महात्मा गाँधी और मेरे परदादा मंज़ूर सुब्हानी की साथ की तस्वीर। 20 मार्च से 30 मार्च 1947 तक महात्मा गांधी बिहार में ही रहकर दंगे की आग में झुलस रहे लोगो से शांति का प्रयास कर रहे थे।इस दौरान वे मसौढ़ी, पटना, हांसदीह, घोड़ौआ, पिपलवां, राजघाट, जहानाबाद, घोसी, अमठुआ, ओकरी, अल्लागंज, बेला, जुल्फीपुर, अबदल्लापुर, बेलार्इ, शाइस्ताबाद आदि स्थानों पर मुस्लिम लीग के सदस्यों, हिन्दू महासभा के सदस्यों, स्त्री-पुरुष मुसलमान शरणार्थियों से मिले एंव ग्राम प्रतिनिधियों, पुलिसकर्मियों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से बातचीत की।
प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना-प्रवचन किये। राष्ट्रपिता महात्मा हमारे पूर्वजों के गाँव ज़ुल्फीपुर (मोदनगंज)भी पहुँचे थे ।वहाँ साम्प्रदायिक दंगे में हुई छति का जायज़ा लेने पहुँचे गाँधी जी ने हमारे परदादा मंज़ूर सुब्हानी जो कि स्थानीय जमींदार थे से विस्तृत जानकारी ली ।
दंगे में उस वक़्त हमारे पूर्वजो को भी वह जगह छोड़नी पड़ी थी परिवार के औरतें खुद को उस इंसानियत खो चुकी भीड़ से बचने के लिए घर के पास बने कुआँ में बच्चों संग छलांग लगा दी थी ।
ये तस्वीरे उसी कुँए की है जिसे देखने अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देखने पहुँचे थे। दंगे के बाद तब हमारे परदादा वहाँ गांधी जी के साथ खड़े थे वही कुआँ को दर्शाते हुए पूरी कहानी उन्हें बता रहे थे। गांधी जी इतनी भी हिम्मत नही हो पा रही थी वो कुआँ अंदर झांके बहुत भयावह हाल था।
परिवार के जो लोग वहाँ से भाग निकले थे वह काको आ कर बसे और यहाँ मकान बना । तसवीरें हमारे उसी पैतृक घर की है जो घर दंगे के कारण वीरान हो चुका था गांधी जी उसी घर का मुआयना करते नज़र आ रहे हैं। इससे ज़्यादा कहानी न मैं लिख पाऊंगा न आप पढ़ पाएंगे ।
बिहार के इसी कौमी दंगों में अथक दौरा करते गांधीजी ने मार्च 1947 में बिहार के सर्वमान्य नेताओं से सार्वजनिक रूप से पूछाः ” आपसे पूछना चाहता हूं कि आपकी आंखों के सामने 110 साल की उम्र वाली महिला का कत्ल हुआ और आप उसे देख कर भी जिंदा हैं तो कैसे ? …न मैं शांत बैठूंगा, न आपको बैठने दूंगा।… मैं पांव पैदल सारी जगहों पर भटकूंगा और हर कंकाल से पूछूंगा कि उसके साथ क्या हुआ… मेरे भीतर ऐसी आग धधक रही है जो मुझे तब तक शांति से बैठने नहीं देगी जब तक मैं इस पागलपन का कोई इलाज न खोज लूं। और अगर मुझे यह पता चला कि मेरे साथी मुझे धोखा दे रहे हैं तो मैं उबल ही पडूंगा और आंधी-तूफान कुछ भी हो, मैं नंगे पांव चलता ही जाऊंगा…”
बस इससे ज़्यादा अब मैं नहीं लिख पाऊंगा पर वो वक़्त तो गुज़र गया पर आज भी उन घटनाओं को किताबो में पढ़ता हूँ तो आंसू आज भी नही रुकते।
आज महात्मा गाँधी की जयंती पर मैं थोड़ी-सी चर्चा उस एक शख्स की करना चाहता हूं जो अगर न होता तो न गाँधी नहीं होते और न हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वैसा होता जैसा आज हम जानते हैं। वे एक शख्स थे चंपारण के बतख मियां। बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गाँधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नीलहे किसानों की दुर्दशा का ज़ायज़ा लेने चंपारण आए थे। चंपारण प्रवास के दौरान उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला था।
लोगों के आंदोलित होने से जिले में विद्रोह और विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की प्रबल आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में गांधी जी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बतख मियां इरविन के ख़ास रसोईया हुआ करते थे।
इरविन ने गाँधी की हत्या के के उद्देश्य से बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आई थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने गांधी जी को दूध का ग्लास देते हुए वहां उपस्थित राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी।
उस दिन गाँधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे-से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया।
बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में बतख मियां ने दम तोड़ दिया।चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं !
