अफ़ग़ानिस्तान में घड़ी की सुई रिवर्स डायरेक्शन में मुड़ चुकी है। अफ़ग़ानी समाज का उदारवादी प्रगतिशील तबका, जो धार्मिक रूप से सहिष्णु है, नागरिक अधिकारों का हिमायती है, लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखता है और महिलाओं एवं उनके अधिकारों को लेकर प्रगतिशील सोच रखता है, अपने अस्तित्व को लेकर सशंकित है। और, तालिबान को लेकर सशंकित केवल अफ़ग़ानी समाज ही नहीं है, वरन् पूरी-की-पूरी दुनिया डरी और सहमी हुई है। कारण यह कि तालिबान कोई संस्था नहीं है, वरन् सोच और मानसिकता है, ऐसी सोच और मानसिकता, जो आधुनिक काल की तमाम प्रगतियों को नकारती हुई आधुनिकता पर मध्ययुगीनता की जीत सुनिश्चित रहना चाहती है। अफ़ग़ानिस्तान में उदारवादी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था और उसके मूल्यों को नकारता हुआ तालिबान उसे इस्लामिक धर्म और धर्मतंत्र की गिरफ़्त में लाना चाहता है।
तालिबान के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान का ‘इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफ़ग़ानिस्तान’ में तब्दील होना इसी को पुष्ट करता है। यह प्रतीक है अफ़ग़ानिस्तान में उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों के अन्त का, महिला अधिकारों एवं मानवाधिकारों की त्रासदी का, अल्पसंख्यक जनजातियों की पहचान के साथ-साथ व्यवस्था में उनके समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी की शुरू हो चुकी प्रक्रिया के अवरुद्ध होने का और समावेशी अफ़ग़ानिस्तान के सपनों के धूल-धूसरित होने का।
स्पष्ट है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान का सच है, ऐसा सच जो अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, वरन् भारत सहित शेष दुनिया के लिए ख़ौफ़नाक और भयावह साबित हो सकता है। तालिबान को लेकर मुसलमानों के एक तबके में उत्साह है, जो और भी भयावह और ख़तरनाक है क्योंकि उन्हें यह लगता है कि तालिबान इस्लामीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए मुसलमानों के धार्मिक वर्चस्व को सुनिश्चित करेगा और पूरी दुनिया में शरीयत को लागू करेगा। उनकी आँखें तब भी नहीं खुल रही हैं जब वे देख रहे हैं कि राजधानी काबुल पर क़ब्ज़े के बाद वहाँ से भागने वाले लोगों में ग़ैर-मुस्लिमों की तुलना में मुसलमान कहीं अधिक हैं। और, ऐसा नहीं कि यह सब अनपेक्षित है। फ़रवरी,2020 में अफ़ग़ानिस्तान सरकार को दरकिनार करते हुए जिन शर्तों पर अमेरिका और तालिबान के बीच शान्ति समझौता सम्पन्न हुआ, उसके बाद ऐसा ही होना था। बस, प्रतीक्षा थी अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैनिकों की वापसी की। फिर, यह सब महज़ समय की बात रह गयी, लेकिन, यह सब इतनी जल्दी होगा, इसकी भी उम्मीद शायद किसी को नहीं रही होगी।
जहाँ तक भारत के संदर्भ में इन बदलावों के निहितार्थों का प्रश्न है, तो भारत गहरे संकट में है और भारतीय कूटनीति की असफलता से उपजे इस संकट के मूल में मौजूद है भारत की विदेश-नीति की त्रासदी। ऐसा नहीं है कि पिछले तीन दशकों के दौराजहाँ तक भारत के संदर्भ में इन बदलावों के निहितार्थों का प्रश्न है, तो भारत गहरे संकट में है और भारतीय कूटनीति की असफलता से उपजे इस संकट के मूल में मौजूद है भारत की विदेश-नीति की त्रासदी। ऐसा नहीं है कि पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की अफ़ग़ानिस्तान नीति और तालिबान को लेकर उसका नज़रिया कभी आश्वस्त करने वाला रहा हो, पर पिछले क़रीब सवा सात वर्षों के दौरान भारत की विदेश-नीति ने चेक एंड बैलेंसेज की उपेक्षा करते हुए अमेरिकोन्मुखी नज़रिया अपनाया। इसी नज़रिए के कारण इसने क्षेत्रीय समीकरणों और अफ़ग़ान समस्या के समाधान के लिए क्षेत्रीय स्तरों पर चल रहे प्रयासों को अपेक्षित महत्व नहीं दिया और आज उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ रही है।
