आज, शिक्षक और मैं।
आज शिक्षक दिवस है,
अब तक बहुतों ने शुभकामनाएं दी है,
मैं उन शुभकामनाएं का क्या करूँ,
आदर सहित उनको अस्वीकार करता हूँ,
जिनकी भवनाएं टूटती है टूट जाये,
सिर्फ परम्परा को ढोने के लिए
मैं नही बना हूँ,
शायद मैं स्वार्थी बन गया हूँ,
हाँ मैं स्वार्थी हूँ,
क्योंकि मैं एक शिक्षक हूँ,
ओह नहीं,मैं शायद वेतनभोगी हूँ,
मैंने पिछले आठ सालों में
कुछ नही किया है,सिर्फ
शिक्षक का नाम ढोने के अलावे,
कोशिश बहुत की,परन्तु
कभी सफल नही हो पाता हूँ,
इस धंधे में आने से पहले
मैं अपने गुरुओं को बहुत
ही सम्मान की नजरों से देखता था,
उनकी बातों को आत्मसात करता था,
एक ऐसा रिश्ता था उनसे जो
अटूट था,स्नेह भरा था,
उनकी त्याग तपस्या,
और आशीर्वाद ने,
बहुत कुछ दे दिया मुझे,
परन्तु आज जिस छात्र को
देखता हूँ, स्वार्थी नजर आता है,
या शायद मैं स्वार्थी बन गया हूँ,
पढ़ाना मैरी मजबूरी बन गयी है,
अपनी ड्यूटी पर घंटो छात्रों का
इंतज़ार करता हूँ,
कुछ आते है,जो आज आते है वो
फिर कल नही आते है,
कोई जिम्मेदारी नही,कोई शर्म नही,
बस डिग्री कैसे ले इसी जुगाड़ में,
फ़ोन करते है बात करते है,बस
अपने काम के लिए,अपनी मतलब के लिए,
300 छात्रों में 30 भी नही आते,
बस यूं ही चल रहा है सब,
दुख तो तब और बढ़ जाता है
की स्नातक की डिग्री लेने के बाद भी
वे अपने विषय के शिक्षक को पहचानते भी नही।
जो छात्र एक आवेदन नही लिख पाता
वो बड़े शान से ग्रेजुएट हो गया है,
लानत है ऐसी व्यवस्था पे,
लानत है इस बात पे की मैं
एक शिक्षक हूँ,,
मैं नही चाहता कि आज के दिन
कोई मुझे याद करे,
अगर मैं किसी के बेहतर भविष्य का
सहभागी नहीं तो उसकी शुभकामनाओ
का आचार नही डाल सकता हूँ।
संतोष कुमार, सहायक प्राचार्य,
ये विचार मेरे अपने है