आज गाँधी जयंती पर बापू के साथ बतख मियां की स्मृतियों को भी सलाम !
मैं इतिहास का छात्र रहा हूँ और साहित्य में मेरी स्वाभाविक रूचि रही है। इस नाते इतिहास ने वस्तुनिष्ठता दी, तो साहित्य ने विषयनिष्ठ बनाया। इन सबके बीच मेरी संवेदनशील आलोचना-दृष्टि आकार ग्रहण करती चली गयी, और व्यावहारिक तक़ाज़ों के दबावों के बावजूद आज यही ‘संवेदनशील आलोचना-दृष्टि’ मेरे व्यक्तित्व की पहचान बन चुकी है।
मुझे लगता है कि इस ‘संवेदनशील आलोचना-दृष्टि’ के बिना गाँधी को जानना और समझना मुश्किल है। जब में इतिहास ऑनर्स का छात्र था, तो ग्रेजुएशन के उन दिनों गाँधी और गाँधीवाद की समझ न होने के कारण उसकी नकारात्मक आलोचना ऊर्जा और उत्साह का संचार करती रही, पर जैसे-जैसे गाँधी को जाना-समझा, उनसे प्यार होता चला गया। और अब तो इस प्यार का यह आलम है कि मेरी नज़रों में गाँधी और गाँधीवाद भारतीयता का पर्याय है।
गाँधी होने के मायने: गाँधी से प्रेम का मतलब है भारत से प्रेम करना, भारतीयता से प्रेम करना। गाँधी से प्रेम किए बिना भारत से प्रेम नहीं किया जा सकता है और गाँधीवाद की समझ के बिना भारतीयता की समझ मुश्किल है। और, गाँधी से नफ़रत करके तो भारत से प्रेम किया ही नहीं जा सकता है। ऐसा कोई भी दावा ढ़कोसला है और ऐसा दावा करने वाले देश को खोखला कर रहे हैं।
इसलिए गोडसेवादियों को मेरा दो-टूक सन्देश है: “गाँधी को तुम मार न सकोगे, और गोडसे को तुम जिला न सकोगे। मारा व्यक्ति को जा सकता है, विचार को नहीं; और तुमने ‘गाँधी’ नाम के व्यक्ति को मारकर यह सुनिश्चित कर दिया कि विचार के रूप में गाँधी मरेगा नहीं, मर ही नहीं सकता, क्योंकि यह रामत्व और रावणत्व के प्रश्न से जाकर सम्बद्ध हो गया।
तुमने रावणत्व का पक्ष लेकर गाँधी को मजबूती से राम के पाले में ले जाकर खड़ा कर दिया। अगर गाँधी को मारना सम्भव होता, तो 30 जनवरी,1948 को गाँधी की हत्या के बावजूद गाँधी का भूत तुम्हें इस कदर डरा नहीं रहा होता और गाँधी तुम्हारी छाती पर चढ़कर मूँग नहीं दल रहे होते।”
गाँधी भारतीयता के पर्याय: गाँधी और गाँधीवाद को लेकर मेरी इस समझ को विकसित करने में इतिहास की भूमिका नहीं रही, ऐसा तो मैं नहीं कहूँगा क्योंकि गाँधी को समझने की यात्रा ही इतिहास से शुरू हुई; पर यह ज़रूर कहूँगा कि इस समझ को विकसित करने में साहित्य ने कहीं अधिक एवं निर्णायक भूमिका निभायी। मैंने गौतम बुद्ध, कबीर और तुलसी से लेकर मैथिली शरण गुप्त, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, दिनकर, नागार्जुन और रेणु के साहित्य के ज़रिए भारतीय परम्परा, भारतीय समाज और भारतीय संस्कृति को भी समझने की कोशिश की तथा इसके सापेक्ष गाँधी और गाँधीवाद को रखकर देखा।
मुझे इनके बीच का फर्क मिटता हुआ दिखा, और फिर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन सारे चिन्तकों ने युगीन चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा की पुनर्व्याख्या की। बुद्ध ने ‘मध्यमा प्रतिपदा’ के ज़रिये अपनी युगीन चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया, तो तुलसी ने समन्वयवादी चेतना के धरातल पर।