अब दिक़्क़त यह है कि काबुल और अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़े के बाद आज भी भारत में अफ़ग़ानिस्तान संकट को हिन्दू-मुसलमान की बाइनरी में रखकर देखा जा रहा है जो दु:खद एवं त्रासद है। भारतीय समाज का एक हिस्सा अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से इसे मुस्लिम समाज के साथ-साथ भारतीय समाज और राजनीति के उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और वामपंथी तबके को बदनाम करने के अवसर के रूप में देख रहा है और इस अवसर को भुनाने की हरसंभव कोशिश कर रहा है। और, इसका एक त्रासद पहलू यह भी है कि मुस्लिम समाज का एक हिस्सा अफ़ग़ानिस्तान के मोर्चे पर होने वाले इन बदलावों से उत्साहित है। उसे न तो अपनी त्रासद स्थिति चिन्तित करती है, और न ही अफ़ग़ानियों का दु:ख, उनकी पीड़ा एवं उनकी बेचैनियाँ ही विचलित करती हैं। वह तो इस्लामी सत्ता की पुनर्स्थापना और इस्लामी वर्चस्व की संभावना मात्र से उत्साहित एवं पुलकित है।
अब सवाल यह उठता है कि जब वर्तमान में तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के सच के रूप में सामने आ चुका है और उसे पाकिस्तान एवं चीन सहित तमाम भारत-विरोधी शक्तियों का समर्थन मिल रहा है, अमेरिका सहित दुनिया की तमाम बड़ी शक्तियाँ अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह से परहेज़ कर रही हैं, ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? दरअसल, अब भारत बैकफ़ुट पर है, वह रिसीविंग इंड पर है और उसके सामने सीमित विकल्प हैं, ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि भारत वेट एंड वाच की रणनीति अपनाते हुए अफ़ग़ानिस्तान में फँसे भारतीयों को सुरक्षित रूप से बाहर निकालने की कोशिश करे, बैक चैनल से तालिबान के साथ डील करते हुए उसके भारत-विरोधी रवैये को कम करने की कोशिश करें और अफगानिस्तान में अपने अब सवाल यह उठता है कि जब वर्तमान में तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के सच के रूप में सामने आ चुका है और उसे पाकिस्तान एवं चीन सहित तमाम भारत-विरोधी शक्तियों का समर्थन मिल रहा है, अमेरिका सहित दुनिया की तमाम बड़ी शक्तियाँ अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह से परहेज़ कर रही हैं, ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? दरअसल, अब भारत बैकफ़ुट पर है, वह रिसीविंग इंड पर है और उसके सामने सीमित विकल्प हैं, ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि भारत वेट एंड वाच की रणनीति अपनाते हुए अफ़ग़ानिस्तान में फँसे भारतीयों को सुरक्षित रूप से बाहर निकालने की कोशिश करे, बैक चैनल से तालिबान के साथ डील करते हुए उसके भारत-विरोधी रवैये को कम करने की कोशिश करें और अफगानिस्तान में अपने सामरिक हितों को साधने के साथ-साथ अपने निवेश को सुरक्षित करने की यथासंभव कोशिश करे। साथ ही, जल्दबाज़ी में प्रतिक्रिया देने की बजाय अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अगले कदम की प्रतीक्षा करे और उनके साथ मिलकर तालिबान पर अंतर्रा्ष्ट्रीय दबाव निर्मित करने की कोशिश करे। उपयुक्त अवसर और अपने लिए अनुकूल माहौल की प्रतीक्षा करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है। और, हाँ, तालिबान के बहाने मुस्लिम समुदाय और भारतीय समाज के लिबरल-सेक्यूलर तबके को बदनाम करने की कोशिश तथा अफ़ग़ान संकट का राजनीतिकरण भारत के लिए आत्मघाती साबित होगा, और निकट भविष्य में भारत को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। भारत को यह समझना होगा कि अफ़ग़ानियों को भी अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी होगी और उसे भी अपने सामरिक हित खुद सुनिश्चित करने होंगे। इसके लिए न तो अमेरिका सहित अन्य वैश्विक शक्तियाँ सामने आयेंगी और न ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय। भारत अगर संयम एवं धैर्य से काम लेता है, तो वह गृहयुद्ध की ओर बढ़ते अफ़ग़ानिस्तान में ताजिक, उज़्बेक और हज़ारा जनजातियों के साथ-साथ अफ़ग़ानी पश्तून समाज के उदारवादी, लिबरल, डेमोक्रेटिक एवं सेक्यूलर तबके बीच अपने गुडविल की बदौलत इस क्षति की कुछ हद तक भरपायी कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता है खुद के प्रति भरोसे की और सटीक रणनीति की। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत सरकार इसी रणनीति पर विचार कर रही है, पर समस्या है हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी की।
-लेखक कुमार सर्वेस
(लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं और सिविल सेवा परीक्षा हेतु तैयारी कर रहे छात्रों के मेंटरिंग कर रहे हैं।)