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गाँव का बदलता स्वरूप मोबाइल ने यहां भी साथ मिल बैठकर ग़प्पे लगाने की परम्परा को खत्म कर दिया

गांव गोनसा हो या खरोज पहले जैसी सुबह नहीं होती किसी रोज। गांव में आंगन अब गायब हैं गोरैया चहचाए तो कहां? टू बीएचके और थ्री बीएचके में बड़े होने वाले बच्चे सीमित संस्कार के साथ खड़े हो रहे हैं। किशोर अब डोल पत्ता और दूसरे खेल लगभग भूल गए हैं, पढ़ने के लिए किताब कोई नहीं मांगता बाप से ज़िद करके मोबाइल खरीदवाई जा रही है।

टेंपल रन और लूडो से लेकर सारा खेल ऑनलाइन है। शाम में हर गांव के बाहर पुल पुलिया पर बैठके आम है। मोबाइल की लाइट जल रही है जैसे हजार काम है। साइकिल पर चलने वाले ढूंढे नहीं मिलते फटफटिया तो जैसे सबकी जान है।

दोस्ती के पते भी बदल गए और गलियों का दामन भी छूट गया है। नीम की छाया अब सचमुच कड़वी हो चली है क्यूंकि नीम के दरख्त अब मिलते नहीं हैं। हम जैसों की यादों की पतंगे अब भी अटकी हुई हैं गांव की उलझे हुए से बिजली के तारों में। जहां सच्चे प्रेम के करंट निर्वाध दौड़ा करते थे। जाड़े में उबली हुई सकरकन और गर्मियों में कच्ची अमियों की कूचा की यादें हिलोर मारती हैं। परछाईयां अब बहुत कम दिलों को छू पाती हैं।

घरों में एसी और कुलर घनघनाते रहते हैं। ना गर्मी में दरवाजे पर चहल पहल है और ना छतों पर हलचल। बैलों की गले की घंटी क्या कहें अब तो बाछा बेला दिए जा रहे हैं। चापा कल तो म्यूजियम के समान हो गया है, हर छत पर बड़े टंकी और गली में मुंह चिढ़ाती नल जल योजना ही सच्चाई है। कुल मिलाकर गुज़रे वक्त की यादें निंबोलियों सी नजर आती हैं। ऐसा लगता है आदमी मशीन हो गया है। खेती बाड़ी से नाता टूट चूका है। हर कोई शॉर्टकट की तालाश में है।

पर्व त्यौहार की तो बात बेमानी है, सोमवार से रविवार की तरह आना और फिर यूं ही चले जाना। शादियों में हर दूसरा आदमी आडंबर में पहले वाले से आगे निकल रहा है….

लेखक –विमल

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