गाँधी ने यही काम सर्वधर्मसमभाव और अहिंसक सत्याग्रह के ज़रिये किया। इसने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचाया कि भारत की सामासिक संस्कृति के केन्द्र में वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कार मौजूद है, सहिष्णुता एवं समन्वय जिसके प्राण-तत्व हैं, लेकिन इसका दायरा यहीं तक सीमित नहीं है। इसीलिए न तो वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कारों तक सीमित रहकर भारत और भारतीयता को समझा जा सकता है और न ही इसको नकार कर।
द्वंद्व और तनाव: न तो भारतीय समाज कोई समरूप समाज रहा हो और न ही भारतीय संस्कृति समरूप संस्कृति। विविधता से भरे समाज और संस्कृति में में समरूपता सम्भव भी नहीं है। स्वाभाविक है कि यह विविधता विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक समूहों के बीच हितों के टकराव को जन्म दे।
निश्चय ही यह स्थिति भारतीय समाज और संस्कृति में द्वंद्व एवं तनाव को जन्म देती है, और इस द्वंद्व एवं तनाव का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन, यह द्वंद्व और तनाव भारतीय समाज और संस्कृति का अंतिम सत्य कभी नहीं रहा।
द्वंद्व और तनाव: अंतिम सत्य नहीं:
कबीर ने इस बात को समझा, इसीलिए वे असहमति एवं विरोध तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने अपने असहमति एवं विरोध को एक न्यायपूर्ण मानवीय समाज के निर्माण के साधन में तब्दील कर दिया। इसीलिए वे घृणा और विध्वंस तक नहीं रुके, वरन् प्रेम की बात करते हुए समन्वय के ज़रिये सृजन की प्रस्तावना की और इसी के कारण दुनिया ने उन्हें युगान्तर की क्षमता से लैस युग-प्रवर्तक एवं क्रान्तिकारी के रूप में सैल्यूट किया।
तुलसी ने तो उनकी इसी समन्वयवादी चेतना को अपनी रचना-दृष्टि के केन्द्र में रखा। इस बात को गाँधी ने भी समझा, और उनके युग के साहित्यकारों ने भी। इसी समझ ने उन्हें तुलसी के करीब लाने का काम किया, और इसी समझ के कारण रूसी क्रान्ति, मार्क्स और मार्क्सवाद के प्रति तमाम आकर्षण के बावजूद प्रेमचन्द गाँधी और गाँधीवाद के प्रति अपने मोह को अन्त-अन्त तक छोड़ नहीं पाए।
इसी मोह ने साम्यवाद के प्रति आकर्षण के बावजूद प्रसाद को भारतीय परम्परा एवं संस्कृति से दृढ़तापूर्वक जोड़े रखा। इसी मोह के कारण रेणु को भी समाजवाद और साम्यवाद भारतीय मसलों का हल दे पाने में असमर्थ लगा और इसकी क्रान्तिधर्मी चेतना के प्रति तमाम आकर्षण के बावजूद इसके लिए उन्हें गाँधी और गाँधीवाद की शरण लेनी पड़ी। और, इसी मोह के कारण राष्ट्रकवि दिनकर को यह कहना पड़ा:
अच्छे लगते हैं मार्क्स, किन्तु प्रेम अधिक है गाँधी से! दरअसल गाँधी को कहावतों में तब्दील करते हुए भले ही हम कहते रहे हों कि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’, पर वास्तविकता यह है कि गाँधी हमारी मजबूरी भी हैं और मजबूती भी।
यह गाँधी और गाँधीवाद की मजबूती है जो उन्हें हमारी मजबूरी में तब्दील कर देती है और इसी मजबूती के कारण दक्षिणपंथियों के खिलाफ अपनी लड़ाई में वामपंथ भी गाँधी की शरण में जाने के लिए विवश होता है, और दक्षिणपंथियों को भी भारत के भीतर से लेकर भारत के बाहर तक अपनी स्वीकार्यता सुनिश्चित करने के लिए गाँधी के दरवाज़े पर मत्थे टेकने होते हैं। पर, गाँधी और गाँधीवाद की विडंबना यह है कि उनके समर्थकों से लेकर उनके विरोधियों तक में उन्हें भुनाने और बेचने की होड़ लगी हुई है, और यही उसकी त्रासदी है।
