वर्ष 2005 में, बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए। एक फरवरी और दूसरा अक्टूबर में। बीच में राष्ट्रपति शासन का दौर रहा। केंद्रीय चुनाव आयोग ने बिहार के दुसरे चुनाव को बहुत गंभीरता से लिया था। पिछले करीब एक दशक से बिहार के चुनावी परिणामों पर आम आदमी का भरोसा उठ सा गया था जिस वजह से हर चुनाव के समाप्त होते ही आरोप-प्रत्यारोप के दौर शुरू हो जाते थे। किसी भी प्रजातंत्रीय व्यवस्था की सेहत के लिए यह स्थिति अनुकूल नहीं होती है।
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त अत्यंत गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। यद्यपि कि मैं मात्र IG रैंक का पदाधिकारी था और उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध भी नहीं था, तथापि उन्होंने मुझे अलग से अपने कार्यालय में तलब किया यह समझने के लिए कि बिहार में स्वच्छ चुनाव कैसे कराया जा सकता है? उनके समक्ष बैठते ही उनका यह सीधा और स्पष्ट प्रश्न मेरे कानों में पड़ा। मैंने उत्तर दिया , “श्रीमान, कोई भी चुनाव उतना ही स्वच्छ होगा जितना कि उसका वोटर लिस्ट। अगर वोटर लिस्ट भ्रष्ट हुआ तो चुनाव स्वच्छ हो ही नहीं सकता।”
अक्टूबर 2005 के बिहार चुनाव का मूल मन्त्र मानो वोटर लिस्ट की शुद्धता बन गया था। एक विधानसभा क्षेत्र में जहाँ गंगा नदी के कटाव के कारण कई पंचायत लाचीरगी हो गए थे, वहाँ के लोगों का नाम विस्थापित होने के बाद भी वोटर लिस्ट में रखा जा रहा था। इसका चुनाव परिणाम पर अस्वस्थ प्रभाव पड़ता था। उस चुनाव में वोटर लिस्ट को “साफ़” करने के अभियान में बड़ी संख्या में बोगस वोटर्स को लिस्ट से निकाला गया।
चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले आए। जो पार्टी हारी वह भी अपनी हार स्वीकार कर रही थी।
लम्बे समय तक किसी एक राजनीतिक व्यवस्था का रहना चुनावी प्रक्रिया को “सब्वर्ट” अर्थात विकृत कर देता है। “सबवर्ज़न” की शुरुआत होती है वोटर लिस्ट को भ्रष्ट कर देने से और फ़िर हर कदम पर भ्रष्ट तरीका अपनाया जाता है। इस चुनाव ने दिखा दिया था कि सिर्फ़ एक वोटर लिस्ट को ठीक करने से ही सबवर्ज़न का प्रायः पूरा विष निष्क्रीय हो जाता है।
वोटर लिस्ट की व्यापकता और शुद्धता, दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं।
लेखक — अभयानंद पूर्व आईपीएस अधिकारी