्चिंत हुआ ,स्त्री का सहचर बना तो उसमे सौंदर्य और स्नेह जैसे मृदुभाव विकसित हुए।
समग्र कलाओं का विकास पुरूष ने किया , परन्तु उसका केन्द्र बिन्दु स्त्री रही है क्योंकि वो स्त्री के बिना युद्ध कर सकता है , संवेदनाएं नही जगा सकता । घर – परिवार बसाते हुए , कलाकार के रूप मे उसे अपने आदिम शिकार वृति के ह्यस का मलाल और असुरक्षा का एहसास रहा होगा तभी वो धर्म व्यवस्था मे पुरूषों को स्त्रियों से दुर रहने कि , उसे नकारने कि , उसे तुच्छ समझने की आह्वान करता है ।
पुरषों ने हमेशा अपना नायक एक युद्ध विजेता को चुना। कोई गायक , कोई नर्तक , कोई मूर्तिकार , कोई पेन्टर , कोई लेखक को पुरूषों ने कभी अपना नायक नही चुना ।
पुरुष प्रतियोगी बनकर टक्कर ही क्यों देना। पुरूष का दर्द भी आखिर एक स्त्री को ही सोखना है। स्त्री अपना दर्द धारण कर लेती है, पुरूष अपना दर्द धारण नहीं करता, वो सर्कुलेट करेगा जिसे अन्तत: किसी स्त्री में ही पनाह मिलना होता है।
लेखक —अनुमेहा पंडित