गाँधीवाद: अपार धैर्य की माँग: दरअसल गाँधी में कुछ ऐसा है जो हमें गाँधी से पूरी तरह से जुड़ने नहीं देता है। मार्क्स और मार्क्सवाद में जो क्षणिक आकर्षण है, उस क्षणिक आकर्षण का गाँधी और गाँधीवाद में अभाव है। कारण यह कि गाँधीवाद बदलाव की जिस प्रक्रिया की प्रस्तावना करता है, बदलाव की वह प्रक्रिया अत्यन्त धीमी एवं क्रमिक है, और इसीलिए थकाऊ एवं उबाऊ भी। और, उसकी यह कमी कई बार हमें विचलित करती है क्योंकि हममें इतना धैर्य नहीं होता है, बदलाव के लिए जितने धैर्य की अपेक्षा गाँधी और गाँधीवाद हमसे करता है।
यह स्थिति हमें मोहभंग की ओर ले जाती है और यह मोहभंग वैकल्पिक संभावनाओं की तलाश की ओर। इसके विपरीत, मार्क्सवाद में गजब का आकर्षण है। यह क्रान्ति के ज़रिये त्वरित बदलाव की बात करता है जिसकी परिकल्पना मात्र हमें रोमांचित करती है। इसीलिए गाँधी एवं गाँधीवाद से मोहभंग ने अक्सर भारतीय साहित्यकारों एवं चिन्तकों को मार्क्सवाद की ओर धकेलने का काम किया।
मार्क्सवाद की खामियाँ: तमाम खूबियों के बावजूद मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण टिक नहीं पाया। दरअसल, मार्क्स से भारतीय समाज एवं संस्कृति, या फिर भारतीय की सोच एवं मानसिकता को समझने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। तब तो और भी नहीं, जब एशियाई समाज को लेकर मार्क्स के अपने पूर्वाग्रह हैं, और अधिकांश भारतीय वामपन्थी तक इसे समझ पाने में असफल रहे।
राम विलास शर्मा, नामवर सिंह से लेकर मुक्तिबोध और बाबा नागार्जुन तक जिन वामपंथियों ने इसे समझने की कोशिश की, उन्हें ‘अपनों’ के बीच ही उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा। कभी उन्हें समग्रता में नहीं अपनाया गया, अपनी सुविधा के हिसाब से उन्हें टुकड़ों में लेने और समझने की कोशिश की गयी।
इसीलिये मार्क्सवाद का भारतीय परम्परा और संस्कृति से मेल नहीं है। इसके विपरीत, गाँधी का शनै:-शनै बदलाव परम्परा और संस्कृति की अवहेलना नहीं करता, वरन् उसके दायरे में रहते हुए ही बदलाव की प्रस्तावना करता है और व्यवस्था को मानवीय रूप प्रदान करता हुआ उन तमाम मसलों का हल सुझाता है जिनसे हमारा युग, समय, समाज और परिवेश जूझ रहा है।
इसके विपरीत, मार्क्स और मार्क्सवाद आमूलचूल बदलाव की बात करता है और बदलाव की इस प्रक्रिया में समाज एवं संस्कृति की अवहेलना छुपी हुई है। साथ ही, गाँधी और गाँधीवाद समझने की ज़रूरत पर बल देता है, जबकि मार्क्स एवं मार्क्सवाद समझाने की ज़रूरत पर बल। एक स्वत:स्फूर्त चेतना की परिस्थितियों को निर्मित करने में विश्वास करता है, तो दूसरा उस चेतना को आरोपित करने में।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इसीलिये मैं यह महसूस करता हूँ कि गाँधी को तुम मार नहीं सकोगे:
आज की राजनीति में अमेरिका गोया भगवान बन गया है। वाइट हाउस में पाँव धरना, आने-जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति से झूठे-सच्चे संबंधों पर इतराना, बार-बार उस दूरी को नापना।
गाँधीजी कभी अमेरिका नहीं गए। लेकिन अमेरिका में छाए रहे। कई सुविख्यात पत्रिकाओं में गाँधीजी छवि को आवरण पर दिया गया। बारम्बार।
अपनी अटलांटा यात्रा में मैंने मार्टिन लूथर किंग जू. गाँधी स्मृति घर में गाँधीजी की अनेक तसवीरें और किताबें देखीं, जो किंग ने ख़ुद जमा की थीं। बाद में तो ख़ुद किंग “अमेरिकी गाँधी” कहलाए।
उनकी हत्या भी किसी सिरफिरे ने उसी घृणा के चलते की, जो हमारे यहाँ गोडसे और उसके आराध्य संगठनों में गहरे पैठी हुई थी।